सविता चड्ढा का संक्षिप्त परिचय
28 अगस्त, 1953 को पानीपत में जन्मी4 श्रीमती सविता चड्ढा ने उच्च शिक्षा प्राप्त की है । एम. ए. हिंदी, एम.ए. अंग्रेजी के अलावा आपने पत्रकारिता, विज्ञापन और जनसंपक में डिप्लोचमा किया है । दो वर्षीय कमर्शियल प्रैक्टिस डिप्लो मा(16 विषयों में) आपने प्रथम श्रेणी में विशेष योग्यता के साथ पास किया है ।
अब तक आपके 10 कहानी संग्रह, 2 बाल कहानी संग्रह, 6 काव्यप संग्रह, 6 लेख संग्रह, 2 उपन्याआस, 10 पत्रकारिता विषयक पुस्त कें प्रकाशित हो चुकी हैं ।
आपकी 3 कहानियों (बू, हमारी बेटी और विडंबना)पर टेलीफिल्मह निर्माण हो चुका है और दिल्ली के मंडी हाउस में स्थित श्रीराम सेंटर के अलावा कई मंचों पर आपकी कहानियों का नाटक मंचन हो चुका है । लगभग सभी कहानियां आकाशवाणी पर प्रसारित है और हिंदी के अलावा पंजाबी में भी प्रसारित हो चुकी है । आपकी पहली कहानी 1982 में आकाशवाणी से प्रसारित हुई थी।
आपकी पत्रकारिता की तीन पुस्तककें (नई पत्रकारिता और समाचार लेखन, हिंदी पत्रकारिता सिद्धांत और स्व रूप, हिंदी पत्रकारिता, दूरदर्शन और फिल्मेंद)दिल्लीह पंजाब और पत्रकारिता विश्वाविद्धयालयों के पाठयक्रम में सहायक ग्रंथ के रूप में संस्तुरत हैं । देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं (सरिता, मुक्ता, गृहशोभा, नन्दन, कादंबिनी, आजकल आदि ) में आपकी कहानियां, लेख प्रकाशित होते रहे हैं।
साहित्यिक यात्राएं – लंदन, न्यु जर्सी, पैरिस, नेपाल, यू.एस.ए., दुबई , हाँग काँग के अलावा देश के विभिन्न क्षेत्रों में महत्व पूर्ण साहित्यिक अनुष्ठा,नों में सहभागिता और आलेख/पर्चे प्रस्तुेत किये है।
1987 में हिंदी अकादमी दिल्लीु से आपको साहित्यिक कृति सम्मान, मैसूर हिंदी प्रचार प्ररिषद से हिंदी सेवा सम्माहन, आथर्स गिल्डा आफ इंडिया से साहित्यिक सम्मा्न, महादेवी वर्मा सम्मापन, कलम का सिपाही, आराधकश्री, साहित्य्श्री, शिखर सम्मान और वुमैन केसरी के अलावा देश की प्रतिष्ठित कई संस्थााओं से 40 से अधिक सम्मा न प्राप्त् है ।संपर्क: 899, रानी बाग, दिल्ली-110034 मोबाइल- 9313301370 , ईमेल-savitawriter@gmail.com
जैसे ही वह रेल के डिब्बे में आई, मेरी नज़रें उसके चेहरे को देखते ही पहचान गई । अरे यह तो रोशन की पत्नी है । हालांकि वह बहुत दुर्बल और कांति विहीन दिख रही थी । मैने सोचा अभी कोई और भी इसके साथ आएगा पर वह अकेली ही सामने वाली सीट पर बैठ गई । हाथ में पकड़ा हुआ सूटकेस उसने बर्थ के नीचे खिसका दिया । पता नहीं उसने मुझे अब तक क्यों नहीं देखा । वह खिड़की से बाहर देख रही है । गाड़ी से बाहर हमेशा की तरह स्टेशन पर बहुत भीड़ है । मुझे लगा कि वह रोशन का इंतजार कर रही है । मैनें अपने सिर के पल्लू को थोड़ा माथे पर सरका लिया । मैं नहीं चाहती थी कि रोशन डिब्बे में आ जाएं और मुझे पहचाने । रोशन को देखने की इच्छा तो थी पर मैं अपनी सूरत उसे दिखाना नहीं चाहती थी ।
