सुप्रीम कोर्ट के चार पूर्व न्यायाधीशों ने देशद्रोह और गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) पर दंडात्मक प्रावधान को निरस्त करने की वकालत की।
इन्होंने कहा कि इनका आमतौर पर असंतोष को दबाने और सरकार से सवाल पूछने वाली आवाजों को दबाने के लिए दुरुपयोग किया जाता है। न्यायमूर्ति आलम, पूर्व न्यायाधीश दीपक गुप्ता, मदन बी. लोकुर और गोपाल गौड़ा ने ‘लोकतंत्र, असंतोष और कठोर कानून – क्या यूएपीए और राजद्रोह कानून को क़ानून की किताबों में जगह देनी चाहिए?’ विषय पर एक सार्वजनिक चर्चा में बोल रहे थे।
यूएपीए के तहत आरोपी 84 वर्षीय फादर स्टेन स्वामी की हिरासत में मौत का जिक्र करते हुए, चार पूर्व न्यायाधीशों में एक, आफताब आलम ने कहा, ‘यूएपीए ने हमें दोनों मोर्चों पर नाकाम कर दिया है जो राष्ट्रीय सुरक्षा और संवैधानिक स्वतंत्रता है।’ न्यायमूर्ति आलम ने कहा कि ऐसे मामलों में मुकदमे की प्रक्रिया कई लोगों के लिए सजा बन जाती है, वहीं न्यायमूर्ति लोकुर का विचार था कि इन मामलों फंसाए गए और बाद में बरी होने वालों के लिए मुआवजे की व्यवस्था होनी चाहिए।
इसी विचार से सहमति व्यक्त करते हुए न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि लोकतंत्र में इन कठोर कानूनों का कोई स्थान नहीं है। न्यायमूर्ति गौड़ा ने राय व्यक्त की कि ये कानून अब असहमति के खिलाफ एक हथियार बन गए हैं और उन्हें रद्द करने की जरूरत है। न्यायमूर्ति आलम ने कहा, ‘यूएपीए की आलोचनाओं में से एक यह है कि इसमें दोषसिद्धि की दर बहुत कम है लेकिन मामले के लंबित रहने की दर ज्यादा है। यह, वह प्रक्रिया है जो सजा बन जाती है।’
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि 2019 में अदालतों में यूएपीए के तहत दर्ज 2,361 मुकदमे लंबित थे, जिनमें से 113 मुकदमों का निस्तारण कर दिया और सिर्फ 33 में दोषसिद्धि हुई, 64 मामलों में आरोपी बरी हो गये और 16 मामलों में आरोपी आरोप मुक्त हो गये। उन्होंने कहा दोषसिद्धी दर 29.2 प्रतिशत है। पूर्व न्यायाधीश ने कहा कि अगर दर्ज मामलों या गिरफ्तार लोगों की संख्या से तुलना की जाए तो दोषसिद्धि की दर घटकर दो प्रतिशत रह जाती है और लंबित मामलों की दर बढ़कर 98 प्रतिशत हो जाती है।
न्यायमूर्ति आलम के साथ सहमति जताते हुए न्यायमूर्ति गुप्ता ने राजद्रोह कानून और यूएपीए के दुरुपयोग को लेकर विस्तार से जानकारी दी और कहा कि इसे समय के साथ और कठोर बनाया गया है और इसे जल्द से जल्द रद्द कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘लोकतंत्र में असहमति जरूरी है और सख्त कानूनों का कोई स्थान नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में, असहमति और सरकार से सवाल पूछने वाली आवाजों को दबाने के लिए कानूनों का दुरुपयोग किया गया है।’
यूएपीए के आरोपी स्टेन स्वामी की मौत और मणिपुर में गाय का गोबर कोविड-19 का इलाज नहीं है कहने पर, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत एक व्यक्ति की गिरफ्तारी का हवाला देते हुए उन्होंने सवाल किया कि क्या भारत एक पुलिस राज्य बन गया है। इस बीच, न्यायमूर्ति लोकुर ने सुझाव दिया कि एकमात्र उपाय जवाबदेही और उन लोगों के लिए मुआवजा है जो लंबी अवधि की कैद के बाद बरी हो जाते हैं। न्यायमूर्ति गौड़ा ने कहा कि विशेष सुरक्षा कानूनों में बड़े पैमाने पर सुधार की जरूरत है।
वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने वेबिनार में कहा कि यूएपीए और राजद्रोह कानून का इस्तेमाल असहमति को दबाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए किया जा रहा है और यह विचार करने का समय आ गया है कि क्या वे संविधान के अनुरूप हैं। इस परिचर्चा का आयोजन ‘कैंपन फॉर ज्यूडिशल अकाउंटिबिलिटी एंड रिफोर्म्स (सीजेएआर) और ‘ह्ममून राइट्स डिफेंडर्स अलर्ट (एचआरडीए) ने किया था।