तृणमूल कांग्रेस ने अब मेघालय के पूर्व सीएम मुकुल संगमा और कांग्रेस के अन्य 11 विधायकों को पार्टी में शामिल कर लिया है। गोवा, बिहार, हरियाणा, यूपी के अलावा पूर्वोत्तर भारत में भी टीएमसी त्रिपुरा और मेघालय जैसे राज्यों में मुख्य विपक्षी दल बनने की स्थिति में है। इसी सप्ताह बिहार कांग्रेस के सीनियर नेता कीर्ति आजाद और हरियाणा में कभी राहुल गांधी के करीबी रहे अशोक तंवर ने भी टीएमसी का दामन थाम लिया था। इनके अलावा जेडीयू के पूर्व सांसद पवन वर्मा भी टीएमसी का हिस्सा बने हैं। इसके बाद भाजपा के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यन स्वामी ने भी ममता बनर्जी से मुलाकात की है और अब मोदी सरकार को फेल करार दिया है।
यही नहीं उनसे जब यह पूछा गया कि क्या वह टीएमसी में शामिल होने वाले हैं तो उनका जवाब था कि वह तो पहले से ही उसमें शामिल हैं। इससे उन्होंने साफ संकेत दिया है कि भविष्य में वह पाला बदल कर सकते हैं। भाजपा से वह बीते कई सालों से नाराज भी चल रहे हैं। लेकिन सवाल यह भी है कि बंगाल में भले ही टीएमसी बड़ा जनाधार रखती है, लेकिन हरियाणा, बिहार और यूपी जैसे राज्यों में उसका कोई दखल नहीं है। फिर भी कई सीनियर नेता उसमें क्यों शामिल हो रहे हैं। इसकी इनसाइड स्टोरी में जाएं तो बड़ी वजह राज्यसभा की सीटें भी हैं।
पश्चिम बंगाल में राज्यसभा की कुल 16 सीटे हैं, जिनमें से 12 पर टीएमसी है और 1 अन्य सीट पर उपचुनाव के लिए उसने गोवा में कांग्रेस से आए नेता लुईजिन्हो फलेरियो को उम्मीदवार बनाया है। इस सीट पर 29 नवंबर को उपचुनाव होना है। इसके अलावा 2 सीटें 2023 में खाली होने वाली हैं और 3 सीटें 2024 में खाली होंगी। माना जा रहा है कि कीर्ति आजाद, अशोक तंवर और स्वामी जैसे नेताओं को टीएमसी राज्यसभा भेज सकती है। दरअसल इस तरह इन नेताओं को टीएमसी के जरिए संसद में पहुंचने का रास्ता मिल जाएगा, जिन्हें कांग्रेस या अन्य पार्टी से मौका मिलने के आसार नहीं हैं।
ऐसे नेताओं को शामिल कराने से टीएमसी को है क्या फायदा
अब यदि टीएमसी के लिहाज से बात करें तो उसके लिए फायदे का सौदा यह है कि उसे उन राज्यों में भी अपनी धाक जमाने का मौका मिल जाएगा, जहां उसका कोई जनाधार नहीं है। फिलहाल टीएमसी उन राज्यों पर फोकस कर रही है, जहां कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है और कांग्रेस कमजोर है। इसके अलावा यूपी और बिहार जैसे राज्यों में भी वह कांग्रेस की जगह लेना चाहती है क्योंकि वहां उसके नेता उपेक्षित हैं और वे किसी ऐसे ठिकाने की तलाश में हैं, जो वैचारिक तौर पर करीबी भी हो।