पश्चिम बंगाल की चुनावी उठापटक में मुस्लिम मतदाताओं का मिथक टूटेगा? क्या दलित या आदिवासी समुदाय से जुड़े मतदाताओं का रुझान सियासी दलों का भाग्य तय करेगा? या फिर कोई नया समीकरण सारे रुझानों को ध्वस्त करेगा। कई कोण चुनावी मैदान में उभर रहे हैं और सियासी दल बंगाल के दंगल में हर गणित को अपने पक्ष में साधने की कोशिश कर रहे हैं।
गौरतलब है कि राज्य में मुस्लिम वोटरों की संख्या करीब 30 प्रतिशत है। दलित और आदिवासी समुदाय भी बंगाल की कुल आबादी का लगभग 30 प्रतिशत हैं। अनुमान के मुताबिक आदिवासी राज्य की आबादी का लगभग 5.8 प्रतिशत हैं। जबकि दलित आबादी करीब 24 प्रतिशत है। प्रधानमंत्री की गुरुवार को आदिवासी बहुल पुरुलिया में जनसभा हुई। राज्य में 16 विधानसभा सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित है। जबकि 68 विधानसभा सीटों पर दलितों का अच्छा प्रभाव है। ये समुदाय हर सियासी दल के लिए बहुत खास हैं।
मुस्लिम मतदाताओं को साधने के लिए कांग्रेस-लेफ्ट पूरा जोर लगा रहा है। इंडियन सेकुलर फ्रंट-आईएसएफ का कांग्रेस लेफ्ट के साथ गठजोड़ है। भाजपा और तृणमूल कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि नवगठित सियासी दल अल्पसंख्यक कार्ड का सहारा ले रहा है। हालांकि तृणमूल का मानना है कि बिहार के अनुभव के बाद बंगाल में मुस्लिम मतों का बिखराव शायद नहीं होगा।
भाजपा के लिए मुस्लिम वोट परंपरागत नहीं रहा है। ऐसे में पार्टी आदिवासी, दलित दोनों समुदायों पर अधिक फोकस कर रही है और यहां एक के बाद एक कई रैलियां और रोड शो आयोजित किए जा रहे हैं। बंगाल में आदिवासियों की संख्या दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी, अलीपुरद्वार, दक्षिणी दिनाजपुर, पश्चिम मिदनापुर, बांकुड़ा और पुरुलिया में हैं। पुरुलिया में ही भाजपा अधिक फोकस कर रही है। यहां केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ,प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा भी हुई है।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में यह समुदाय भाजपा के साथ खड़ा था और माना जा रहा है कि इस वजह से ही भाजपा को यहां बड़ी सफलता हासिल हुई। फिलहाल तृणमूल के दावे भी इन समुदायों के साथ होने को लेकर बहुत हैं। जानकारों का कहना है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अलग-अलग तरीके से होते हैं। लेकिन भाजपा जिस तरह से बड़ी ताकत बनकर चुनाव लड़ रही है उससे कई नए समीकरण चुनाव में उभरते हुए नजर आ रहे हैं।