मैं कार ड्राइव करके ऑफिस जा रहा हूँ। इस लॉकडाउन में बैंकरों को आफिस जाना पड रहा है। सरकार ने बैंक सेवा को आवश्यक सेवा की श्रेणी में डाल रक्खा है। और यहां अहमदाबाद में तो बैंक पूरे टाइम खुल रहे है, और 50% कर्मी एक दिन बाकी अगले दिन का आदेश अभी जारी नहीं हुआ है।
हां तो मैं कह रहा था कि जहां सामान्य दिनों में घर से आफिस तक की दूरी तय करने में 40 से 45 मिनट लगता है, वहीं इस लाकडाउन के कारण सड़के सूनी पड़ी है और रास्ता 15 मिनट में ही तय हो जाता है। पिछले 25 दिनों से ड्राइव करते वक्त मैने नोटिस किया कि पेड पौधे काफी हरे भरे दिख रहे है। हरितिमा से भरे पडे है। खुश होकर लहरा रहे है।रास्ता साफ सुथरा दिख रहा है। डिवाइडर में लगे पौधे नयी हरी कोपलों के साथ झूम रहे हैं। मेरी आंखों में जलन कम हो रही है। प्रदूषण लेवल नाटकीय तरीके से कम हो रहा है। प्रदूषण कम होने से हवा में आक्सीजन का स्तर अच्छा हुआ है और स्वास्थ्य बेहतर हो रहा है।
बस यही सब बातें हमें नये सिरे से सोचने को मजबूर कर रही है कि आगे बढने के चक्कर में, दुनिया मुठ्ठी में करने के चक्कर में हमने प्रकृति को तहस नहस कर दिया है। शानदार आसमान छूती बिल्डिंगों के एवज में कितने जंगलो की हमने हत्या कर दी है। इस प्रतिस्पर्धा के युग में न केवल हम प्रकृति की हत्या कर रहे है, बल्कि खुद अपनी जान से खेल रहे है।खुद अपने को कमजोर कर रहे है। पैसा कमाने की होड़ में फैक्ट्री लगातार लगाते जा रहे है और प्रदूषण की बारे में तो हमने सोचना ही बंद कर दिया है। प्रकृति की ताकत का अन्दाजा तो इस बात से लगाइए साहब कि कितनी तेजी से वो अपने को हील कर रही है, जैसे ही हमने प्रकृति में दखलंदाजी देना बंद किया, प्रकृति हरी भरी होकर झूमने लगी। निःसंदेह इस समय हम सारे बहुत ही नाजुक दौर से गुजर रहे हैं।
महामारी का खतरा सर पर मंडरा रहा है। पर यही समय हमें फिर से स्थापित करने के सही तौर तरीके भी समझा रहा है। हमे समझना ही होगा। अगर मानव शब्द शब्दकोश में जिंदा रखना है तो हमें अपनी जीवन शैली बदलनी ही होगी। आज कोरोना तो कल कुछ और भी आ सकता है।
बेहतर है हम प्रकृति के साथ तालमेल मिलाये और प्रकृति के साथ रहकर इन महामरियों पर विजय पायें।
–राजेश सिंह