हर घर की ‘कीली’ स्त्री होती है. परिवार इसी कीली पर घूमता है. किशोरावस्था में बच्चे को यही अन्नपूर्णा अन्न को पीस और छान कर उसे भोजन-योग्य बनाती है. कहा जा सकता है कि इस उम्र के बच्चे दरांती में पड़े दानों जैसे होते हैं, उच्छृंखल, उदंड, और शोर मचाने वाले. लेकिन जब वे सुशासित मुद्रा में पिस कर आंटे में परिवर्तित होते हैं तब उनकी भूमिका सार्थक बन जाती है. इसी मंथन में कुछ दाने दरांती से बाहर निकल जाते हैं, जो झाड़-बुहार के साथ कूड़े में कूद जाते हैं. जिन्हें संस्कारित नहीं किया जाता है, वे कहीं भीगकर उग मिटटी में उग आते हैं, कहीं किसी पक्षी के पपोटे में जा पहुँचते हैं, कहीं वे सड़ भी जाते हैं.
हर घर की ‘कीली’ स्त्री होती है. परिवार इसी कीली पर घूमता है. किशोरावस्था में बच्चे को यही अन्नपूर्णा अन्न को पीस और छान कर उसे भोजन-योग्य बनाती है. कहा जा सकता है कि इस उम्र के बच्चे दरांती में पड़े दानों जैसे होते हैं, उच्छृंखल, उदंड, और शोर मचाने वाले. लेकिन जब वे सुशासित मुद्रा में पिस कर आंटे में परिवर्तित होते हैं तब उनकी भूमिका सार्थक बन जाती है. इसी मंथन में कुछ दाने दरांती से बाहर निकल जाते हैं, जो झाड़-बुहार के साथ कूड़े में कूद जाते हैं. जिन्हें संस्कारित नहीं किया जाता है, वे कहीं भीगकर उग मिटटी में उग आते हैं, कहीं किसी पक्षी के पपोटे में जा पहुँचते हैं, कहीं वे सड़ भी जाते हैं.
देखा गया है कि किशोरावस्था में बालक स्वप्नजीवी होता है. माँ की गोद और उसके आंचल की छाँह में वह आँखें मूंदकर सपने देखता है, उससे लिपटकर सुरक्षित महसूस करता है, गीली आँखों को माँ के आंचल से पोछ लेता है, मन के भीतर के संशय और रहस्यों को आंचल के साये से बाहर नहीं जाने देता है. माँ उसके हर राज़ों परिचित होती जाती है, कालांतर तक वह उसकी दोस्त बन जाती है, खतरों के समय की ढाल और उसके विकास की सीढ़ी भी.
वह भूख में माँ के कान में फुसफुसाता है कि उसे क्या चाहिए. माँ ही तो है जिसका मुंह देखकर बच्चा विकसित होता है. उसके चेहरे का तनाव बच्चे का तनाव बन जाता है. उसकी ख़ुशी बच्चे के स्वभाव का आनंद बन जाती है.
लोग अकसर बच्चों को ‘ममाज़-ब्वाय’ कहते हैं. सुशांत राजपूत भी अपनी मां का ‘ममाज़ ब्वाय’ ही तो था. वह हर लड़की में अपनी माँ को ही तो तलाशता रहता था. आखरी पत्र में भी तो उसने अपनी माँ को ही सम्बोधित कलिया था.
16 साल की उम्र क्रूशल होती है. उस उम्र में सुशांत को माँ की ज़रूरत थी. लेकिन वह दिवंगत हो गई. एक सच्चा दोस्त सुशांत की ज़िन्दगी से अकस्मात् चला गया. अब वह किसी से कुछ भी नहीं कह सकता था, पिता से भी नहीं. पिता में माँ कहाँ दिखाई देती है? वह तो एक अदृश्य भय होता है.
एक घटना मेरे परिवार में घटी. मेरा एक ममेरा भाई था. ‘ममाज़ ब्वाय’, मेधावी, लम्बी उड़ान का पंछी. वह, पता नहीं किस आसमान को छूना चाहता था. मामी समझती थीं. इसीलिए वह माँ का दुलारा था.
तब, उसकी उम्र भी 16 साल की थी. 3 बड़े भाई थे. हाईली-क्वालीफाईड. मैं उन दिनों एमए का छात्र हुआ करता था. उन्हीं दिनों मामी की ह्रदय-गति रुक जाने से अकस्मात् मृत्यु हो गई. एक गहरा आघात था. मामी के दिवंगत होते ही मेरा ममेरा भाई तनहा हो गया. बड़े बाप का बेटा था, ऐसे परिवारों में अपने आपमें भी अहंकार होता है. ममेरा भाई भी सबके बीच सहज न हो सका.
मामी होतीं तो वह पहले जैसा ही सहज, सौम्य और हंसमुख होता. लेकिन उस घर में अब कोई भी सहज नहीं था. किसी ने भी उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया. प्रोफ़ेसर पिता खाने की टेबिल पर औपचारिक-मात्र बात करते, इतिहास, राजनीति और साम्यवाद पर बातें करते, लेकिन ममेरा भाई गर्दन झुकाये या शून्य में किसी बिंदु पर खुद को अटकाए निवाले को चूसता रहता, फिर एकदम झटके से उठकर डायनिंग से बहार निकल जाता. फिर सब लोग भी अपने-अपने कमरों में लौट जाते.
हॉस्टल से मैं आता तो ममेरा भाई मुझे अपने कमरे में ले जाता, मेरे सामने ही सिगरेट को ख़ाली कर उसमें चरस भरकर पीने लग जाता. मैंने देखा, कुछ दिनों बाद वह ड्रग्स भी लेने लगा था. घर के बड़ों को मालूम हो चुका था. लेकिन किसी ने उसपर ध्यान नहीं दिया. यहां तक कि ममेरा भाई अब स्वतःअडिक्ट होता चला गया.
वह नशे में रोता, मामी को याद करता, उनसे शिकायतें करता कि वह भूखा रहता है, कोई उसका ख्याल नहीं रखता है….उसे अकेले कमरे में डर लगता है. वह कहता, ‘मम्मा! मुझे अपने पास बुला लो.’ जिस दिन वह स्वप्न में अपनी मम्मा को देखता तो उसदिन नाहा-धोकर वह मेरी फैकल्टी में आकर वहां से मुझे अमीरनिशा लेजाता, मेरे साथ वहीं नाश्ता करता और फिर……?
उस दिन ममेरा भाई शाम तक सोता रहा. शाम को ही किसी ने देखा, उसके कमरे से धुंआ फूट रहा है. लोग दौड़ पड़े, देखा, धुएं से भरा कमरा, उसमें ममेरा भाई लिहाफ लपेटे सो रहा है, उसकी उँगलियों में सिगरेट सुलग रही है. सिगरेट के गुल से लिहाफ की रुई भी सुलग चुकी है. हर तरफ भगदड़ मच गई. एम्बुलेंस आ गई. पता चला, उसके पीठ की जिल्द जल गई थी. एक माह लगा उसे सुधरने में. तीन माह लगे स्वस्थ होने में. मामू ने उसे कुछ महीनों बाद दिल्ली से अब्रॉड भेज दिया. उसके बाद वह आज तक भारत नहीं लौटा.
सुशांत के विकास में भी निश्चय ही माँ का खालीपन रहा है. उसका अकस्मात् दुनिया से जाना अजीब सा लगता है लेकिन सच तो यही है. पुलिस की तफ्तीश में क्या निकलता है यह तो चार्जशीट से ही पता चल सकता है.
-रंजन ज़ैदी