‘हैलो बाबू मोशाय! नेमिशरण…… नेमिशरण राय! तुम्हारी बग़लवाली सीट पर बैठता हूं।’
यह उत्साहित सम्बोधन था नेमी बाबू का। नेमी बाबू, यानी नेमिशरण राय….सीनियर सब-एडीटर। पब्लिकिशन-हाउस का सबसे चर्चित और विवादित नाम। मेरे ज्वाइन करने के बाद आज मेरी उनसे पहली औपचारिक मुलाकात हो रही थी। अनौपचारिक रूप से मैं इस हाउस में आने से पहले ही उनके बारे में बहुत कुछ जान चुका था। यहां के लोगों ने उनके बारे में मुझे इतना कुछ बता दिया था कि मैं उनकी सीट के बराबर अपनी सीट पर बैठते ही कुछ असहज सा महसूस करने लगा था। समझ में नहीं आ रहा था कि नेमी बाबू की बग़ल में बैठ कर मैं काम कर भी पाऊंगा या नहीं।
उनका हाथ मेरी ओर बढ़ आया था। उनके सम्मान में मेरा खड़ा होना मेरी नैतिकता की ज़रूरत थी, हालांकि मैं बहुत उत्साहित नहीं था। फिर भी व्यवहारिकता का प्रदर्शन करते हुए मैंने उनके हाथ को लपक कर थाम लिया। नेमी बाबू तब तिनके की तरह एकाएक लहरा गये थे। देखने में बेहद कमज़ोर से थे वह। उनके दोनों कानों के ऊपर और पीछे गर्दन तक सुनहरे बालों की लटें बिखरी हुई थीं। एक निचुड़े चेहरे वाले स्याह रंगत के नेमी बाबू के चेहरे पर मुझे ज़रा भी दम्भ या मग़रूरियत नज़र नहीं आई। हालांकि मैने सुना था कि जब कभी दीपक की मद्धम रोशनी में कोई आखरी हिचकी लेता बूढ़ा हिस्ट्री, जाग़रफ़ी और राजनीतिक फ्लासफ़ी में मग़रूरियत के साथ बड़बड़ाता दिखाई दे तो समझो वह बूढ़ा आदमी कोई और नहीं, नेमी बाबू ही होंगे।
जाने क्यों नेमी बाबू मेरे बहुत करीब आने की कोशिश करते दिखाई दिये। अगले ही दिन अपनी कुर्सी को मेरे केबिन तक सरका कर वह मेरे करीब आकर बैठ गये। मैंने महसूूस किया कि वह मुझसे कुछ कहना चाहते हैं। मैंने अपना काम रोक कर उनसे पूछा, ‘आप कुछ मुझसे कहना चाहते हैं….विश्वास कर .कह सकते हैं।’
सुनकर नेमी बाबू कुछ आशान्वित से नज़र आये। थोड़ा आगे झुककर बड़े ही राज़दाराना अंदाज़ में बोले, ‘देखने में तुम बुद्धिमान लगते हो। तुम्हारे एडीटोरियल जो प्रकाशित होने वाले हैं, वे मेरी नज़र से गुज़रे हैं। शायद इंटर्व्यु से पहले तुम्हें टेस्ट करने के उद्देश्य से वे एडीटोरियल तुमसे लिखवाये गये होंगे। अच्छा लिखा है। अच्छी और सुलझी हुई सोच रखते हो, लेकिन तुम अपनी इस प्रतिभा का भी क्रेडिट नहीं ले पाओगे। उमूमन ऐसा ही होता है क्योंकि अक्सर मालिक ही सम्पादक हुआ करते हैं और यह उनका पैदाइशी अधिकार है। यह क्रेडिट भी उन्हीं के ही खाते में जाएगा। उन्हें दोनों ओर से लाभ है। वह सम्पादक भी हैं और मैनेजर भी। आजकल तो मित्र सम्पादक भी ‘सम्पादक’ कम और ‘मैनेजर’ अधिक हो चुके हैें। इसलिए मैं कह रहा हूं कि यहां जो तुम सम्पादकीय लिखोगे, उन्हें पढ़ कर पाठक सर्वत्र घोषित-सम्पादक की ही प्रशंसा करेंगे। तुम्हारा कहीं ज़िक्र भी नहीं होगा। यही तो व्यवसायतंत्र का जुग़राफ़िया है।’