डिब्बे में अब काफी लोग आ गए । मैं हरिद्धार जा रही हूँ । एक महीने के लिए ‘ स्वर्ग आश्रम ‘ में आराम करना चाहती हूँ सो अपना घर अपने बड़ों के सुपुर्द कर मैं अकेली हरिद्धार जा रही हूँ । पचास वर्ष की आयु में शायद पहली बार ही बिलकुल अकेली घर से निकली हॅू। पिछले तीस वर्षो में एक दिन भी नहीं, मन इन वर्षो में कितना परेशान रहा पर यही सोचा कि कौन स्त्री परेशान नहीं रहती । मृत्यु का ग्रास बनने से पूर्व अकेले ही हरिद्धार जाने की इच्छा थी । आज उसे पूरा होते देख मन को बहुत तसल्ली है परंतु यह रोशन की पत्नी न जाने कहां से आ गई ।
मैं सोचने लगती हॅूं । रेल यात्राएं बहुत की है मैने जब मैं बारह बरस की थी तब अपनी नानी के साथ कई बार और फिर शादी के बाद अपने बच्चों और पति के साथ । उस समय तो अच्छा लगता था, पति है, बच्चें हैं, इन सबके साथ घूमना एक आनंद का एहसास बना रहता था । मुझे याद है उस आनंद के दौरान भी अकेले चुपचाप एकांत में चले जाने की ललक बनी रहती थी लेकिन कभी भी अकेली न रह सकी । इस बार भी अपने पति को घर छोड़कर बहुत मुश्किल से निकली हूँ । उनको समझा दिया है, अब इस उम्र में कहीं अकेले जाने आने में कोई खतरा नहीं है । मेरे समझाने के बावजूद वह मान ही नहीं रहे थे, आते समय मुझे कह दिया कि ”दो दिन के बाद मैं भी आ जाऊगां ” स्वर्ग आश्रम” में । मैंने तो साफ कह दिया, ” दो दिन बाद नहीं, कम से कम मुझे 10 दिन तो अकेले रहने दो ।” वह हैरानी से बोले, ” दस दिन । ”
” इतने वर्षो में लगभग तीस वर्ष बाद, क्या मुझे दस दिन की छुट्टी भी नही । ” मैने नाराज़गी से पूछा तो कहते है, ” जाओ भई, रहो अकेले । ” मेरा मन किया कह दूं जो मुझे कहना है पर चुप रही । जवाब देती तो आ नहीं पाती । अकेले घूमने की तीव्र इच्छा को मैं किसी भी कीमत पर और दबा नही सकती थी ।
अपने विचारों में ऐसी खोई कि पता भी नहीं चला कि कब गाड़ी चल पड़ी। मैंने रोशन की पत्नी का नाम याद करने की नाकाम कोशिश की, बहुत सिर खपाने पर भी मुझे उसका नाम याद नहीं आया । मैंने देखा वह आलथी पालथी मारे चुपचाप बैठी है । मुझे लगा, वह भी अकेली ही जा रही है उसके चेहरे की पीड़ा को देख मैं उससे बात करने का साहस न जुटा सकी । उसे देख मुझे रोशन की याद आने लगी । आज हंसी आ रही है अपने मन पर, अब उसकी याद आ रही है जबकि पता नहीं वह अब कहां होगा । मुझे याद है कि रोशन की दो बहुत सुंदर बच्चियां थी । पर पता नही क्यों रोशन का मन अपनी पत्नी की ओर से खिचने लगा था । मैंने महसूस किया वह मेरी ओर आकर्षित हो रहा है । मन ने धिक्कारा, ” क्या सोचती, उसकी इतनी अच्छी, सुंदर पत्नी है, फिर तुझमें ऐसा क्या है ? ” मैं उस समय मन की बात मान गई । बाद में मैंने महसूस किया कि वह मुझे अधिक महत्व देने लगा है । वह बड़े संस्थान में जनरल मैनेजर था और मैं सिर्फ एक सहायक । मैने महसूस किया था कि मैं जब भी उसके कमरे में जाती वह अपनी सीट से खड़ा हो जाता, उठकर मेरा अभिवादन करता । मुझे उसका व्यवहार बहुत अच्छा लगता पर मुझे शर्म भी आती कहां वो, कहां मैं ।उसके कमरे में मुझे ही कहना पड़ता ” बैठिए सर ” तब जाकर वह बैठता और मुझे तो वो बैठने के लिए कहना ही भूल जाता । रोशन के बैठने के बाद मैं खुद ही कुर्सी सरका कर बैठ जाती ।
