रामपुर और आजमगढ़ में भाजपा की अभूतपूर्व जीत और सपा की हार के अपने निहितार्थ हैं। भाजपा के लिए यह जीत जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के रणनीतिक कौशल का नतीजा रही है तो वहीं संगठन के कुशल प्रबंधन ने भी भाजपा की फतेह का रास्ता आसान किया। दूसरी ओर सपा मुखिया अखिलेश यादव के अति आत्मविश्वास के सियासी दंभ और बसपा की सधी हुई राणनीति ने सपा का खेल तो बिगाड़ा ही भाजपा की जीत अप्रत्यक्ष रूप से सुनिश्चित कर दी।
योगी डटे रहे मैदान में अखिलेश थे नदारद
कहना गलत न होगा कि सपा के गढ़ में उसे हरा कर भाजपा ने न केवल वर्ष 2018 में लोकसभा के उपचुनाव के मद्देनज़र सपा का गुरूर तोड़ा है बल्कि पार्टी में मिशन-2024 के लिए जूझने के लिए उत्साह भी भर दिया है। साथ ही खुद भाजपा के लिए यह नतीजे भी एक सवाल लेकर आए हैं कि क्या वर्ष 2024 में भी उसका यह रणनीतिक कौशल काम आएगा? पूरे चुनाव प्रचार में योगी आदित्यनाथ ने ही भाजपा की ओर से मोर्चा संभाला। वह खुद मैदान में डटे रहे। रामपुर और आजमगढ़ में रैलियां कीं और प्रदेश व केंद्र सरकार की कल्याणकारी योजनाओं को आम लोगों के सामने रखकर वोट मांगा। वह यह संदेश देने में भी कामयाब रहे कि उनकी सरकार सबका साथ, सबका विश्वास के सिद्धांत पर काम कर रही है। यही वजह रही कि रामपुर में जहां ओबीसी प्रत्याशी होने का पार्टी को लाभ मिला। वहीं दलितों ने भी रामपुर में पार्टी को खुल कर वोट किया। वहीं रामपुर में आजम खां की खुद अल्पसंख्यकों में मुखालफत का भी पार्टी को लाभ मिलने से इनकार नहीं किया जा सकता।
अति आत्मविश्वास का शिकार हो गई सपा
समाजवादी पार्टी आजमगढ़ व रामपुर की अपनी मौजूदा सीटों पर कांटे की टक्कर में आखिरकार शिकस्त खा गई। इन दोनों सीटों पर खुद पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव व सपा के कद्दावर नेता आजम खां जीते थे। यह अखिलेश के अतिविश्वास का नतीजा है या खिसकते मुस्लिम -यादव जनाधार का या फिर अदूरदर्शी निर्णयों का। इसका जवाब अखिलेश ही बेहतर जानते होंगे। सपा की बड़ी हार का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा और अब इसका असर दो साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में पड़े तो हैरत नहीं। दोनों सीटों पर अखिलेश व आजम की खुद की प्रतिष्ठा दांव पर थी। आजम खां दोनों जगह प्रचार के लिए उतरे लेकिन अखिलेश दोनों जगह प्रचार पर नहीं गए। यह हर जगह चर्चा का विषय रहा। क्या अखिलेश को नतीजों का पहले से अहसास था, इसलिए पेशबंदी के लिए नहीं गए या फिर उन्हें लगता था कि उनके जाए बिना ही आजमगढ़ का एमवाई समीकरण सपा की जीत की राह निकाल ही देगा।
सपा पहली बार तीन सीटों तक सिमटी
मुलायम सिंह ने सपा ने वर्ष 1992 में बनाई और पहला लोकसभा चुनाव 1996 में लड़ा उसमें सपा को 16 सीट मिल गईं। उसके बाद सपा ने 1998 के लोकसभा चुनाव में 19, 1999 में 26, 2004 में 36, 2009 में 23 और 2014 व 2019 में 5-5 सीटें जीतीं। अब तक इतिहास में सपा का लोकसभा में सबसे कम प्रतिनिधित्व है। वर्ष 2014 में सपा को फिरोजबाद, मैनपुरी,बदायूं, आजमगढ़ व कन्नौज के रूप में पांच सीटें मिली थीं। इन पांच सीटों पर मुलायम का कुनबा ही जीता था। अगले लोकसभा चुनाव में सपा ने बसपा से गठजोड़ किया लेकिन फायदा बसपा ने उठाया और 10 सीटें जीत लीं।
बसपा की गणित ने बिगाड़ा सपा का खेल
बसपा सुप्रीमो मायावती ने आजमगढ़ सीट पर शाह आलम गुड्डू जमाली को उतार कर मुस्लिम वोटों का बंटवारा कराकर सपा की राह में रोड़े बिछा दिए। वहीं रामपुर में उम्मीदवार न उतार पर दलित वोटों का बंटवारा रोककर भाजपा की राह आसान की। सपा और बसपा वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ी थी। तब सपा रामपुर और आजमगढ़ दोनों सीटों पर जीती थी। आजमगढ़ में सपा मुखिया अखिलेश स्वयं 6 लाख 21 हजार 578 पाकर जीते थे। इसमें यादव, मुस्लिम और दलित वोटों की हिस्सेदारी रही थी। उपचुनाव में मायावती ने सधी हुई चाल चलते हुए आजमगढ़ सीट से शाह आलम गुड्डू जमाली को मैदान में उतारा। गुड्डू मुस्लिम हैं और आजमगढ़ के आसपास के क्षेत्रों में उनकी अल्पसंख्यकों में अच्छी पकड़ है। यही वजह रही कि मुस्लिम और दलित वोट का अच्छा हिस्सा उनके खाते में गया। लिहाजा, त्रिकोणीय मुकाबला होने के चलते भाजपा को लाभ मिला और सपा की हार सुनिश्चित हुई।