एक दिन वह जैसे कुछ सोचने, कुछ सहेजने और कुछ कहने का साहस बटोरने का यत्न करते हुए मेरे पास आकर बैठ गये और थोड़ा आगे मेज़ पर झुक कर बोले, ‘मैंने तुम्हारे बारे में काफ़ी सोच-विचार किया है। मेरे विचार से तुम्हें यहां बहुत समय तक नहीं रहना चाहिए। बेहतर है, तुम जितनी जल्दी संभव हो, यहां से नौकरी छोड़कर चले जाओ। तुम युवा हो! प्रतिभाशाली हो। मंदी का कितना ही असर हो, पत्र-पत्रिकाएं और इल्ैक्ट््रानिक मीडिया का तंत्र बंद नहीं होगा, उसमें संभावनाओं की कभी कमी नहीं रहेगी। तुम अन्यत्र ट््राई करो। यह संस्था तो प्रतिभाओं का कोल्डस्टोरेज है, इसमें हैवी फ्रीज़र हैं। तुम भी एक दिन फ्रीज़ हो जाओगे। जैसे मैं…….ं’
मैंने देखा, वह कुर्सी से पीठ टिका कर अकस्मात कही खो से गये । उस समय ऐसा आभास हुआ मानो इस समय वह जहां हैं, वहां उनके सिवा दूसरा कोई और नहीं है। तब अच्छा यह हुआ कि प्रबंध सम्पादक के चेम्बर से मेरा बुलावा आ गया और मैं उठकर वहां से चला गया। यह मेरे लिए उस समय की राहत भरी ऐसी पुरवाई थी, जिसनेे मुझे गाढ़ी उमस से निकाल कर बेहद ताज़गी का अहसास कराया था। चैम्बर तक पहुंचने के रास्ते मुझे कितनी ही मुस्कुराती नजरों का समना करना पड़ा। शायद हर नज़र मुझसे कुछ न कुछ कहती सी महसूस हो रही थी लेकिन मैं दनदनाता हुआ चैम्बर में दाखिल हो गया।
नेमी बाबू ज़रा भी व्यवहारिक नहीं थे। आफ़िस के लोगों को ज़्यादातर उनसे यही शिकायत थी। मेरे प्रति उनके लगाव और व्यवहार से मुझे ऐसा कतई नहीं लगा कि उनके बारे मे जो लोगों ने धारणा बना रखी है, वह सही है। नेमी बाबू के व्यवहार से कम से कम मुझे तो कोई अभी तक शिकायत नहीं थी। उन्होंने अभी तक मुझे ऐसा अहसास भी नहीं कराया था कि वह मुझ पर एक बोझ की तरह हैं और उनका सामीप्य मेरे काम में व्यवधान पैदा करता है। काम के समय वह इतना डूब जाते थे कि उन्हें खुद के होने का भी अहसास नहीं रहता था। जब मैं काम में डूबता था तो कभी ऐसा भी नहीं हुआ कि उन्होंने मुझे डिस्टर्ब किया हो। ऐसी ही कुछ खूबियां थीं जिनसे प्रभावित हो मैं रफ्ता-रफ्ता उनके करीब आता जा रहा था।
उस दिन कैंटीन में लंच पर नेमी बाबू मेरे ही अनुरोध पर आये थे। मुझे इस ‘अनुरोध’ से कहीं तक खुशी का भी अहसाास हो रहा था कि नेमी बाबू ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर लिया। कहते हैं कि वह आसानी से किसी के निकट नहीं जाते और न ही उन्हें किसी के साथ लंच या डिनर लेना पसंद है। मेरे साथ आज कैंटीन में उन्हें देखकर निश्चय ही लोगों को आश्चर्य हो रहा था लेकिन वह उन सब से बेपरवाह रोटियों पर निगाह गड़ाये नमालूम कौन सी दुनिया में खोये हुए थे। वह चौंके तब, जब मैंने उनसे लंच शुरू करने का आग्रह किया।
लंच के दौरान वह खलने वाली चुप्पी-सी साधे हुए थे। मैंने ही उन्हें टोका, ‘क्या बात है नेमी बाबू, बहुत चुप-चुप से हैं। क्या सोच रहे हैं?’
