सुप्रीम कोर्ट ने अपने नवजात शिशु की हत्या के लिए निचली अदालत की ओर से दोषी ठहराई गई एक महिला को बरी कर दिया है। अदालत ने कहा कि इस मामले में महिला को दोषी ठहराने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं है इसलिए उसे बरी किया जाता है। महिला अपने गांव के ही किसी व्यक्ति के साथ कथित शारीरिक संबंधों के बाद गर्भवती हुई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी को आजीवन कारावास की सजा सुनाने के लिए ठोस सबूतों की आवश्यकता होती है और ऐसा यंत्रवत और लापरवाही से नहीं किया जा सकता है। जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने कहा कि सिर्फ इसलिए कि वह महिला गांव में अकेली रह रही थी, उसपर बिना किसी ठोस सबूत के एक बच्चे की हत्या करने का अपराध थोपना सांस्कृतिक रूढ़िवादिता और लैंगिक भेदभाव को उजागर करता है।
अदालत ने कहा, ‘‘जो निष्कर्ष निकाला गया वह केवल इस आधार पर है कि दोषी-अपीलकर्ता गांव में अकेली रह रही थी और गर्भवती थी (जैसा कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 313 के तहत बयान में स्वीकार किया गया है)। न्यायालय ने कहा कि यह पूरी तरह से एक महिला की निजता का मामला है कि वह कानून के दायरे में रहकर यह निर्णय ले कि उसे बच्चे को जन्म देना है या नहीं अथवा अपने गर्भ को समाप्त करना है या नहीं।
पीठ ने कहा, ‘‘हमने इस बात पर गौर किया है कि हाईकोर्ट ने बिना कोई ठोस कारण बताए निचली अदालत के आजीवन कारावास की सजा की पुष्टि कर दी।” सुप्रीम कोर्ट महिला द्वारा दायर उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के 2010 के आदेश को चुनौती दी गई थी। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अपने आदेश में महिला की दोषसिद्धि और आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा था।