मन बावरा था ये समझा ही नहीं
उड़ता ही फिर रहा न जाने कहीं
सोये थे अरमा कुछ दिल के कहीं
जगाये कैसे दिल को मालूम नहीं
झरनों ने तो शोर मचाया भी था
नदियों ने फिर पानी बहाया भी था
मन ही था बावरा समझा ही नहीं
बहता ही गया इस पानी मे कहीं
झूम उठी थी शाखों पर भी पत्तियाँ
कलियों ने फूलों का हाथ भी थामा
मन बावरा था ये समझा ही नहीं
प्यार को अपने पहचाना ही नही
मन बावरा था ये समझा ही नहीं
उड़ता ही फिर रहा न जाने कहीं
सौरभ दत्ता