चिर अतीत की यादें लेकर, बातें चार कहेंगे हम,
बीता पल अबसे अच्छा था,सौ सौ बार कहेंगे हम।
घर में पसरा है सन्नाटा,
सदमे में देहरी आंगन ।
अभ्यागत भी ठिठक गया है
देख द्वार का सूनापन ।
स्वागत नहीं,स्वार्थ बसता है,जिसकी चार दिवारी में,
पत्थर का है भवन,घर नहीं, फिर किस हाल रहेंगे हम।
हंस हंस कर बातें करना भी
अभिनय की मजबूरी है ।
आलिंगन में बंधे हुए हैं,
फिर भी कितनी दूरी है।
सभी मुखौटे लगा लगा कर, बैठे हैं बाजारों में
दिल जलता है देख देख कर, कितनी देर दहेंगे हम।
भूला है सुगंध माटी की,
माली बैठ मचानों पर
बाड़ खा गई खेत समूचा,
पहरा है खलिहानों पर।
खुले भेड़िए घूम रहे हैं, गलियों में, मैदानों में,
भूखा पेट, कांपती टांगें,कितना और सहेंगे हम।
निस्पन्दित हो गए भ्रमर भी,
देख बेरुखी फूलों की ,
जल भी कांपा देख देख कर
नाकेबंदी कूलों की ।
गंध बेच कर खड़े हुए हैं, फूल सुनहरी क्यारी में,
बन्दी जल दुर्गन्ध मारता, फिर किस ओर बहेंगे हम।
महक रही है रजनीगंधा,
सांपों को मदहोशी है ।
तुलसी का पौधा रोता है,
उपवन में खामोशी है ।
विषधर फन काढ़े बैठे हैं, कौन धरे तुलसी पर दीप,
पृथ्वी भी हो गई विषैली, फिर किस ठौर रहेंगे हम।।
अशोक तिवारी
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