दिव्य- रिश्तों के ताने – बाने से,
आदि-अनंत प्रकृत-द्वि रूपों में,
मात-पिता के एकाकार तेजों से,
कहीं, एक रूप मेरा है तुम में।
बहन, काल यह गतिमय कैसा,
आज नहीं है अब कल के जैसा,
माँ के गोद तू आयी परी सदृशा,
रंग भरा तूने इंद्र-धनुष सरीखा।
वो नन्हा-नन्हा सा स्वरुप, नन्हीं-नन्हीं बाहें,
सुर्ख लाल कपोल, पलक झपकाती आंखें,
कैसे फेंक रही थीं पांव, जैसे हवा में राहें,
कुतूहल कैसा? थे लगे लोग तुझे निहारनें।
परिवर्तन कैसा यह? घर को एक नया आयाम मिला था,
एक नया -सा रौनक, हर जन को जैसे आराम मिला था,
किलकारी- रोने में भी सबको एक नया काम मिला था,
अभिभूत माँ को पुनर्जन्म और एक नया रूप मिला था।
तेरे आने के बाद मात- पिता की थी एक अभिलाषा,
संग सदा और हम भाई-बहन बनें रहें एक ही जैसा,
दुःख-सुःख निभायें साथ, बना रहे हममें प्यार हमेशा,
जब होंगे न हमारे साथ, वे फिर भी हममें रहे जरा सा।
बहना ! इस समय नहीं प्राप्त उनके साथ का सौभाग्य,
यदि तू जो है हमारे साथ, होगा यह बड़ा मेरा अहो भाग्य,
काल हो या रस्म- वस्तु- विधान, ऐ बहन! मेरी आराध्य,
तन- मन- धन सब अर्पित तुझे, तेरी हर इच्छा हो साध्य।
दिव्य- रिश्तों के ताने – बाने से,
आदि-अनंत प्रकृत-द्वि रूपों में,
मात-पिता के एकाकार तेजों से,
कहीं, एक रूप मेरा है तुम में।
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कहीं, एक रूप मेरा है तुम में।
प्रकाश “मणिभ”
(रक्षाबंधन -2020 के अवसर पर)