“ये कैसा समय आ गया है? हम घर के सारे काम कर रहे हैं और कैद हो गए हैं? ऊपर से जान का डर अलग से लगा हुआ है।”
” इस समय मन बहलाने के लिए आप अंताक्षरी खेल सकते हैं। कुछ नया बनाएं, कुछ नया खाएं…” अंतहीन शिकायतें और उससे भी उम्दा समाधान।
“खाने का स्टॉक तो रखा है ना?”
“वो तो चार पांच महीने से भी ज्यादा का है। पर नारियल पानी नहीं मिल पा रहा है।”
“कोई नहीं कोल्ड ड्रिंक तो होगी ना।”
“हां, उससे तो स्टोर भरा पड़ा है।”
क्या वाकई ये समय चिंता का है? चिंता भी वो, जो ऊपर लिखी गई हैं। किसी की भूख, चिंता का विषय हो सकती है। किसी दूसरे शहर से पैदल घर वापस आना, व्यवस्था से जुड़े होने के कारण घर से दूर रहना, ये सब चिंता के विषय हैं। ये समय तो सबके लिए दुआ मांगने का, सहायता करने का, कुछ संकल्प लेने का और प्रकृति से बातें करने का हो सकता है।
पीछे मुड़कर देखने का समय
माने इससे पहले कभी हमको प्रकृति की तरफ से चेतावनियां नहीं मिली थी? प्रकृति, पर्यावरण ने हमको आगाह नहीं किया था? अकाल, बाढ़, महामारी, सुनामी, भूकंप, इन सब रूप में प्रकृति हमको चेताती रहती है। कुछ समय पहले केदारनाथ में हमने प्रकृति का जो विकराल रूप देखा था वो क्या था? एक भयानक चेतावनी! मौत तो सबको आनी है। पर उसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि कोई नहीं जानता वो कब आने वाली है। इस बार तो ये चेतावनी पूरे विश्व की मानवजाति को एक साथ ही मिल गई है।
आसपास देखें तो कई जीवित कहानियां फैली हुई हैं। कोई इन 21 दिनों में भी घर में माली से घर के बाहर की सफाई करवा रहा है। तो कोई सरकारी नौकरी वाले अपने घर के बर्तन और दरवाज़े, खिड़कियां साफ करवा रहा है। किसी ने दो महीने के एडवांस के साथ सबको छुट्टी दे दी है, तो कोई बारिश में भीगते हुए भी एक सांड को रोटी खिला रही है। क्या याद रहेगा? अगली पीढ़ी क्या सबक सीख रही है?
अब हमारे पास समय है जागने का, कुछ करने का। सवाल है इस समय हम क्या करना चाहते हैं? अपने घर में कैद होने का विलाप? मन नहीं लगता? या मन व्यथित है उनके लिए जो तकलीफ़ से गुजर रहे हैं। एक संकल्प? कितने काम हैं जो अभी किए जा सकते हैं।
इस समय प्रकृति सबसे सुकून के दौर से गुज़र रही है। प्रदूषण निम्नतम स्तर पर है। पक्षी चहक रहे हैं। इसको देखकर नहीं लगता कि अंधाधुंध दोहन से ये कितने सिमट चुके हैं। आज दिन में भी इनकी चहचहाहट कितनी मधुर लग रही है। क्या हुआ थोड़ा कम खा लिया। क्या हुआ थोड़ा काम कर लिया।
क्या ये समय सचमुच अपने घटते सुखों पर अफसोस करने का समय है? या मानवता की सेवा के मिले अवसर को लपक कर लेने का और अपना उत्तरदायित्व पूरा करने का है। जो रोज कमाते खाते हैं, यह समय सबसे ज्यादा उनकी तकलीफ का है। या जिनको कोई भी देखने वाला नहीं है यह समय उस तन्हा बुजुर्ग की चिंता का है। कौन सब्जी लाकर देगा? कौन दवा ला देगा? क्या हमने उनकी सहायता की? क्या अगले 3 महीने वह क्या खाएंगे हमें इसकी चिंता है?
जिनके परिजन, डॉक्टर,पुलिस या किसी और सेवा में है और इस समय व्यवस्था को सहयोग दे रहे हैं उनके प्रति हमारे मन में कितना आभार, सहयोग की भावना और दुआएं हैं? 5:00 बजे थाली बजाकर डॉक्टर किराएदार को घर से बाहर निकाल कर हम अपना कौन सा फर्ज पूरा कर रहें हैं? अपने आपको, अपने बच्चों को, अपने समाज को और इस प्रकृति को क्या दिखा रहे हैं?
आज वक्त यह मानने का है की प्रकृति सिर्फ देखती ही नहीं समझती और परिणाम भी देती है। वह आज भी सब देख रही है और उसी का एक छोटा सा वायरस आज पूरी पृथ्वी को एक सबक सीखा रहा है। जितने लोग बचेंगे या जो तकलीफ से गुजर रहे हैं वह क्या सीख रहे हैं? आज हम एक बार जरूर याद करें कि अपने मनोरंजन, प्रसाधन के लिए हमने जानवरों के साथ क्या है? यह एक बहुत जरूरी सवाल है।
आज के सात आठ महीने बाद जब सबकुछ शायद ठीक हो चुका होगा तब अपने परिणाम दिखाएगा। क्या हम प्रकृति और मानव का सम्मान करना सीख लेंगे? कितनी गुहार, कितनी सिसकियां, कितना नुकसान? उसके बाद क्या अब प्रकृति को हमारी तरफ से सुकून मिलेगा?