‘यही कि यह रोटी कितनी बड़ी समस्या का नाम है।’
नेमी बाबू दार्शनिक से हो गये थे। अपनी ही धुन में कहे जा रहे थे, ‘व्यक्ति से रोटी का कितना अटूट रिश्ता होता है। कला भी तो इसी से जन्मी है। अलहुमरा के तिलस्मी महलों की बुनियादें हों या अजंता-एलोरा की गुफाएं, ताजमहल हो या मिस्र के अहराम या पिरामिड, कालीदास की शाकुंतलम हो या मिल्टन की पैराडाइज़ लास्ट…., सबके पीछे जो कला है, वह रोटी की देन है। रोटी का रिश्ता अगर कला से टूट जाए, तो हुस्न बिक जाता है, धर्म अर्थहीन हो जाता है और भूख तमाम वैल्यूज़ का गला घोंट देती हैं….।’
यही वह सोच थी जिसने पहली बार मेरे वजूद को एकाएक झिंझोड़ कर रख दिया था। तब मैं कुछ लम्हों तक उनके चेहरे को अपलक देखता रहा और आश्चर्य भरे विश्वास के साथ खुद को आश्वस्त करता रहा कि नेमी बाबू का चिंतन क़तई सतही नहीं है। तब उस धारणा की भी किरचें बिखर गईं जो अब तक लोगों ने मेरे मस्तिष्क में बनाई हुई थी। नेमी बाबू तो दूसरों से बहुत ऊपर नज़र आ रहे थे। क्या कुछ नहीं कह दिया था उन्होंने।
‘हम-तुम भी तो यहां रोटी के लिए ही अपनी सेवाएं दे रहे हैं।’ नेमी बाबू कह रहे थे, ‘इसी लिए मैंने तुम्हें पहले ही दिन राय दी थी कि यह जगह तुम्हारे लिए नहीं है। यहां के लोगों को खोखली और अयथार्थवादी बहसों, झूठी प्रशंसाओं, थोथे वादों और थोपे गये विचारों पर बहसें करना अच्छा लगता है। ये सब काफ़ी-हाउसों और चाय के ढाबों में फैलते धुंएं की गंध के साथ अच्छी लगती है लेकिन मित्र, धुआं कभी स्थिर नहीं रहता। धुएं को कैद में भी नहींे रखा जा सकता। यही जीवन का चिंतन है जिसे यहां के लोग नहीं समझते और ज़िदगी को काफ़ी हाउस के प्याले का नाम देकर उस पर बहस करते रहते हैं।’ और अचानक जैसे सिलसिले का ट्र्ैक बदल गया, ‘तुम अपना मोबाइल का नम्बर हमें दे दो। कभी ज़रूरत पड़ी तो…..।’
उस दिन मुझे पहली बार महसूस हुआ कि नेमी बाबू से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। नेमी बाबू मुझे एक किताब की तरह दिखाई देने लगे थे जिसमें अनेक अध्याय हो सकते हैं और असीमित पन्ने भी। मैं इस किताब के एक-एक पन्ने को अब पढ़न लेना चाहता था। हर अध्याय का मर्म जान लेना चाहता था। मुझे लग रहा था कि शायद इस पूरी किताब को मैं ही पढ़ने में कामियाब हो सकूंगा। कालांतर में मेरी इस धारणा को बल मिला और मुझे खुशी है कि मैं इस किताब के कई अध्याय पढ़ने में सफल रहा।
नेमी बाबू के बारे में मैंने सुना था कि वह बड़े ही इर्रेगुलर किस्म के मूडी आदमी हैं। आफ़िस में वह कभी समय पर नहीं आते और न ही वह आफ़िस डेकोरम का पालन करते हैं। जब उनका मूड होता है तो वह रात गये तक काम करते रहते हैं, गायब होते हैं तो हफ्तों उनका कोई पता नहीं रहता है। सोने में सुहागा यह कि पब्लिकेशन का मालिक भी उनकी कमज़ारियों का कोई नोटिस नहीं लेता था। यदि मालिक के चेम्बर से उनके लिए बुलावा भी आता था तो कभी इंटरकाम पर नहीं, खास पीएस खुद चल कर उन तक आता और मालिक का संदेश पहुंचाकर लौट जाता। यह सम्मान किसी और को नहीें मिला हुआ था। मेरे लिए निश्चय ही यह एक हैरत की बात थी। मेरी तरह दूसरे लोग भी उनसे जुड़े रहस्यों से अंजान थे। लेकिन इन दिनों उसी आफ़िस के लोग इस बात से हैरान थे कि नेमी बाबू पिछले कुछ दिनों से बड़े ही रेगुलर और डिसिप्लिंड से हो गये हैं, और काफी-काफी समय तक उन्हें लायब्रेरी में देखा जाने लगा है। लोगों का खयाल था कि यह चमत्कार मेरी सोहबत का नतीजा है। उनमें ऐसी तबदीली मेरे कारण ही आई है। ऐसा हो भी सकता है क्योंकि जब से मैं उनके समीप पहुंचा हूं, उनमें मैं कुछ बदलाव सा महसूस करने लगा हूं। मैं तो उनके हर दिन, हर शब और हर सुबह का साक्षी बनना चाहता था। बहुत कुछ उनसे सीखना चाहता था, जानना और समझना चाहता था लेकिन……?
