वेदना
प्रकाश “मणिभ” की कविता
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सिमट सिमटा कर अपनी भावों में
कुछ खोजता हूँ तो
तो कुछ मिलता नहीं
तेरे अलावे ऐ वेदना
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अंतस के विचारों में
छिपी है तू
इतनी भीतर जाकर
कुंठित है जिससे मेरी संवेदना
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सिर्फ हम इंसानों में
तू रुकी रही
हम बेजानों में
क्यूँ तू ऐ वेदना
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नहीं बसी है तू शैतानों में
वेद को तू ना कह दे
देव से तू दूर रह ले
केवल हम में है ऐ वेदना
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न मानूं ऐसे ईश्वर को
न जानूं ऐसे दीर्घ स्वर को
बेतान तान जिसने दिया तुझे
ऐ वेदना
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कहीं भवें भी तो तनती होगीं
कहीं आहें भी तो उठती होंगीं
जा लगी है टकराकर सबके निनार से
तो तू ही मिली है बस वेदना
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जाने दे हमें जाने दे
न तडपा न ऐसे विलटा
कहकहे जो लगा के सताती है
माफ़ कर दे अब हमारी वेदना
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शत नमन तुझे
अब छोड़ मुझे
कहीं और तू जाके अपनी आसनी जमा
ऐ मेरी वेदना
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स्वर्ग में न जाके फटकेगी
धरती पर आके लटकेगी
भ्रमित है जो तेरा ऐसा विचार बना
ऐ प्यारी वेदना
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आग्रह तू मेरा अब मान जा
जा जा अब तू चली जा
खुश रह लेंगे अब हम तेरे बिना
ऐ मानव की वेदना
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न बची है सब्र की बांध जहाँ
न रुक पाया है संयम जहाँ
कहीं ख़त्म न हो जाये सबकी अब संवेदना
चली जा तू अब सबकी वेदना
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