उस दिन आफिस में रोशन ने पार्टी दी थी , मैं भी उसमें शामिल थी सब उसके पीछे पड़े थे ” बताइए न सर, आज की पार्टी क्यों दी ? वह चुप रहा । मैंने भी पूछा, ” कुछ कारण तो होगा ना सर, आप बताइए ताकि हम आपको बधाई दे सके । ” वह हमेशा की तरह अपनी बड़ी बड़ी आंखों में खामोशी लिए बैठा रहा । मुझे लगा इससे अवश्य पूछना चाहिए । उस दिन कुछ समय के बाद किसी काम से जब मैं रोशन के कमरे में गई तो वह फोन करते हुए खिड़की से बाहर देख रहा था । मेरे अंदर आते ही वह मुस्कराया, उसकी आंखें भी मुस्कराई, फोन रखने के बाद वह सीट पर खडा हो गया और कह उठा ” जन्मदिन मुबारक हो । ” मैं हैरान हो गई थी । सर, आपको कैसे पता । वह खुलकर हंसा, ” कल तुम्हारी पर्सनल फाइल आई थी जन्म दिन पास ही था, सोचा बधाई तो दे दूं। ‘’
मैं थैंक्स भी न कह सकी । मैंने पूछा, था ’’सर आज की पार्टी । ‘’
” छोड़ो न ” वह मेरी ओर पीठ करके खड़ा हो गया । मैं कमरे से बाहर आ गई । पता नहीं कुछ पूछने की हिम्मत क्यों नही हुई थी ? मैं जैसे ही कमरे से बाहर आई रोशन ने मुझे पुकारा था…” रजनी जी एक मिनट ” मैं पुन: उसके कमरे में थी । उसने उस दिन मेरा माथा चूमकर मुझे कहा था, ”बहुत बरस जीओं और मेरे पास ही रहो ।” मैं जड़ हो गयी थी । उसी ने कहा था, ” अब तुम जा सकती हो।‘’ बोझिल कदमों से मैं बाहर आ गयी थी ।
घर पहुंच कर देखा मेरे पति अपने दोस्तों के साथ बतिया रहे थे, सास बुरी तरह खांस रही थी । मैं जल्दी से रसोईघर में गई और उन्हें पानी पिलाया । पानी पीकर वह पुन: खांसने लगी । घर का वातावरण ऐसा था कि कभी रोशन के बारे में कुछ सोच ही न पाई । समय ही नहीं रहता था अपने लिए । बाद में तो मुझे अपने दोनों बेटों के लिए सारा समय देना पड़ता । चक्की की तरह घूमती रहती थी मैं अपने घर में, फिर भी कहीं न कहीं कुछ छूट ही जाता ।
रोशन बहुत आकर्षित करने वाले व्यक्ति, उनका पूरा व्यक्तित्व ही मुझ पर हावी हो गया था । फिर एक समय ऐसा भी आया जब मैं भी उसके बारे में सोचने लगी । समय – असमय, खाना पकाते कई बार हाथ जलाए और कपड़े धोते हुए अपने ही हाथ पर थापी मार देती, दर्द में, सुख में रोशन मेरे दिमाग में रहने लगे । काम के साथ और बिना काम के उसके कमरे में सोचने लगी । उससे सुख दुख की बातें करना मेरे लिए आवश्यक नियम सा बन गया ।
रोशन और मैंने सात वर्ष इकटठे काम किया । मानसिक हम एक दूसरे के साथ जुड़ गए थे । शारीरिक संपर्क की हमें जरुरत ही नहीं पड़ी थी उसके पास पत्नी थी और मेरे पास पति । मुझे एक खबर ने उस दिन बुरी तरह चौंका दिया था कि रोशन की बदली दिल्ली से बाहर हो रही है । उस दिन मैं बहुत रोई थी । पता नहीं क्यों लग रहा था कि मैं उसके बिना जी नहीं पाउंगी । जाने से पहले रोशन ने कहा था ” मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं …अपनी पत्नी से भी ज्यादा । अगर तुम कहो तो मैं उसे तलाक दे सकता हूं।” उसने यह बात बहुत अटक अटक कर कही थी। मैने तो साफ मना कर दिया था, ” सम्मान से बिल्कुल हाथ धो बैठोगे.. हम ऐसा कैसे सोच सकते हैं ।”
”पता नहीं कैसे सोच लिया पर जो सोच लिया है बहुत विचार के बाद और बहुत रातों की नींद गंवाकर और दिन के चैन से हाथ धोकर ही तुमसे कहा है ।”
‘’ मैं भी उससे बहुत प्यार करती थी पर कभी कह नहीं पाई। उस आखिरी दिन भी मुझपर हमेशा की तरह अच्छी स्त्री हावी रही थी, मन चिल्लाता रहा था, आंखें भीतर ही भीतर बरसती रही लेकिन मैने झूठ का सहारा नहीं छोड़ा , मैने उसे कह दिया ” मैं तुमसे ज्यादा अपने पति को प्यार करती हूं, अपने बच्चों और अपने परिवार के प्रति मैं कभी मुंह नहीं मोडूगी ” और तो और मैने उसे भी नसीहत दे दी थी ” तुम्हे भी अपनी पत्नी और बच्चों का साथ देना चाहिए । हमें कोई हक नहीं बनता हम अपने चंचल मन के हाथों मजबूर होकर अपने परिवारों को जीते जी नरक की ज्वाला में जलने के लिए हमेशा के लिए झौंक दे ।”
आज हंसी आ रही है अपने कथन पर । वह उस दिन चला गया । मैं अकेले आफिस में काम नहीं कर सकती थी । लगता था, एक लाश हवा की तलाश में और भटक नहीं सकती । मैने भी नौकरी छोड़ दी । उसके बाद कभी रोशन से मुलाकात नहीं हुई ।
समय कैसे गुजर जाता है पता ही नही चला पर एक बात का संतोष मन में बना रहा कि मैनें कुछ गलत नही किया । मैं जानती हूं प्रेम तो अनजाने में हो जाता है पर शादी, तलाक या शारीरिक संबंध तो पूरे होशो – हवास में किए जाते है और ऐसा करने के लिए मैने अपने मन को उस समय अनुमति नहीं दी । मैंने रोशन का घर खराब नहीं किया बस इसी संतुष्टि के आधार पर सारा जीवन बीत गया । रोशन की पत्नी को सिर्फ एक बार ही पार्टी में देखा था, हालांकि अब उसकी सूरत काफी बदल गई है पर मैं जानती हॅू यह वही है ।
गाड़ी अब भी चल रही है , मैंने देखा वह गठरी बनी सो रही है । मैंने समय देखा सुबह के पांच बज गए थे मैंने मन ही मन सोचा गाडी साढे छ: बजे हरिद्धार पहुंचेगी । मैंने रात को ही थर्मस में चाय भरवा ली थी । हाथ मुंह धोने के बाद मैंने गिलास में चाय डालकर पीना शुरु ही किया था कि वह हिली । न चाहते हुए भी मैं कह उठी, बहनजी दिन निकल आया है । वह उठकर बैठ गई जब वह मुंह हाथ धोकर लौटी तो मैंने उसकी ओर चाय का गिलास बढाया । वह बोली आप पीजिए, मैं …. । मैंने उसे बीच में ही टोक दिया, ” ले लो बहन मैंने तो पी ली है । ” वह चुपचाप चाय पीने लगी । मैंने कहा , ” आपको कहीं देखा हुआ लगता है । ”
