कोई न बरगद, कहीं न पीपल, बुत थे गूंगे, गूंगी शान ।
आदमियों से सड़कें पुर थीं लेकिन शहर मिले सुनसान ।
ख़ुदग़र्ज़ी की फ़स्ल उगी है, दस्ते-तलब का दस्तरख्वान,
हिरसो-हवस के तोहफ़े लेकर आ ही जाते हैं मेहमान ।
सुख़नवरी में रातें काटीं, सहर जगाये लेकिन क्या?
जब बेकारी घर में कूदी उसने बेच दिया सामान।
अपनों ने जब शीशे तोड़े और बहुत रंजूर किया,
तब अहसास की बिजली चमकी देखा पत्थर में इंसान ।
मेरी सारी नज़्में, ग़ज़लें आबला-पा में डूब गयीं,
आग ज़मीन पर धूप थी सिर पर दूर थी मंज़िल की पहचान।
लौट के जब तुम घर पहुंचोगे सांप मिलेंगे खेतों में,
वहशी छुपकर वार करेंगे और बिजूके देंगे जान।