महलों की सुर्ख मुलायम नींद
जब – तब उचट जाती है
दु:स्वप्न सी भयंकर
क्या रात कट जाती है
आती नहीं उषा
बस आने की आहट हो
फिर वो भयावह सी
बाहर क्यों जाती है
देख अंधेरा नयन डरते हैं
सन्नाटा गहरा जाता है
मन होता है फिर सो जाऊँ
चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ
मगर बदल बदल कर करवटें
नींद क्यों नहीं आती है
महलों की सुर्ख मुलायम नींद
जब – तब उचट जाती है.
विकास तिवारी