घोसी उपचुनाव में समाजवादी पार्टी और इंडिया गठबंधन की शानदार जीत हुई जिसके बाद समाजवादी पार्टी के नेता और इंडिया गठबंधन के नेता बेहद खुश नजर आ रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी बेहद खामोश है लेकिन बीजेपी ही नहीं कोई और है जो बीजेपी से भी ज्यादा परेशान है। दरअसल, घोसी विधानसभा उपचुनाव के नतीजे बीजेपी से कहीं ज्यादा बसपा के लिए चिंता का सबब पैदा कर रहे हैं। बता दें कि मायावती ने घोसी सीट पर अपना उम्मीदवार नहीं उतारा था और इसके साथ ही अपील की थी कि बसपाई वोट न करें या फिर नोटा दबाएं। इसके बावजूद बसपा के मूल वोटर्स ने बड़ी संख्या में सपा के पक्ष में वोट किए हैंं इससे एक बात साफ दिख रही है कि बसपा के मूल वोटर्स का वोटिंग पैटर्न अब बदल रहा है और उनकी पसंद बीजेपी के बजाय सपा बन रही है। खतौली और मैनपुरी उपचुनाव के बाद ये ट्रेंड घोसी में भी रहा, जो बसपा के लिए भविष्य में चिंता बढ़ा सकता है?
घोसी के कुल 455 बूथों में से सपा 327 बूथों पर तो बीजेपी 128 बूथों पर आगे रही
दरअसल, घोसी में सपा भले ही जीतने में कामयाब रही हो, लेकिन कभी ये बसपा की जमीन हुआ करती थी। सपा से पहले घोसी में बसपा का दबदबा था। बसपा की यहां स्थिति काफी अच्छी थी और उसके उम्मीदवारों को औसतन करीब 50 हजार वोट मिलते रहे हैं। ऐसे में बसपा का एक खेमा चाहता था कि घोसी उपचुनाव में कैंडिडेट उतारा जाए, लेकिन मायावती के फैसले के बाद सब खामोश हो गए थे।बसपा के इस निर्णय से घोसी के सियासी रण में खलबली मच गई थी। माना जा रहा है कि इसका लाभ सपा को मिला और दलित वोटर उधर शिफ्ट हो गया। घोसी उपचुनाव में बसपा ने कैंडिडेट नहीं उतारा था, जिसके चलते पार्टी का कोर वोटबैंक दलित समुदाय पूरी तरह से किसी भी दल के साथ जाने के लिए आजाद था। ऐसे में दलित बहुल बूथों पर सपा से सुधाकर सिंह को बीजेपी से ज्यादा वोट मिले। घोसी के कुल 455 बूथों में से सपा 327 बूथों पर तो बीजेपी 128 बूथों पर आगे रही। इस तरह बसपा के दलित वोटों को सपा की तरफ झुकाव मायावती के लिए चिंता का सबब हो सकता है जबकि अखिलेश यादव को PDA यानि पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक समीकरण बनाने में एक मजबूत आधार मिल सकता है। इसीलिए बसपा के थिंक टैंक का मानना रहा कि पार्टी को उम्मीदवार घोसी सीट पर उतारना चाहिए था, फिर वो चाहे जीतता या हारता।
दलित वोटों का झुकाव सपा की तरफ होते देख बसपा का बढ़ी चिंता
मायावती के राजनीतिक रूप से सक्रिय न होने से जाटव समुदाय बसपा से निराश है। ऐसे में मौजूदा सियासी मिजाज को देखते हुए जयंत चौधरी ने पहले खतौली में उसका फायदा उठाया और अब अखिलेश ने पीडीए का दांव चला है, जो कभी कांशीराम का फॉर्मूला हुआ करता था। खतौली सीट पर जयंत चौधरी ने गुर्जर समुदाय से आने वाले मदन भैया को उतारा था और चंद्रशेखर आजाद के जरिए दलितों को साधने का दांव चला था। बीएसपी ने इस चुनाव में भी प्रत्याशी नहीं उतारा था ऐसे में RLD जाट-गुर्जर-मुस्लिम-दलित समीकरण को साधने में सफल रही। इसी के बाद अखिलेश यादव ने मैनपुरी लोकसभा सीट और उसके बाद अब घोसी में दलित-पिछड़ा-अल्पसंख्यक समुदाय को साधने की स्ट्रैटेजी बनाई, जो सियासी तौर पर उनके लिए मुफीद साबित हुई। दलित वोटों का झुकाव सपा की तरफ होते देख बसपा थिंक टैंक का मानना है कि ऐसा ही वोटिंग ट्रेंड रहा तो भविष्य में चिंता बढ़ सकती है। ऐसे में पार्टी के काडर आधारित काम तेज किया जाएं, तो बसपा की स्थिति में सुधार हो सकता है। सभी बूथों और सेक्टरों पर काडर कैंपों को तेज करके दलित वोटबैंक को जोड़े रखा जा सकता है। गैर-जाटव दलित पहले ही बीजेपी के साथ चला गया है और पार्टी के साथ जाटव वोट ही बचा है।
मायावती 2007 के बाद से कई तरह के सियासी प्रयोग करके देख चुकी हैं, लेकिन चुनावी सफलता नहीं मिल रही है बल्कि वोटबैंक खिसकता जा रहा है। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में दलित-ब्राह्मण फॉर्मूला बनाने की कोशिश की थी, लेकिन सफल नहीं रहा ऐसे में बसपा का जोर दलित मुस्लिम समीकरण पर है, लेकिन काडर कैंपों में सर्व समाज पर फोकस है। एक तरह से मुस्लिम, दलित के अलावा पिछड़े व सवर्ण समुदाय के लिए भी कैंप किए जाएंगे। हाल ही में बसपा ने आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को अपने एजेंडे में शामिल किया है। बसपा सुप्रीमो मायावती अपने बयानों में उनका भी जिक्र कर रही हैं कोशिश यह है कि वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह लोकसभा चुनाव 2024 में भी बसपा अपना ग्राफ बढ़ाए। अब देखना है कि बसपा के कोर वोटबैंक का सपा की तरफ बढ़ते झुकाव के लिए मायावती क्या सियासी दांव चलती हैं ?