फिर हुआ यह कि अचानक वह दो दिनों से लापता हो गये। किसी को भी नहीं मालूम था कि वह आफ़िस क्यों नहीं आ रहे हैं। मेरा चिंतित होना स्वाभाविक था। उन्हें लेकर मुझे तरह-तरह के विचार परेशान करने लगे। अनेक शकाएं भी सिर उठाने लगीं। मन हुआ कि चल कर पता किया जाये, पर कहां? मुझे तो उनका पता भी नहीं मालूम था। मैं काफ़ी चिंतित हो उठा था कि तभी गजोधर पांडे ने, जो कार्यालय में इज़्ज़तदार सीनियर चपरासी थे और सभी बड़े-छोटे लोग उन्हें ‘सेवा-सम्पादक’ कहकर पुकारते थे, मेरी समस्या का निवारण कर दिया। वह बोलते गये, मैं लिखता गया। कुछ लम्हों बाद मुझे नेमी बाबू की रिहाइशगाह का पता मालूम पड़ चुका था। मेरे लिए आज के दिन की यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
वह दिन शायद रविवार का रहा होगा। मैं जल्दी से तैयार होकर उपलब्ध पते पर तलाशता हुआ नेमी बाबू के एक कमरे वाले रिहाइशगाह पर जा पहुंचा। नेमी बाबू अपने कमरे में ही मिल गये, अलसाई उबासियों के साथ। जमुंहाई लेते हुए बोले, ‘देसी शराब का नशा भी उस बेरोज़गार या बीमार पति की मजबूर बीवी के साथ किये जाने वाले यौनाचार के आनंद जैसा होता है जिसे देकर औरत अपने घर का खर्च चलाती है।’ वह अजीब से ठठाकर हंसते हुए बोले, ‘कल रात मैं भी ऐसे ही कुछ रईसों की पंक्ति में शामिल हो गया था बाबू मोशाय!’
उल्लसित मुद्रा में तहबंद पहन, पांव में स्लीपर डाले नेमी बाबू तत्काल तंग सीढ़ियां उतरते चले गये। इस बीच मेरी निगाहें उनके कमरे का जायज़ा लेने लगी थीं। एक अव्यवस्थित व्यक्तित्व जैसा बिखराव भरा कमरा जिसमें शराब की खाली बोतलें, धूलधूसरित किताबें, अखबार, पत्रिकाएं और बेहद मैला-कुचैला अस्त-व्यस्त सा बिस्तर, कुछ जूठे बर्तन और मकड़ियों के जाले के सिवा वहां ऐसा बहुत कुछ बिखरा हुआ था जिसका विस्तार से ज़िक्र किया जा सकता है लेकिन मेरी निगाह दीवार पर टंगी उस महिला की तस्वीर पर घूम कर अटक जाती है जिसमें एक खास किस्म की मक़नातीसी चमक दैदीप्यमान थी। मेरा अंदाज़ा था कि यह महिला हो न हो नेमि बाबू की माता जी ही होंगीं…., और आगे चलकर नेमि बाबू ने इसकी तस्दीक़ भी कर दी।
‘मां को देख रहे हो बाबू मोशाय!’
चौंक कर देखता हूं, नेमि बाबू दो गिलासों को पकड़े बेहद प्रसन्न दिखाई दे रहे थे।
‘लो, चाय पियो। स्पेशल चाय है। मेरे यहां ऐसी चाय किसी स्पेशल गेस्ट को ही परोसी जाती है। तुम मेरे लिये……’ उनका वाक्य पूरा होने से पहले ही मैंने चाय का गिलास थाम लिया था। चाय का गिलास कार्निस पर रखकर वह अपना तहबंद कसने लगे, फिर उसे समेट कर वह मेरे सामने बैठ गये। अब चाय का गिलास उनके हाथ में था और वह बीड़ी सुलगाने और माचिस तलाशने की जुगत में गर्दन इधर-उधर घुमा रहे थे। माचिस के हाथ आते ही बीड़ी होठों की कोर में जकड़ गई। शोला भड़का, धुंए के ग़ुबार ने नेमि बाबू का चेहरा ढांप लिया। कुछ लम्हों तक गाढ़े धुंए की शील्ड के उस पार नेमि बाबू का चेहरा ढका रहा। कमरे भर में अजीब सी गंध तैर गई थी।
‘कोलकता जा रहा हूं।’ नेमि बाबू की आवाज़ गूंजती है। धुंआ छटने लगता है। गंध गाढ़ी होती जाती है, ‘वहां मेरा एक चित्रकार मित्र है। इन दिनों उसे सपने देखने की लत लग गई है। उसे सपने में पिकासो, फ़िदा हुसैन, नंदलाल बसु और यामिनी राय जैसे बडे़ पेंटर नज़र आने लगे हैं। वह खुद को उनके साथ खड़ा देखने लगा है। कोई बुरी बात भी नहीं है। बुरी बात यह है कि…….।’ वाक्य अधूरा छोड़ नेमि बाबू की बीड़ी फिर होठों की कोर से चिपक जाती है। दूसरे कोर से धुंआ उबलता है, फक…फक….।
मैं अपने मोबाइल पर किसी की काल अटेंड करने लग जाता हूं, ‘हैलो!’
