मानसिक स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने के लिए आज विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाया जा रहा है। स्वस्थ शरीर के लिए व्यक्ति का मानसिक रूप से स्वस्थ होना बेहद जरूरी है। किशोरावस्था में मानसिक स्वास्थ्य को दरकिनार करने से यह बीमारी वयस्क होने तक बढ़ जाती है। ऐसे में न सिर्फ़ मानसिक बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
किशोरावस्था में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां अवसरों को सीमित करते हैं। विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के अवसर पर पॉपुलेशन कॉउन्सिल संस्था ने उत्तर प्रदेश तथा बिहार में किए गए अध्ययन ‘उदया’ के अनुसार, 18 से 22 वर्ष के 15 प्रतिशत लड़के और 21 प्रतिशत लड़कियों में अवसाद के हल्के लक्षण (माइल्ड) पाए गए। जबकि 4 प्रतिशत लड़कों और 9 प्रतिशत लड़कियों में अवसाद के मध्यम से लेकर काफी गंभीर लक्षण पाए गए।
वर्ष 2015-16 में संस्था ने लगभग बीस हज़ार किशोर और किशोरियों को पहले सर्वेक्षण में शामिल किया। इन्हीं किशोर और किशोरियों के साथ वर्ष 2018-19 में भी सर्वेक्षण किया गया। सर्वेक्षण में शामिल किए गए कई प्रतिभागियों में आत्महत्या की प्रवृति दर्ज की गई है।
तनाव का कारण-
किशोरावस्था में तनाव के कई कारण हो सकते हैं। अध्ययन के मुताबिक, ज्यादातर अविवाहित लड़के रोजगार संबंधी तनाव, पारिवार में गंभीर बीमारी या परिजनों की मौत के कारण तनाव महसूस करते हैं। वहीं ज्यादातर अविवाहित लड़कियां, शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों और परिजनों की मौत के कारण तनाव महसूस करती हैं। विवाहित लड़कियां इसके अतिरिक्त दहेज संबंधी प्रताड़ना और घरेलू हिंसा के कारण तनाव में रहती हैं।
गंभीर तनाव आत्महत्या की प्रवृति पैदा करता है। दूसरे अध्ययनों में बताया गया है कि भारतीय युवाओं में आत्महत्या से सर्वाधिक मौत हो रही हैं। संभवत: मानसिक स्वास्थ्य, शैक्षणिक असफलाताएं और जीवन से संतुष्ट न होना आत्महत्या के कारण हो सकते हैं।
गौरतलब हो कि कोविड-19 के दौरान दुनियाभर में तनाव, भय और घबराहट की शिकायतों में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। ‘उदया’ के सर्वेक्षण में भी यह बात सामने आई है कि बेरोजगारी, घरों में आर्थिक असुरक्षा का भाव और वैवाहिक हिंसा अकेलापन और अवसाद बढ़ने के प्रमुख कारण बन रहे हैं।
सरकारी और सामाजिक पहल की जरूरत-
2015-16 के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, 13 से 17 उम्र के लगभग 98 लाख युवा भारतीयों को मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। वर्ष 1992 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरुआत की थी। किशोरावस्था में मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष रूप से ध्यान देने के लिए वर्ष 2014 में राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरुआत की गई। हालांकि किशोरावस्था में मानसिक स्वास्थ्य पहलों की पहुंच अभी भी सीमित है। जबकि सर्वेक्षण के तीन वर्षों के दौरान प्रतिभागियों में मनोरोग और उनके लक्षण बढ़ते पाए गए।
अध्ययन के मुताबिक, लोक-लज्जा और पर्याप्त काउंसलिंग की कमी के कारण किशोर और किशोरियां मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियोंको साझा नहीं कर पाते। उत्तर प्रदेश में सर्वेक्षण में शामिल 33 प्रतिशत अवसाद पीड़ित अविवाहित लड़के और 51 प्रतिशत अविवाहित लड़कियां सहायता के लिए अपने परिजनों का रूख करते हैं।
वहीं 72 प्रतिशत तनाव ग्रस्त शादीशुदा महिलाएं मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के निदान के लिए परिजनों का सहारा लेती हैं। जबकि महज़ 10 प्रतिशत लड़के, 3 प्रतिशत अविवाहित लड़कियां और 4 प्रतिशत विवाहित लड़कियां स्वास्थ्यकर्मियों की सलाह ले पाती हैं।
राज्य की युवा और ऊर्जावान आबादी राज्य की बेहतरी और प्रगति के लिए अहम होती है। अत: किशोरावस्था में मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में तत्काल सामाजिक और सरकारी प्रयास किए जाने की जरूरत है।
पॉपुलेशन काउंसिल के हेड निरंजन सग्गुरटी के अनुसार, “राज्य में स्कूल और सामुदायिक स्तर पर काउंसलिंग सुविधाओं को सशक्त करने की जरूरत है। सामुदायिक स्तर पर तैनात स्वास्थ्यकर्मियों को मानसिक स्वास्थ्य संबंधी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
न सिर्फ़ मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े अन्य पहलुओं पर विशिष्ट अभियान चलाने की जरूरत है बल्कि ऐसे कार्यक्रमों की भी जरूरत है जिससे समाज़ में मनोरोग से जुड़ी रूढ़ीवादी तौर तरीकों में बदलाव लाए जा सकें।”