वह इस बार नजरें उठाकर मेरी ओर देखती है । मैं कुछ सोचने का अभिनय करती हॅू । वह मुझसे ही पूछ बैठती है, ” आपने मुझे नहीं पहचाना पर मैनें आपको पहचान लिया है ।” मानो मैं रंगे हाथों पकडी गई । उसने चाय खत्म कर गिलास धो दिया । मैं उसे देखती रही वह कुछ पूछे, मुझसे बात करें पर वह कुछ नही बोली । मैं और वह चुप रही । जब उसने मुझे कहा था कि उसने मुझे पहचान लिया है तब उसकी आवाज थोड़ी भर्राई थी और बात खत्म करने पर उसने एक लम्बी सांस ली थी ।
गाड़ी में कुछ लोग अभी सोए हुए थे, कुछ अलसाए से बैठे थे। पर मेरा ध्यान तो उसी पर था । वह अचानक मुझसे पूछती है, ” आप कहां जा रही हो ? ”
” मैं हरिद्धार जा रही हूं । ” मैंने धीरे से कहा ।
” अकेले ही ? ” उसने प्रश्न किया ।
” आप भी तो अकेले ही …. ?” मैनें भी डरते- डरते पूछा ।
” मेरा तो अकेले ही जाना जरुरी था … । ” वह लम्बी सांस लेती हुई बोली ।
” क्यों … ? ” मैं रोशन के बारे में जानना चाहती थी । मैं पचास साल की बुढिया इस समय रोशन कैसे दिखते होगें । मुझसे तो पन्द्रह बीस बरस बडे ही थे । मैं मन ही मन उसकी सूचना पाने को उतावली हो जाती हॅूं ।
उसने बात टालनी चाही । वह फिर पूछती है, ” आप अकेले क्यों जा रही हो ? ” मैं हंस कर जवाब देती हॅूं, ” यूं ही सारे जीवन में एकांत सुख नही भोगा, बस उसी सुख की तलाश में, सोचा कुछ दिन आखिरी समय हरिद्धार में अकेले बिताऊं तो मन को शांति मिले । ”
मैंने अपनी बात कह मन हल्का किया । वह लंबी सांस लेती है, मुझे लगा उसका मन बहुत दुखी है वरना हर बात पर ऐसे आह भरकर बात करना तो किसी भी हाल में संभव नही है । मैं उसके चेहरे की ओर देखने लगती हॅू, वह कहती है, ” मरने के बाद कोई हमारे फूल हरिद्धार ले जाए उससे तो अच्छा है खुद ही हो आया जाए । ” वह अब मेरे चेहरे पर नजर गड़ा देती है । मुझसे रहा नहीं जाता, मैं पूछ ही बैठती हॅू, ” रोशन जी कैसे है ? ” वह चुप रहती है । उसका चेहरा देखकर मुझे लगा कि इस प्रश्न के पूछे जाने की उम्मीद बहुत पहले से थी । वह बाहर देखने लगती है । कुछ पल चुप्पी के बाद मैं पुन: पूछती हॅू, ” बताइए न , मैंने कुछ पूछा है । ” वह कहती है, ” मेरे साथ ही है । ”
” कहां …. ? ” मारे खुशी के मेरी आवाज में शोखी आ जाती है । वह चुपचाप मेरा चेहरा ऐसी देखती है मानों कुछ पढ़ रही हो । मैं अपनी उत्सुकता को रोक नही पाती, ” इसी गाड़ी से जा रहे है वो भी ? ” वह हां की मुद्रा में गर्दन हिलाती है । मैं मन ही मन खुश हो जाती हॅू, चलो आज कितने वर्ष बाद उन्हें देखूँगी, कैसे दिखते होंगे ? हरिद्धार आने में आधा घंटा रह गया है । मैं जल्दी जल्दी सामान समेट कर बैठ जाती हॅू । गाड़ी से उतरते ही रोशन यहां आएगें …. सुखद अनुभव । वह चुप है । मैं उससे और बातें करना चाहती थी …. रोशन के बारे में …… इतने वर्ष में क्या वह मुझे याद करते थे । कुछ भी पूछ नही पाती । गाड़ी के रुकने की प्रतीक्षा कर रही हॅू । चुप्पी तोड़ने का साहस अब संभव नही ।