पिछले 20 साल में भारत को प्राकृतिक आपदा से 79.5 अरब डॉलर ( लगभग 59 खरब रुपये) का नुकसान हुआ है। संयुक्त राष्ट्र ने प्राकृतिक आपदा से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है। इसके मुताबिक भारत प्राकृतिक आपदा से आर्थिक नुकसान झेलने वाले शीर्ष दस देशों में चौथे स्थान पर है। इस सूची में शीर्ष पर अमेरिका और अंतिम पायदान पर मेक्सिको है। जिन्हें क्रमश: 944.8 और 46.5 अरब डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ है।
रूपांतरण जरूरी है
दुर्योधन ने 21 दिन की जल में समाधि ली थी। उसके बाद उसने जो पाया था वो कृष्ण की सहायता के बिना भीम नहीं पा सकता था। ये दिन हमारे लिए भी कुछ ऐसा ही काम कर जाएं।
फिर वो चाहे गर्भ हो या गर्भगृह हो या हमारा घर हो। शरीर हो या मन परिवर्तन तो होना ही चाहिए। गर्भ में एंब्रियो से मानव शरीर तक की यात्रा, यह विकास न हो तो बच्चा मानसिकता या शारीरिक रूप से असंतुलित हो सकता है। गर्भगृह में बिताया वक़्त यदि मन को एक नयी आभा, एक नयी संवेदना न दे तो ये वक़्त फिर आयेगा। अबकी बार से भी ज्यादा तीव्रता से।
जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं उसमें बहुत कुछ है जो हम देख, सीख सकते हैं। घर में कामकाजी सहयोगी हो या नहीं महिला कितने मोर्चे सम्हालती है? घर में बच्चों को परिवार के साथ की कितनी जरूरत है? हमारे बुज़ुर्ग जिन्हें हम समय, भावना देना भूल गए हैं उन्हें हमारी कितनी जरूरत है?
अन्न की कद्, अपने घर में काम करने वाले सहयोगियों की कद्र, रिश्तों की कद्र, मानवता और दया ये आज की जरूरत है। एक अंतहीन लिस्ट है जो हमें जीवन के सीधे सच्चे पाठ पढ़ा रही है। इसमें एक हिस्सा मौन का भी होना चाहिए बाहर इतना भाग रहे हैं कि भीतर जाना भूल ही गए हैं। वो भी एक जरूरत है।
आज का समय एक ऐसा समय जिसको देखने का किसी ने नहीं सोचा था। पर इसके होने में योगदान किसका है? ये समझना बहुत जरूरी है।
युद्ध से ज्यादा प्राकृतिक प्रकोप से नुकसान
इकॉनमिक लॉसेस पॉवर्टी एंड डिजास्टर 1998-2017 नामक इस रिपोर्ट को यूएन ऑफिस फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन ने जारी किया है। 1978 से 1997 के बीच विश्व में प्राकृतिक आपदाओं से हुए 895 बिलियन डॉलर के प्रत्यक्ष आर्थिक नुकसान की तुलना में पिछले 20 सालों में 151 फीसद तक बढ़ोत्तरी हुई है।
20 सालों में मुख्य वैश्विक घटनाओं में से 91 फीसद प्राकृतिक आपदा थीं। जिनमें 43.3 फीसद बाढ़, 28.2 फीसद तूफान की भागीदारी थी। रिपोर्ट के मुताबिक ये दोनों आपदाएं जन-धन के नुकसान से सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं। वहीं 563 भूकंप और सुनामी की घटनाओं से 7.5 लाख लोगों की मौत हुई जो कुल प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली मौतों का 56 फीसदी है।
पिछले 20 सालों में प्राकृतिक आपदा से प्रभावित देशों को तकरीबन 2908 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है। जो पिछले दशकों की तुलना में दोगुना है।
आज हर देश की सरकार को इस कहर को भांपकर पूरी व्यवस्था के साथ तैयार रहना होगा। ताकि 2030 तक प्राकृतिक आपदाओं से जानमाल के नुकसान को कम किया जा सके।
करोना के कारण पूरे विश्व व हमारे घर और मन में जो हो रहा है वो एक सबक है, एक तैयारी है। जिसकी डोर इस समय तो किसी के भी हाथ में नहीं है। सिर्फ सावधानी ही हमें जीवन दे पायेगी। इलाज जब तक इज़ाद नहीं होता तब तक हम अपने घरों में कैद हैं। इस बार जब बाहर निकले तो अगली महामारी की शुरुआत करेंगे या अब प्रकृति को नमन करते हुए ही आगे बढ़ेंगे। निर्णय व परिणाम दोनों ही हमारे होंगे।
तो क्या अब हम ये उम्मीद करें कि अब हम जब घरों से बाहर निकलेंगे तो सबसे पहले चिड़ियाघर के जानवरों को आजाद करना चाहेंगे? अपने भोजन व फैशन के लिए प्रकृति व उसके मुक जीवों पर ज़ुल्म नहीं करेंगे? ये कैद एक सबक का समय है। हमनें क्या सीखा इसका जवाब आने वाले दस वर्ष दे ही देंगे। यही विरासत हम अपनी भावी पीढ़ी को देने वाले हैं।
सीमा जैन ‘भारत’