नेमि बाबू से उस दिन बहुत सी बातें हुईं। रात उन्हें मैंने खाने पर भी निमंत्रित किया। शायद मेरा वह निमंत्रण मेरे लिए काफ़ी फ़ायदेमंद साबित होना था। मैं चाहता था कि कोलकता जाने से पहले मैं उनके साथ पूरा समय बिताऊं। आज सुबह उन्होंने एक बार फिर मुझे झिंझोड़ कर रख दिया था। वह अपने कोलकता वाले मित्र से काफ़ी खफ़ा लग रहे थे, ‘ऐसा आर्टिस्ट किस काम का, जो सच्चाई की अनदेखी करता हो। मैं ऐसे कलाकार को मान्यता देने के पक्ष में नहीं हूं जो अपने बच्चों को भूखा रखकर कला, साहित्य और दर्शन की वकालत करता हो।’
नेमि बाबू अपने चिंतन में काफ़ी प्रैक्टिकल नज़र आये। मैं उन्हें तब बड़े ग़ौर से सुनता रहा था, ‘मैंने उसे कई बार समझाया बाबू मोशाय!’ वह मुझे बेहद संजीदगी के साथ बताते रहे थे, ‘बड़े लोगों की अय्याशियों पर मत जाओ, वे मायानगरी के लोग हैं। वहां उसी आर्ट और कल्चर को तुलसी का दरजा मिलता है, जो मायावी हो और जिसमें हर कोई नशे की अंधी गुफ़ा में सुबह तक विलासता की भूलभुलय्यों में भटकता नज़र आये। वह भूखा बंगाली पेंटर अपने बच्चों के पेट भरने का सपना नहीं, खुद एक बड़ा कलाकार बन जाने का सपना देख रहा है। भूखे फ़नकार को रोटी नहीं, शोहरत चाहिए। यह है वह भूख का एक ऐसा विद्रूप चेहरा जिसे आईने में कोई नहीं देखना चाहता, मेरा मित्र भी नहीं।’
तब मैंने उनके चेहरे पर अजीब सी आक्रोश की परछाइयां सी तैरती देखी थीं। बीड़ी बुझती थी, नेमि बाबू उसे सुलगाते थे, फिर वह उसे मसलकर फेंक देते थे। र्बाइं ओर बालकनी के दरवाज़े से अब तक कितने ही बीड़ी के टोटे टकराकर गिर चुके थे। अब तक कितनी बार नीचे से स्पेशल चाय के गिलास नन्हा सर्विस-ब्वाय ऊपर ला चुका था। नेमि बाबू अब तक काफ़ी अव्यवस्थित से लगने लगे थे। बेहद संवेदनशील होने के कारण हो सकता है, उन्हें अपने मित्र से बेहद लगाव रहा हो। असहज और असंयत से नेमि बाबू को संयत होने में समय लगा। तब वह एक सांस में चाय का गिलास खाली कर एक अस्वाभाविक सी हंसी हंस कर रह गये थे। मैं उन लम्हों को बाद में अपनी स्टडी में कम्प्यूटर के नोटपैड पर देर तक तहरीर करता रहा था।
नेमि बाबू एक बार फिर मेरे सामने थे। फिर सुबह का मुद्दा हमारे बीच हायल हो गया था। मित्र का फ़ोबिया शायद नेमि बाबू के मस्तिष्क पर बुरी तरह से अभी तक हावी था, ‘उसकी पत्नी की ज़िंदगी भी मेरी ज़िंदगी की ही तरह निशान छोड़े हुए एक घाव की तरह है। एक मामूली सी भी टक्कर समूचे अस्तित्व को लहूलुहान कर देती है। उसे कुछ होता है तो मैं बेचैन हो जाता हूं, पता नहीं क्यों….?’
वह एक मासूम बच्चे की तरह मुझे सवालिये निशान की तरह देखने लगे थे। मैं शायद समझ नहीें पा रहा था। इस उम्र में नेमि बाबू प्रेम के जाल में तो फंस नहीं सकते, फिर…?