गाड़ी रुकती है, वह एक टोकरी और छोटा सा सूटकेस उठाए धीरे- धीरे उतर जाती है, पीछे- पीछे मैं भी । गाड़ी से उतर कर वह कहती है, ”रोशन से मिलने की इच्छा है ? ”
मैं सकपका जाती हँ । वह कहती है, ” तुम्हें कुछ विशेष काम न हो तो मेरे साथ चलो । ” मैं हामी भर देती हॅूं । हम दोनों हर की पौड़ी पर हैं । वहाँ वह कोई पण्डित तलाशती है और मेरा रुदन फूट पड़ता है उसके कथन से, ” अपने पति के फूल प्रवाहने है मुझे …. ” मैं रोते जा रही हॅूं, वह मुझे चुप नहीं कराती । उसकी आंखें भी नम है । बहुत रो लेने के बाद मैं अपने आप चुप हो जाती हॅूं । वह निपटा कर मेरे पास आ बैठती है । इस बार में खुद को रोक नहीं पाती और उसके गले लग कर रोने लगती हॅू । वह धीरे- धीरे अपना हाथ मेरे सफेद बालों पर फेरते हुए कहती है, ” भगवान को जो मंजूर था सो हो गया, अब रोशन नहीं रहे । ”
वह मेरे साथ – साथ चल रही है। ” अब यह भी संयोग ही है कि तुम भी मुझे इसी डिब्बे में मिल गई । अच्छा ही हुआ । ” वह चुप हो जाती है ।
हर की पौड़ी के दूसरी ओर पीछे पहुंचे तो वहाँ सिर मुण्डी कई महिलाओं को देखा .. जिन्दा लाशें …. उनसे बातचीत की तो पाया उन्हें यहां रहकर भी एक पल की शांति नही । हालांकि अपने परिवार से ये दूर है, कोई जिम्मेदारी नहीं लेकिन फिर भी कई बातें थी जो उन्हें एक पल भी शांत नहीं रहने देती । वहाँ भी ग्रुप थे, उन्हीं का समाज था, निन्दा थी, बुराई थी ….. राजनीति भी, जहाँ लोग होगें वहां आवाज़ें तो होगी ही ।
शाम को ‘ स्वर्ग आश्रम ‘ में पहुंच गई थी वहां टहलते हुए मैं उससे कहती हॅू, ” दीदी ….. तुम्हें कभी मुझ पर गुस्सा नहीं आया? ” वह अजीब सी मुस्कुराहट से कहती है, ” जब डिब्बे में तुम्हें देखा था तो एक पल क्रोध आया था … फिर सारी रात सोचती रही कि अगर तुम उनके साथ शादी कर लेती तो मेरा क्या होता । मुझे लगा कि सिर्फ तुम्हारे ही कारण मैं रोशन का साथ पा सकी । थोड़ा रुककर वह फिर कह उठी ” वह अक्सर तुम्हें याद करते और कहते ” कहती है अपने पति को ज्यादा प्यार करती हूँ … बच्चों को ज्यादा प्यार करती हूँ …. धोखेबाज । वह तुम्हें बहुत गालियां देते और याद करते । कोई भी रात ऐसी नहीं थी जब रोशन ने तुम्हें याद न किया हो …. भले ही गाली देकर । ” वह फिर कहीं खो जाती है ।
मैंने पूछा, ” दीदी, तुम्हारे और लोग … मेरा मतलब तुम्हारी बेटियां, वह सब कहां है ? ”
” दोनों बेटियों की शादी तो रोशन ने अमेरिका में रहने वाले अपने दोस्त बजाज के दोनों बेटों के साथ कर दी । वे दोनों खुश वहां है, कभी- कभार चिट्ठी आ जाती है । तुम तो जानती हो, रोशन एक ही बेटे थे अपने मां – बाप के । बड़े लाडले थे, जो भी कहते उन्हें मिल जाता । सिर्फ एक ही चीज उन्हें नही मिली । ” वह मेरे चेहरे पर नजर गड़ाकर सिसकने लगती है ।
मैं उदास हो जाती हूं । मैं उसे कैसे बताऊं कि बंधन में मुक्ति की कसक और स्त्री के सफर का लक्ष्य बहुत अर्थपूर्ण है । मुक्ति के मायने निर्वस्त्र हो जाना तो नहीं । पर मैं उसे कुछ नहीं कहती , आज ये सब कोई मायने नहीं रखता । मन की व्याकुलता बरकरार रहीं ।
