ऐ आस्तीन के साँपों!
बाहर आज तो आओ
मैं पूजन की थाली लेकर
व्याकुलता से ढूँढ रहा हूँ
थाली है,
सब पूजन सामग्री है
आस्तीन भी नया सिलाकर
लाया हूँ
हाँ मैं लाया हूँ गंगाजल
छिड़कूँगा कुछ बूँद भी तुमपर
शायद संस्कार बदल जाए
आस्तीन में उलझे उलझे
थक जाते हो
कभी नहीं बाहर आते हो
चेहरा तो देखो मेरा
पहचानो तो
कौन हूँ मैं
आस्तीन में पड़े पड़े
तुम कर्म तो मेरे
देख रहे हो
फिर क्यों हो बेचैन
रक्तपिपासु बनकर
मुझको भी संरक्षित करना
है जिम्मेदारी तेरी
वरना घर तेरा उजड़ेगा
मुझको दुःख होगा
कहाँ बसोगे,किधर बसोगे
तेरे बच्चे बिलखेंगे
दुःख मुझको होगा
आज नाग की पूजा चहुँ दिशि
बाहर आओ
बस पल भर पूजन करवा कर
मेरे आस्तीन छिप जाओ।
अनिल कुमार मिश्र