और जल उठी होलिका
धू धू कर के
भाई की जिद के आगे !
उस का तो कोई बैर नहीं था
विष्णु से या प्रल्हाद से
उसे तो वरदान प्राप्त था
किन्तु भ्रातृ प्रेम में मिट गई वो !
औरत ने सदा ही बलिदान दिया है,
पुरूष के अंह को पोसने को !
चाहे सीता हो
द्रोपदी हो या फिर
होलिका !
मना कर सकती थी सीता
अग्नि परीक्शा से
और द्रोपदी
अपने को वस्तु माने जाने से
इन्कार कर सकती थी !
होलिका भाई से कह सकती थी
अपनी लड़ाई खुद लड़ो !
पर
कहां जवाब दे पाती है औरत
चुपचाप सह जाती है
प्रेम के आवरण में छिपा
हर अन्याय !
शशि पाठक