सोचा था ‘ स्वर्ग आश्रम ‘ में एकांतवास करुंगी पर अब तो एक पल भी आराम नही । सोचती हॅू, कल ही लौट जाऊँ, अपने घर । जीते जी शांति और एकांतवास के सुखद अनुभव की कल्पना भी व्यर्थ है । दीदी को बुलाती हॅूं , ” मैं लौट जाऊँ … । ” वह मुझे देखकर कहती है, ” मैं तो तेरे लिए ही यहाँ रुकी हॅू वरना मुझे क्या करना है यहाँ । मेरे लिए तो सब जगह एकांतवास ही है । ”
मैं और दीदी दोनों उसी गाड़ी से चार दिन बाद ही लौट रहे है । दीदी मुझे कहती है, मेरे घर चलो, इकट्ठे रहेगें । मैं उसे कह रही हॅू, मेरे घर चलो । हम दोनों ने गाड़ी छोडने से पहले यह तय कर लिया कि कुछ दिन दीदी मेरे साथ रहेंगी और कुछ दिन मैं उनके घर । दीदी की एक बात मैं टाल न सकी । एक रात के लिए वह मुझे पहले अपने घर ले गई, बहुत बड़ा घर …. एकांत से भरा , जहां हर जगह रोशन की हल्की- हल्की महक भी थी और उदासी भी । मैं हैरान हो पूछ बैठती हूं ….” आप अकेली, घर में और कोइ और नहीं, ” वह भर्राई आवाज में कहती है,
” रोशन को टी0 बी0 हो गयी थी ….. वह इलाज से दूर भागते रहे । जो थोडे- बहुत अपने थे, वह भी साथ छोड़ गए ….. जब कभी सहारों की आवश्यकता महसूस होती है, ऐसे समय कोई सहारा क्यों नही मिलता ?” वह मुझसे प्रश्न करती है ।
” मैं जो हॅूं आपके पास, ” मैं उसे व्यहर्थ का दिलासा देती हॅू ।
” रिश्तेदार तो संस्कार के बाद ही चले गए थे । मैंने किसी को रोका भी नही । ” वह मुझे बताती है ।
” किसी को तो रोक लेतीं …. कुछ दिन के लिए ” मैं सुझाव देती हूं। वह एक दीर्घ आह भरते हुए कहती है, मुझे भी टी0 बी0 है … सब जानते भी है । ऐसे में कौन रहेगा यहां, जो रहता वह अलग खाना बनाता, …. मुझसे दूर-दूर भागता … अपने घर से बिस्तर लेकर आता मानों बीमार लोगों का मन ही नहीं होता फिर अपने ही घर में मैं अजनबी क्यों बनी रहती । ” वह कुछ पल चुप होकर शेष बात पूरी करती है ।
मैं सोचती हॅूं अकेले रहते हुए भी एकांत नहीं मिलता, मन की उथल – पुथल बनी रहती है । सोचती थी रोशन के घर ही एकांतवास की इच्छा पूरी कर लूंगी, पर आप देखिए, कहीं भी शांति नही । एक बात मन में तय कर रोशन के घर से वापिस अपने घर लौट रही हूं कि मैं रोशन की पत्नी से किया गया वायदा पूरा करुंगी । हालांकि उसने मुझे अपने घर आने से मना कर दिया है ….. रोग जो हुआ उसे ।
मैंने तो उसको बहुत कहा मेरे घर आ जाये कुछ दिन के लिए, मैंने तो उसे कहा मेरे घर चलो कुछ दिन पर वह राजी नहीं हुयी । मैंने ही तय कर लिया है कि मैं ही कभी- कभार उन्हें जरुर मिलने जाया करुँगी ।
लेकिन हाँ, एकांतवास की इच्छा का भी त्याग कर दिया है …. आज ही इसी समय …. जब तक जीना है संघर्ष … दुख और परेशानियां है, ऐसे में फिर से एकांतवास की तलाश, न बाबा न ।
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