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Home महिला

“ओ स्त्री” कहाँ है तेरा अपना घर?

Janlok india times news bureau by Janlok india times news bureau
May 5, 2020
in महिला
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एक औरत को आप कई नामो से सम्बंधित कर सकते है औरत,स्त्री,माँ, बहन,बेटी,नानी,दादी,चाची, काकी,बहु और भी बहुत से नाम जो मैं नही लिख रही मैं अपनी आगे की बात बताने के किये स्त्री शब्द का प्रयोग करुँगी तो आप समझ लेना मै उसी स्त्री की बात कर रही जो हो सकता आपकी माँ या बीवी होगी। ये मेरी पहली रचना है अतः हो सकता कुछ गलती हो तो आप मुझे जज मत करना सिर्फ बता देना मैं उसे ठीक करलुगी अगली बार से। अच्छा एक बात और मैं जानना चाहती हु मैं ने अपनी मां से पूछा था कल माँ कहा है मेरा अपना घर अब मैं छोटी बच्ची तो हु नही की माँ मुझे बहलाती उसने कहा बेटा तेरी दुगनी उम्र है मेरी और मुझे ये जवाब अभी मिला नहीं तो थोड़ा सब्र कर जल्दी तुझे जवाब मिलेगा तब मुझे लगा कि कही तो पूछू और कोई तो बताये कहाँ है स्त्री का घर? रोटी, कपड़ा और मकान सभी को चाहिए।

परन्तु एक स्त्री को कैसे-कैसे कष्ट और अत्याचार सहने पड़ते हैं- इस रोटी, कपड़ा और मकान के लिए जो एक लड़की को तो ये चीज़ें बड़े आराम, बड़े प्यार से पिता के घर में मिलती हैं, परन्तु एक स्त्री को, यानी विवाह के बाद इन्हीं तीन चीज़ों के लिए ससुराल में दासी, चेरी, सेविका, नौकरानी और न जाने क्या-क्या बनना पड़ता है, उसे कितने ही शारीरिक, मानसिक कष्ट व यातनाएँ झेलनी हर हैं। जैसे-तैसे रोटी, कपड़ा, मकान तो उसे मिल जाता है परन्तु घर नहीं मिल पाता, जी हाँ विरोधाभासी नाम ‘घरवाली’ ज़रूर मिल जाता है और उस ‘घरवाली’ को मान-सम्मान? अजी छोड़िए- उसे तो सास, ससुर, पति और ससुराल वालों से अनेक तानो, व्यंग्यों और अपशब्दों से सम्मानित किया जाता है जबकि वह बेचारी तो जानती भी नहीं कि नौकरानी की तरह घर के सारे काम और सब सी सेवा-सुश्रूषा करते हुए भी उसे किस बात की सज़ा दी जा रही है। पति चाहे कैसा भी हो, पत्नी के साथ ऐसा व्यवहार करता है जैसे उसके साथ रह कर उस पर कोई अहसान कर रहा हो, और तो और अपने सहकर्मियों, अधिकारियों, दोस्तों और रिश्तेदारों का क्रोध भी घर आकर पत्नी पर ही उतारता है। उस बेचारी ग़रीब, अभागी की तो कोई सुनने वाला ही नहीं। माता-पिता से भी ज़्यादा मिलने जाने की इजाज़त नहीं और किसी मित्र अथवा सहेली से बात करके मन हलका करने का भी विकल्प नहीं। कभी-कभी बचपन से ही परिवार द्वारा मिलने वाले संस्कार भी स्त्री के दुश्मन बन जाते हैं- लड़की का असली घर तो उसके पति का घर होता है, या डोली में बैठ कर ससुराल जाना, अर्थी पर निकलना और माता-पिता के घर मेहमान की तरह आना, दोनों घरों की लाज निभाना, स्त्री ही घर बनाती है, निर्जला करवा चौथ का व्रत-जैसे
सार्वभौमिक सत्य universal truth और अटूट सात फेरों के बंधन विवाह के समय ढेर सारे दहेज के साथ उसके पल्लू से बाँध दिए जाते हैं, जिनका निर्वाह करते करते स्त्री का जीवन नरक बन जाता है।