‘मां, अपनी ससुराल में नासूर बनी जीती रहीं। मैं उसी नासूर का निशान हूं।’ नेमि बाबू अत्यंत भावुक हो उठे थे, लेकिन उनका अध्याय खुला हुआ था। आज अचानक आतिरा की उन्हें बहुत याद आ गई थी। आतिरा, यानी नेमि बाबू के मित्र दिवाकरन की पत्नी। मुझे कहानी का यह मोड़ बेहद खूबसूरत सा लगा था। आतिरा, यानी लहरें। संवेदना की ठाठें मारती लहरें। एक हारी सी हताशा की हंसी, ‘दुःख सहने का अभ्यस्त हो चुका हूं। बड़ी सहनशक्ति है मुझमें। आतिरा की ईश्वर में बड़ी आस्था है। उसका कहना है कि यह ईश्वर का वरदान है। मैं सोचता हूं कि अगर यह सच है तो मैं कह सकता हूं कि मनुष्य को ईश्वर सहनशक्ति और भूलने की आदत बिना किसी शर्त के देता होगा। नही ंतो….।’
उस समय हम दोनों पनवाड़ी की दुकान के पास खड़े थे और पड़ोस में एक ढाबे के सामने भिखारियों की भीड़ उछाली जा रही रोटियों पर झपट्टे मार रही थी। भीड़ के किनारों पर गली के कई कुत्ते भी उछाली जा रही रोटियों पर अक्सर झपट पड़ते थे। एक दो बार ऐसा भी हुआ कि एक ही रोटी पर भिखारी और कुत्ते एक साथ झपटे और दोनांे में झगड़ा हो गया। एक कुत्ते ने एक भिखारी को भंभोड़ डाला लकिन स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। नेमि बाबू का चेहरा रफ़ता-रफ़ता विवर्ण होता जा रहा था। मुझे उनकी मनःस्थिति का अंदाज़ा लगने लगा था। ठहरे पानी की सतह की तरह उनके चेहरे के भाव किसी भावी विस्फोट की भविष्यवाणी कर रहे थे। मैंने नेमि बाबू को बड़बड़ाते सुना, ‘प्रगतिशील भारत की छवि, रोटियों का मल्ल-युद्ध, मनुष्य और कुत्ते…..।’ सुनकर मैं हत्प्रभ। आवाज़ पुनः कानों से टकराती है, ‘इन भिखारियों को पता नहीं छीनने का हुनर कब आयेगा…।’
वह रोटी जैसे विषय पर ही रास्ते भर बातें करते रहे, ‘रोटी के लिए मनुष्य अपना आत्म-सम्मान तक बेच देता है बाबू मोशाय, अभी तुम देखकर आ ही रहे हो। कोई खरीदता है, कोई बेचता है। जो बेचता है, उसके पास देश-दुनिया र्की आािर्थक और राजनीतिक व्यवस्था है। जो खरीदता है, वह भोक्ता शक्तिहीन शासित और कमज़ोर वर्ग की नुमाइंदगी करता है। यह वर्ग-संघर्ष का मामला है, तुम शायद इस उम्र में अभी न समझ पाओ, पर एक दिन ज़रूर समझ में आ जायेगा कि देश में भिखारियों की बढ़ती तादाद किस प्रकार की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था की देन है….।’
उस रात के बाद मेरी नेमि बाबू से दो माह तक भेंट नहीं हुई। दफ़्तर में उनके न आने का शायद मेरे सिवा किसी को भी कोई मलाल नहीं था। मैं ज़रूर गर्दन घुमाकर गाहे-ब-गाहे नेमि बाबू की कुर्सी की ओर देख लेता था, जहां सन्नाटा सा पसरा रहता था। उनकी मेज़ पर चपरासी कोई फ़ाइल भी रखने नहीं आता था। पता नहीं क्यों, नेमि बाबू की कमी मुझे कुछ ज़्यादा ही खटकती रहती थी। कई बार मैं उनके कमरे की ओर भी हो आया कि शायद खिड़की से धुंआ निकलता दिख जाये या रात को रोशनी झांकती मिल जाये, लेकिन सब बेसूद। नेमि बाबू तो मानो भूमिगत से हो गये थे, लेकिन एक दिन मैं हर्षोल्लास से उछल सा पड़ा। मेरे मोबाइल पर नेमि बाबू की जानी पहचानी आवाज़ गूंज रही थी, ‘नेमि बोल रहा हूं, कोलकता से…..।’
