गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर भाजपा भले ही लाख दलीलें दे। लेकिन भाजपा के इस कदम ने साबित कर दिया है कि उसके मन में गुजरात हारने का डर है। वहीं भाजपा के इस कदम ने गुजरात में कांग्रेस की उम्मीदों को एक बार फिर से जिंदा कर दिया है। यही वजह है कि हाल ही में स्थानीय निकाय के चुनाव में मुंह की खाने के बावजूद कांग्रेस गुजरात में एक बार फिर हाथ-पैर मारने लगी है।
पुराने प्रदर्शन से प्रेरणा लेने को बेताब कांग्रेस
असल में इन सारी बातों के पीछे जो भूमिका है, वह साल 2017 में ही बन चुकी थी। तब कांग्रेस ने 40 फीसदी का वोट शेयर हासिल किया था। भाजपा ने किसी तरह से सत्ता तो बचा ली थी, लेकिन कहना गलत नहीं होगा कि उसका आत्मविश्वास हिल गया था। इसके बाद भाजपा के अगले चार साल भी बहुत अच्छे नहीं बीते हैं। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान हुई परेशानियों ने उसकी पोल खोली तो चुनाव के एक साल बाकी रहते सीएम बदलना यह दिखा गया कि पार्टी प्रदेश में साख बचाने के लिए सेफ रास्ता तैयार कर रही है। वहीं बात कांग्रेस की करें तो 2017 में उसके लिए जिग्नेश मेवानी, हार्दिक पटेल और अल्पेश ठकोरे की तिकड़ी ने बखूबी काम किया था।
बढ़ चुकी हैं चुनौतियां
हालांकि इस बार कांग्रेस के लिए चुनौतियां 2017 से ज्यादा बढ़ चुकी हैं। हालांकि उसके पास हार्दिक पटेल हैं, लेकिन इस बार अहमद पटेल जैसा नेता नहीं है। वहीं कांग्रेस प्रदेश प्रभारी राजीव सातव भी नहीं रहे। इन हालात में पार्टी को एक ठोस नेतृत्व की जरूरत है जो उसका गुजरात में उसका बेड़ा पार लगा सके। पार्टी विकल्प के तौर पर भूपेश बघेल और सचिन पायलट की तरफ देख सकती है। बघेल पार्टी के पुराने कद्दावर और वफादार हैं। अपनी जबर्दस्त साख के बावजूद वह बहुत ज्यादा शो-ऑफ में यकीन नहीं रखते जो उनके पक्ष में जाता है। हालांकि छत्तीसगढ़ में हालात को देखते हुए बघेल को हटाना कांग्रेस के पक्ष में नहीं होगा। वहीं सचिन पायलट ने राजस्थान में पीसीसी चीफ रहते हुए पार्टी को जीत दिलाई थी। ऐसे में कांग्रेस उनपर भरोसा कर सकती है।
राहुल भी गुजरात जीतने को बेकरार
कांग्रेस को इस बात का पूरी तरह से अंदाजा है कि गुजरात चुनाव में जीत के मायने क्या हैं? उसे पता है कि पीएम मोदी के गृह राज्य में अगर उसने परचम फहरा दिया तो 2024 के आम चुनाव में उसका समां बंध सकता है। इसके लिए कांग्रेस गुजरात में राहुल गांधी से एक बार फिर उसी भूमिका की उम्मीद कर रही है जो उन्होंने 2017 के विधानसभा चुनाव में निभाई थी। तब भाजपा के किसी बयान के फेर में पड़े बिना राहुल ने बड़े ही माकूल ढंग से पार्टी का नेतृत्व किया था।