“उम्मीद पर दुनिया क़ायम है” यह उक़्ति तो बेचारी का नारकीय जीवन और लम्बा कर देती है। वह सोचती है- शायद कभी हालात ठीक हो जाएँ, बस इसी आशा में चलती जाती है, चलती जाती है, सहती जाती है, सहती जाती है। वाह री नारी? हाँ, इसी ऊहापोह में सौभाग्यवश या दुर्भाग्यवश वह माँ बन गई, तो बच्चे के लाड़- प्यार, ममता और पालन- पोषण में अपने दु:ख-दर्द भूलने सी लगती है और यही मोह- ममता उसके पैरों की बेड़ी भी बन जाती है, यदि कभी वह बेचारी इस नरक से निकलने की हिम्मत करना चाहे तो। कुछ उदाहरण तो ऐसे भी हैं कि वह ज़रा सा सिर उठाए तो बच्चे को, यदि वह लड़का है। उससे छीन कर उसे बाहर निकाल फेंकते हैं।लड़की पैदा करने वाली माँ तो वैसे भी स्वीकार्य नहीं है जबकि गर्भ में बेटा है या बेटी- इस बात का तथाकथित यश या अपयश पिता को ही जाता है, माता को नहीं। आधुनिक पुरुषों का एक तुर्रा और है कि हम पत्नी को बहुत मान- सम्मान देते हैं, बराबर का अधिकार देते हैं, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता: यही तो विडम्बना है, सब बकवास है। और यह सब कार्यक्रम ऐसा नहीं कि रुक जाए। बच्चे बड़े हो गए, तब भी बेचारी स्त्री के कष्ट और यातनाएँ स्थाई रूप से वृद्धावस्था तक चलते ही रहते हैं। वैसे भी पति महोदय तो पुरुष है न, वह तो पत्नी के ज़रा सा ऊँचा बोलने या विरोध करने पर हाथ भी उठा सकता है क्योंकि इस नपुंसकता को वह अपनी मर्दानगी और जन्मसिद्ध अधिकार समझता है, और हाँ शिक्षित और सुसंस्कृत होने का आवरण पहना हुआ पति यदि हाथ न भी उठाए तो वह पत्नी से बोलचाल और व्यवहार तो बंद करेगा ही। अब वह स्त्री सबके साथ रहते हुए भी एकदम अकेली हो जाती है। तो सारा परिवार एक तरफ़ और बहू एक तरफ़, अकेली।

ऐसे हालात में वह बेचारी बस स्वयं से ही बातें करने की आदी हो जाती है। यह भावनात्मक अत्याचार और शोषण नहीं तो और क्या है? आज के युग में स्त्री शिक्षा और स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर उसके हालात में कुछ सुधार आने की बात करें, तो ऐसे वातावरण से निजात पाने के लिए शिक्षित महिला यदि घर से बाहर जाकर कार्य करना और आर्थिक रूप से स्वावलंबी होना चाहे तो उसके चरित्र पर आरोप लगाने में भी कोई गुरेज़ नहीं करेगा। अंत में एक समय ऐसा भी आता है जब स्त्री सोचती है- ‘अंत भला तो सब भला, अब मेरे बच्चे बड़े हो गए हैं, सक्षम और स्वावलंबी हो गए हैं, मुझे संतान से तो मान-सम्मान और सुख मिलेगा ही। ऐसे में अमुक आशावान स्त्री पिछले सारे कष्टों, यातनाओं को भूलने का प्रयत्न करती है परंतु यदि एकमात्र उम्मीद संतान की ओर से भी उस माँ को अवहेलना और तिरस्कार मिले, तो ज़रा सोचिए- क्या बीतेगी उस बेचारी ग़रीब पर? क्या करे वह? कहाँ जाए? कहाँ है उसका घर? जन्म के बाद पिता का घर, विवाह के बाद पति का घर और अब बेटे का घर।

कहाँ है?- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता: कहाँ है- घरवाली’ का घर? क्या जिस स्त्री के वेदों और पुराणों में पूजा जाता हर धर्म और धार्मिक पुस्तक में जिसे देवीतुल्य स्थान दिया जाता उसको अपना ही स्थान देने में पुरुष प्रधान देश की शान घटती है? आप भले ही आप आज 21वी सदी में आ गए हो लेकिन आप स्त्री का सम्मान और स्थान न दे सके तो आप आज भी 12वी सदी में है जहाँ सीता ने भी मर्यादास्त्री उत्तम हो कर भी वन में रही। खैर सीता के रामायण से आज तक का सफर तो वैसा ही है उसकी अवस्था मे कोई सुधार नही। अपितु आज की नारी तो ऑफिस में भी शोषण का शिकार होती ही है। चाहे वो पदोंन्नति हो या घर की कोई नई जिम्मेदारी उससे हमेंशा ही अग्नि परीक्षा की उम्मीद की ही जाती है।

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