फ़ोन पर पता चला कि इन दिनों नेमि बाबू अपने मित्र दिवाकरन का परिवार संभालने में व्यस्त हैं। दिवाकरन हस्पताल में दाखिल है। किसी नये रईस के धनाड्य पुत्र की कीमती कार ने उनसे उनकी सड़क पर चलते रहने की आज़ादी छीन ली थी। शरीर के कई हिस्से टूट-फूट गये हैं। बचने की उम्मीद धुंधलाती जा रही है। ऐसे में वह उसके परिवार को कैसे छोड़ सकते हैं। उस घर में उनकी आतिरा भी तो रहती है। आतिरा का नेमि बाबू ने फ़ोन पर कई बार ज़िक्र किया था। मैं नेमि बाबू से आतिरा के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता था लेकिन मेरे शब्द बंधे रहे।
बस! यही उनका एक फ़ोन था। उनकी बातों के दौरान मुझे इस बात का खयाल ही नहीं रहा कि मैं उनसे उनका कान्टैक्ट नम्बर मांग लूं। अब, एक ही उम्मीद थी कि नेमि बाबू ही मुझसे सम्पर्क करें लेकिन, नेमि बाबू तो फिर डुबकी लगा गये थे। कहीं उनका कोई पता ही नहीं था। दफ्तर में तो किसी सूचना की उम्मीद ही नहीं की जा सकती थी। लेकिन उस दिन प्रकाशक प्रमुख ने जो स्थिति मेरे सामने रखी, उससे मेरा चौंकना स्वाभाविक था।
‘देखो अनिदंम्! नेमिशरण के लौट आने की संभावना इस बार कम ही लगती है। मेरे पास जो उपलब्ध सूचनाएं हैं, उनसे लगता है कि वह अब शायद ही लौट कर आएं। इसलिए अब तुम्हें ही उनका काम देखना है। हालांकि तुम इस उम्र में नेमिशरण तो नहीं बन सकते, किन्तु मेरा विश्वास है कि तुम उनका काम संभाल ज़रूर सकते हो। आज से तुम…..।’
मेरे भीतर महीनों से छुपे बहुत से सवाल मानो एकाएक उबल से पड़े। प्रकाशक प्रमुख बड़े ही धैर्य से मुझे सुनते रहे और उनका पेपरवेट मेज़ के शीशे की सतह के इर्द-गिर्द उंगलियों के इशारे पर नाचता रहा। फिर, एकाएक पेपरवेट झनझनाकर थम गया। प्रमुख बताने लगे थे, नेमिशरण उनका क्लासमेट रहा है।
‘पत्रकारिता की क्लासें हम तीनों साथ-साथ अटेंड करते थे।’ मैं टोकता हूं,‘तीसरा कौन….?’ जवाब, ‘आतिरा।’ प्रकाशक-प्रमुख जैसे कहीं अतीत में पहुंच कर वहीं के होकर रह गये थे,‘वह दीनाजपुर की रहने वाली थी। सांवली, सलोनी…किसी दिवाकरन नामर्क आिर्टस्ट से प्रेम करने वाली, हमारी बेस्ट कम्पेनियन। अजीब बात यह कि नेमिशरण को भी उससे गहरा प्रेम हो गया था। लेकिन उसने कभी इसका प्रदर्शन नहीं किया और न ही आतिरा ने यह प्रतीत होने दिया कि उसे नेमि पसंद नहीं है। आतिरा और दिवाकरन की शादी के फेरे मेरे यहां, मेरे घर पर हुए जिसमें नेमि नहीं शामिल हुआ और कहीं गायब हो गया। बहुत सालों बाद प्रकट हुआ तो बेहद फटेहाल में। मेरे पुनः सम्पर्क में आने के बाद उसने बहुत तेज़ी से प्रगति की। वह एक प्रखर, अध्ययनशील और मेधावी छात्र रहा था। वह अब भी बहुत अच्छा लिख रहा था। उसके चिंतन में परिपक्वता झलकती है। काम में जो उसकी पकड़ है, वह अद्भुत है। इसीलिए मैंने उसे तमाम बंधनों से मुक्त रखा और उसकी प्रतिभा का क्षरण नहीं होने दिया, लेकिन यह व्यवस्था की मजबूरी रही है। मगर, अब ऐसा नहीं होगा। आज से उनकी सीट का काम तुम संभालागे…।’
वह दिसम्बर की एक रात थी। किसी को सी-आफ़ कर स्टेशन से मैं अपने घर लौट रहा था। सर्द हवाएं बदन को चुभ रहीं थीं। गर्म कपड़ों से सारा शरीर ढका हुआ था। बाइक चलाने के वास्ते कलाई तक दस्ताने पहने हुए था। कोहरे के गाढ़ेपन ने रास्ते ढक लिए थे। बहुत आहिस्ता-आहिस्ता बाइक चलाते हुए मैं चौराहे को पार कर पान वाले की दुकान पर रुका ही था कि अचानक अपने बहुत पास नेमि बाबू को देख कर चौंक उठा। वह बीड़ी का बंडल-माचिस लेने के लिए वहां आये हुए थे लेकिन उनका बदन झूल सा रहा था मानों वह नशे में हों। मेरे सम्बोधन से वह भी चौंके और हंस पड़े,‘बाबू मोशाय! इतनी सर्दी में….?’
