पिछले कुछ महीने ताइवान के लिए चुनौती और चिंता भरे रहे हैं. जहां चीन ने बार-बार ताइवान के संप्रभु हवाई क्षेत्र में अतिक्रमण कर ताकत दिखाई है, वहीं ताइवान को अमेरिका और जापान समेत कई देशों का समर्थन भी मिला है.इस हफ्ते तेजी से बदलते वैश्विक घटनाक्रम में ताइवान चर्चा में रहा है. अमेरिका के दौरे पर गए जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा की राष्ट्रपति जो बाइडेन से बातचीत में ताइवान बड़ा मुद्दा है. बाइडेन प्रशासन का एक अनौपचारिक शिष्टमंडल अभी अभी ताइवान का दौरा कर वापस गया है. बाइडेन प्रशासन के प्रतिनिधियों की इस यात्रा पर चीन ने कड़ी आपत्ति भी जताई और अमेरिका से कहा कि ताइवान से संबंधों की पींग बढ़ा कर अमेरिका आग से खेलने की गलती कर रहा है. दरअसल, 2016 में राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन के सत्ता में आने के बाद से ही चीन ताइवान को लेकर कड़ा रुख अपना रहा है. त्साई इंग-वेन सरकार ने 1992 में अंतर-जलडमरूमध्य संबंधों को लेकर हुई सहमति को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था, लिहाजा चीन ने ताइवान के साथ संपर्क बंद कर दिए. चीनी दबाव के कारण ताइवान को मुख्य रूप से विश्व स्वास्थ्य असेम्बली से भी हटा दिया गया. इसकी वजह यह भी रही कि ताइवान ने चीनी ताइपे नाम से इस सम्मेलन में भाग लेने से इनकार कर दिया था. त्साई इंग-वेन की नीतियों से भड़के चीन ने पिछले कुछ वर्षों में ताइवान के सहयोगियों को एक एक कर उससे दूर करने की कोशिश भी की है. जाहिर है इस बात से ताइवान परेशान है लेकिन उसने चीन की इस आक्रामक नीति के आगे घुटने नहीं टेके हैं. और इसी वजह से चीन और ताइवान के बीच तनाव और सैन्य तनातनी भी बढ़ गयी है. ये भी पढ़िए: ताइवान और चीन का झगड़ा कैसे शुरू हुआ ताइवान के हवाई क्षेत्र में चीन के लड़ाकू विमान चीन के लिए ताइवान के हवाई क्षेत्र में विमान वाहक भेजना अब आम बात हो गई है. इस हफ्ते, चीन ने एक ही दिन में ताइवान के एडीआईजेड में 25 लड़ाकू विमानों और परमाणु-सक्षम बमों सहित विमानों को भेजा जो अब तक की सबसे बड़ी संख्या है. कोविड महामारी के बीच ताइवान की बढ़ती लोकप्रियता और चीन के प्रति देशों के असंतोष ने चीन को कूटनीतिक और मानसिक तौर पर असुरक्षित बना दिया है जिसका असर उसके विदेशनीति व्यवहार में बदलाव में साफ दिखता है. ट्रंप प्रशासन के सख्त रवैए से हलकान हुए चीन को उम्मीद थी कि शायद डेमोक्रेट सरकार आए तो बात पहले जैसी सामान्य हो जाए लेकिन ऐसा हो नहीं हुआ. जो बाइडेन के सत्ता में आने के बाद तो चीन के लिए स्थिति बद से बदतर होती दिख रही है. आर्थिक, जलवायु और पर्यावरण के मुद्दों के अलावा सैन्य सहयोग और सामरिक मामलों पर भी बाइडेन आक्रामकता में ट्रंप से फिलहाल तो कहीं कम नहीं दिख रहे और इस बात ने चीन को झुंझला कर रख दिया है. चीन को लेकर अमेरिकी प्रशासन की पैनी रणनीति और नीयत दोनों की झलक हमें तब देखने को मिली जब चीन की बढ़ती आक्रामकता पर अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन का मुखर बयान आया कि चीन को पश्चिमी प्रशांत में यथास्थिति बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. अलास्का में विफल वार्ता के वक्त भी यह साफ हो गया था. रहा सवाल नीयत का, तो बाइडेन प्रशासन के शिष्टमंडल भेजने का अनुमान किसी को भी नहीं था. इस शिष्टमंडल में पूर्व सीनेटर क्रिस डोड और पूर्व उप सचिव रिचर्ड आर्मिटेज और जेम्स स्टाइनबर्ग जैसे कई अनुभवी नेता शामिल थे. जाहिर है बाइडेन प्रशासन ताइवान को लेकर सजग है और चीन को लेकर चौकन्ना भी. इस तरह के कूटनीतिक संदेश दरअसल इसी काम के लिए होते हैं. चीन की आक्रामकता से निबटने की तैयारी ताइवान सरकार भी अमेरिका के इस कदम से संतुष्ट दिखती है. राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन ने भी कहा कि अमेरिका और ताइवान इंडो-पैसिफिक में स्थिरता, शांति और समृद्धि सुनिश्चित करने के लिए सहयोग करेंगे. ताइवान के राष्ट्रपति कार्यालय के प्रवक्ता जेवियर चांग ने कहा कि अमेरिकी कदम ताइवान और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच चट्टान की तरह मजबूत रिश्तों का परिचायक है. लेकिन ताइवान के लिए यह परेशानियों का अंत नहीं है क्योंकि चीन अनौपचारिक यात्रा का कड़ा जवाब दे रहा है. चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने इस यात्रा की निंदा की और अमेरिका से कहा कि वह ताइवान के अधिकारियों के साथ किसी भी रूप में आधिकारिक बातचीत को तुरंत रोक दे और ताइवान से संबंधित मुद्दे पर समझदारी से पेश आए. जापानी प्रधानमंत्री सुगा की अमेरिका यात्रा भी इस मामले में महत्वपूर्ण है. दोनों देशों के नेताओं का संयुक्त बयान ताइवान में बढ़ रहे तनाव और इलाके की स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण है. ताइवान जलडमरूमध्य में संघर्ष किसी भी देश के हित में नहीं है. सभी देशों को यह समझना होगा. चीन की बढ़ती आक्रामकता से निपटने के लिए ताइवान, अमेरिका और उसके सहयोगियों के बीच सामरिक सहयोग और इस बात की प्रतिबद्धता जरूरी कदम है. लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है कि चीन का ध्यान इस बात की ओर भी दिलाया जाए कि युद्ध किसी भी पार्टी के लिए अच्छी खबर नहीं होगा. (राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं).