दो दशक से अधिक हुए-अपने पहले कविता संग्रह “पीढ़ी का दर्द” लेकर आए जाने-माने पत्रकार और कवि सुबोध श्रीवास्तव “सरहदें” के साथ एक बार फिर सामने हैं। ‘सरहदें’ उनके दूसरे कविता संकलन का नाम है, जिसमें प्रत्येक कविता की मूल भावना में इंसान के सकारात्मक और संवेदनशील होने पर जोर दिया गया है। सुबोध की अपनी बात कहने का अंदाज़ सहज है – हालांकि कहीं-कहीं यह सरलता कविता के निर्धारित व्याकरणीय मानकों का उल्लघंन करती हुई प्रतीत होती है परन्तु समय के साथ सहज होती जा रही जीवन शैली के चलते उनकी कविताएं आम एवं दैनंदिन जीवन का हिस्सा बन गई सी लगने लगती हैं – शायद यही उनके कविता संग्रह को सशक्त बनाती है।
सुबोध ने अपनी कविताओं में मानव जीवन के अनेक पहलुओं पर बारीक नज़र डाली है। मसलन – बचपन, मां, प्रकृति, किसान, मजदूर, गांव, गरीबी, उम्मीद, विश्वास और भी बहुत कुछ। निष्कर्ष ये कि उनकी दृष्टि में जो कुछ भी समक्ष है – उस पर संवेदनशील वार्तालाप और प्रभावी विमर्श उन्हें आवश्यक लगता है। इस संकलन की सफलता में यह समग्र भाव ही इसका महत्वपूर्ण तत्व है। उनकी एक कविता में उम्मीद की सीमा असीम है –
सब कुछ खत्म नहीं होता…..
तूफ़ान में ढहे घरौंदे,
फिर उठ खड़े होते हैं
तिनका-तिनका जुड़कर।
सुबोध इंसान की नैसर्गिक प्रवृत्तियों को प्रकृति से जोड़कर आनंदित होकर कहते हैं –
मैं घुलना चाहता हूं
खेतों की सोंधी मिट्टी में।
गतिशील रहना चाहता हूं
किसान के हल में
खिलखिलाना चाहता हूं
दुनिया से अनजान
खेलते बच्चों के साथ।
हां, मैं चहचहाना चाहता हूं
सांझ ढले/ घर लौटते
पक्षियों के संग-संग।
मनुष्य कर्म करने का स्वाभाविक हुनर लेकर पैदा होता है, और इसके साथ ही पनपते हैं सपने – जो निरंतर स्पंदित विश्व को प्रगतिशील बनाए रखने में सहयोगी होते हैं लेकिन सुबोध की चिंता मात्र सपनों को साकार होते देखने की ही नहीं है, उनका मानना है कि असफलता और सफलता के बीच सपने देखने की प्रक्रिया बदस्तूर चलती रहे –
न भूख से मरता है कोई,
ना गरीबी से
और ना संत्रास से,
सपने जब भी टूटते हैं/लोग
अक्सर दम तोड़ देते हैं।
आशा और विश्वास की धुरी पर गतिमान दुनिया में रिश्ते अनायास ही नहीं बनते। मूलतः उनके निभाए जाने के पीछे जिस वायदे को अपनी कसौटी पर खरा उतरने की आवश्यकता है, उन संबंधों में आत्मविश्वास बनाए रखना कम चुनौतीपूर्ण नहीं होता परन्तु इस कविता का नायक कहता है –
तुम्हें भले ही न हो उम्मीद
लेकिन एक दिन ज़रूर लौटूंगा मैं,
जब संध्या का धुंधलका
घेर चुका होगा सूर्य को
और कहीं दुबका तम,
तत्पर होगा, अपना आधिपत्य जमाने को,
तब मैं आऊंगा,
आलोक बिखेरने,
लेकिन तब तक तुम
बुझने मत देना,
दीपक की थरथराती लौ को।
कविता संग्रह के शीर्षक ‘सरहदें’ को फलीभूत करतीं कुछ पंक्तियां अपने आप में बड़ा संदेश लिए हुए हैं – जैसे कि
मत रुको
बढ़ते चलो/ टूटने दो
सरहदों को…
चुप्पी की दुनिया के विनाश का
बस, यही एक रास्ता है!
…
टूटेंगी सरहदें
तो टूटेगा
भ्रम/ आक्रोश का
कुहासा और सामने होगा
तपा हुआ सच जो
भले ही हो कड़वा,
लेकिन जोड़ भी देता है अक्सर
टूटे हुए दिलों को।
सरहदें टूटने की एक और बानगी देखिए –
उसके बाद फिर कभी नहीं मिले
हम तुम, लेकिन मेरी जिंदगी को
महका रही है,
अब तक खुशबू तेरी याद की
क्योंकि यहां नहीं है
कोई सरहद।
एक रचनाकार की दृष्टि से सुबोध श्रीवास्तव का फलक बहुत बड़ा है। उनके अनुभव भी विशाल हैं। यूं भी किसी समाचार पत्र से संबद्ध रहते हुए समाज के विभिन्न पहलुओं से निरंतर साक्षात्कार होते रहना किसी भी सजग पत्रकार के लिए रोजमर्रा की घटनाएं होती हैं। सुबोध ने अपने इस व्यवसाय का सही लाभ उठाया है। इसके साथ ही साथ उन्होंने अपनी लेखन शैली में इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि उनकी सोच में उनके भीतर बैठे पत्रकार की जड़ता से उनकी कविता अछूती रहे। आशय यह कि एक कविता को अपना व्यक्तित्व गढ़ने में जिस कोमलता की आवश्यकता होती है, सुबोध ने उसे ज्यों का त्यों बना रहने दिया है। संकलन की समूची कविताओं में मानव मन की भीतरी तहें उकेरते हुए पाठक अपना जुड़ाव अनुभव करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। सुबोध श्रीवास्तव की रचनाशीलता में नए आयामों की बड़ी से बड़ी गुंजाइशें स्पष्ट दिखाई दे रही हैं – उनका यह काव्य संग्रह “सरहदें” इस प्रमाण को पूरी मजबूती के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराता हुआ प्रतीत होता है।
पुनश्च: संग्रह को विशेष बनाने में यशस्वी रचनाकार दिविक रमेश, वरिष्ठ कवि एवं रेखाचित्र सर्जक अजामिल और लब्धप्रतिष्ठ चित्रकार डॉ. रेखा निगम ने पूरा योगदान दिया है। उनके रेखाचित्र कविताओं के भाव और उनके चरित्र का भरपूर प्रतिनिधित्व करते हैं।
समीक्षित कृति: सरहदें (कविता संग्रह)-सुबोध श्रीवास्तव/ ISBN 978-93-83969-72-2 / प्रथम संस्करण-2016/मूल्य 120 रु./ प्रकाशक-अंजुमन प्रकाशन, 942 आर्य कन्या चैराहा, मुटठीगंज, इलाहाबाद 211003
विशेष : पुस्तक समीक्षा का प्रकाशन तभी संभव हो पाएगा जब समीक्षित पुस्तकों की 2 प्रतियाँ पत्रिका कार्यालय को प्राप्त हो जाएंगी।
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सुधेन्दु ओझा, प्रमुख संपादक-संपर्क भाषा भारती,
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● उपेंद्र सिंह