और, उस रात! हम दोनों बेमक़सद सड़कों पर भटकते रहे। वह हर दस मिनट में शराब का एक घूंट गले के नीचे उतार लेते थे। उन्होंने मुझे भी पिला रखी थी। नशे की लहरों पर तैरता हुआ मैं अजानी सरहदों की तरफ़ बढ़ा जा रहा था और हम लोग पुराने शहर के उस इलाके में दाखिल हो गये थे जहां कुछ दिन पहले तक अम्नो-अमान नहीं था। साम्प्रदायिक दंगे ने पुराने शहर के सुकून को छीन लिया था। एक तरह का सन्नाटा था चारों तरफ़। नेमि बाबू चुप नहीं रहे,‘जब दंगे होते हैं तो आदमी की पहचान छिन जाती हैं बाबू मोशाय! गरीबों और मज़दूरों के घरों पर आग और रईसों के मकानों पर हथियारबंद पुलिस पहरे देती है।’ गली के दो कुत्ते परस्पर भिड़ते हुए हमारी टांगों से टकराकर दूसरी ओर छिटक जाते हैं लेकिन हलवाई की भट्टीके नीचे रिंग बना कुत्ता गुनगनी राख में निश्चिंत सोता रहा। नेमि बाबू उसे अपलक देखने लगे। फिर एकाएक हंसकर बड़बड़ाये, ‘अतीत्! यही था मेरा अतीत।’
लगा, जैसे पथरीले कगारों से समुद्र की ठाठें मारती लहरें टकराकर लौट गई हों। ठीहे से टिककर नेमि बाबू थोड़ा आगे झुक से जाते हैं, फिर दोनों घुटनों के बल बैठकर वह हांफने लगते हैं।
‘सौंतेली मां के आतंक से भयभीत होकर घर से भागा तो बदन पर एक कमीज़ और नेकर के सिवा कुछ भी न था।’ गाढ़े सन्नाटे को चीरती हुई नेमी बाबू की आवाज़ ने मुझे बेचैन सा कर दिया था। वह अतीत के पन्ने पलट रहे थे और मैं उन्हें पढ़ने में तल्लीन था, ‘ऐसी ही जाड़े की रात और अजनबी शहर का सन्नाटा। पनाह लेने के लिए तब मैं एक ऐसी ही ठंडी होती हुई भट्टी के पास पहुंचा। वहां गुनगुनी राख पर सर्दी से बचने के लिए एक कुत्ता गहरी नींद में डूबा हुआ था। उसके साथ मेरी भिडं़त ज़रूरी हो गई थी। यह अस्तित्व की सुरक्षा का मामला था। मैंने पीटकर उसे भगा दिया और उसकी जगह मैंने ले ली। आज सोचता हूं, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था, लेकिन मुझे उस स्ट््रीट-डाग पर गुस्सा भी आता है कि उसने तब मुझे काटकर भगा क्यों नहीं दिया।’
‘वह ऐसा धृष्ट कैसे हो सकता था गुरुवर!’ मैं भी तरंग में उछालें मारने लगा था,‘आप खुद को कभी पहचान ही नहीं पाये। आप तो…..आप तो ठाठें मारता हुआ एक समंदर हैं, तूफान हैं। एक ऐसा समंदर हैं जिसके गर्भ में मूंगे-मोती हैं, शैवाल हैं, एक भरी-पुरी दुनिया है और तूफ़ानों के चक्रवात भी। क्या नहीं है आप में……।
पता नहीं मैं कब तक और क्या-क्या उलाबे-कुलाबे मारता रहा। मुझे पता ही नहीं चला कि नेमि बाबू को वहां से गये हुए काफ़ी देर हो चुकी है। पागलों की तरह नशे में न जाने कब तक मैं बड़बड़ाता रहा और कब मेरी आंख लग गई। लेकिन जब आंख खुली तो मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन सरक गई। न वहां मेरी बाइक थी, न नेमि बाबू। वहां तो कुछ असमाजिक तत्वो को पकड़ का लाया गया था जिनमें एक मैं भी था। मैं भी तो लाकअप में हूं। रात पुलिस मुझे भी पकड़ कर ले आई थी। पकड़े गये लोगों में नेमि बाबू नहीं थे।
नेमि बाबू के बारे में तो मुझे आज भी कुछ ज़्यादा मालूमात नहीं है। यदि आप को उनके बारे में कुछ पता चले तो कृपया मुझे अवश्य सूचना दीजियेगा। मुझे अभी उनसे कुछ और महत्वपूर्ण जानकारियां हासिल करनी हैं।
रंजन ज़ैदी
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