आओ कि बाहें खोल दी हैं कुदरत ने
हमारे, तुम्हारे, हम सबके लिए
सारे विक्षोम, विषाद- अवसाद के
स्याह धुएं को तिरोहित कर
सुकूं- शांति की यहां शुद्ध सांस लें
कुदरत की अद्भुत कारीगरी
हमें भी देना सिखा जाएगी।
अगवानी में यह पलक पांवड़े बिछाए
सुमनों से लक-दक सुंदर तरुवर ।
आगत पर बरसने, बिखरने
स्वागत -अभिनंदन को हो रहे आतुर।
इन राहों पर चल के तो देखो,
मुस्कुराहटों की कलियां खिल पड़ेगी।
आनंद की सृष्टि अगर कहीं है
बस कुदरत के सानिध्य में
इस नेमत को दिल में उतारो
संवारो और निखारो तो सही
पंचमहाभूत से बनी प्रकृति को,
प्रकृति में ही प्रतिष्ठित कर ही
असीम आनंद – ऊर्जा की
मंजिलें करीब आ जाएंगी।
अनुपमा अनुश्री, भोपाल