लघुकथा— मौज बनाम अधिकार
पत्नी ने भूख हड़ताल कर दी. तब पति को उस की बात मान कर नौकर के घर दलित बस्ती में जाना पड़ा,” रामू ! तूझे घर चलना पड़ेगा. तू ऐसे नौकरी नहीं छोड़ सकता है ?”
रामू ने हाथ जोड़ कर कहा, ” नहीं साहब ! मैं आप के यहां नौकरी नहीं कर पाऊंगा ?”
” क्यों भाई ? किसी ने कुछ कहा है ?”
” नहीं साहब?” रामू ने हाथ जोड़ कर कहा, ” सभी भले लोग है. मेरा अच्छे से ख्याला रखते हैं.”
” फिर, तनख्वाह कम पड़ रही हो तो बढ़ा देता हूं.”
” जी नहीं साहबजी, ” रामू बोला, ” ऐसी बात नहीं है. मुझे बहुत पैसे मिलते हैं.”
” अरे ! तब क्या दिक्क्त है ” साहब ने कहा.
मगर, वह नहीं माना. साहब भी कब मानने वाले थे. उस से हर चीज पूछी. मगर, रामू को खाने, पीने से ले कर आनेजाने तक की कोई परेशानी नहीं थी.
” आखिर बात क्या है ?” साहब ने परेशान हो कर पूछा,” कुछ तो बता दें ।”
यह सुन कर रामू की आंख में आंसू आ गए, ” साहबजी ! मैं मजबूर हूं. मौज के लिए आप का और मेरी पत्नी का हक नहीं मार सकता हूं.” उस ने नीचे गरदन किए हुए धीरे से जवाब दिया.
” क्या !” साहब चौंकते हुए बोले और फिर चुपचाप कार में बैठ कर अपने घर चल दिए.
—————————————
ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
पोस्ट ऑफिस के पास
रतनगढ़-458226 (नीमच) मप्र
opkshatriya@gmail.com
9424079675