लघुकथा विधा के वातायन से झांकती ‘दृष्टि’ की दृष्टि बहुत पैनी और दूरदर्शी है। अशोक जैन द्वारा सम्पादित और प्रकाशित ‘दृष्टि’ का सातवां अंक लघुकथा विधा की विकास यात्रा का एक मील का पत्थर कहा जा सकता है। मधुदीप ने अपने एक आलेख ‘रचना और शिल्प’ में कहा है … सिर्फ घर परिवार, सास बहू, बाप बेटे के अच्छे बुरे व्यवहार या दो विपरीत पक्षों का चित्रण करके लघुकथा बहुत आगे तक नहीं जा सकेगी।
अभिप्राय है कि लघुकथाएं नए विषयों पर लिखी जाए। यह अंक इस उद्देश्य को अभिसिंचित करता है जिसमें 144 पृष्ठीय पेपर बैक, मूल्य 100 /- ,बहुरंगी कवर से सज्जित यह अंक 72 लघुकथाओं के साथ लघुकथाकारों से संवाद करते दो सार -गर्भित आलेखों के अतिरिक्त समालोचना, साहित्यिक गतिविधियाँ भी समाहित हैं।
‘सम्पादक की कलम से’ में ‘दृष्टि’ का दृष्टिकोण इंगित है। // लघुकथा सृजन के मूल में संवेदना का वास होना ही चाहिए … उसमें कलात्मकता भी जरूरी अवयव है //
विशिष्ठ लघुकथाकार केअंतर्गत सुविख्यात साहित्यकार/पत्रकार सिमर सदोष की पाँच रोचक एवं पठनीय लघुकथाएँ हैं।
पहला आलेख लघुकथा मनीषी डा.अशोक भाटिया का है जो विधा के विकास के प्रति पिछले कई दशकों से समर्पित हस्ताक्षर हैं। ‘समकालीन हिन्दी लघुकथा ‘ जैसी शोधपरक पुस्तक के रचियता अशोक भाटिया ने इस आलेख में नए विषयों के महत्त्व बताते हुए इन लघुकथाओं की पड़ताल की है। ये टिप्पणियाँ लघुकथाकारों के भविष्य के लेखन को दिशा और बल देगी।
इस अंक से ‘दृष्टि’ एक नयी सोच और परम्परा का शुभारम्भ कर रही है जो स्वागतेय है। इसके अंतर्गत वरिष्ठ के साथ-साथ एक नवोदित का आलेख भी दिया जाया करेगा। इस बार लघुकथा पर समग्रता से केंद्रित सविता इन्द्र गुप्ता का ‘समकालीन लघुकथा : विषय महत्वपूर्ण अथवा प्रस्तुति ‘ पर पठनीय आलेख है।
इस अंक की चौंकाने वाली विशेष उपलब्धि के रूप में विद्यमान है; मोहन राजेश से बात-चीत। विद्व-लेखिका लता अग्रवाल ने मोहन राजेश के साहित्यिक जीवन को बड़े कौशल से पाठकों के सामने सिलसिलेवार लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। इसके लिए लता अग्रवाल तथा ‘दृष्टि’ दोनों साधुवाद के पात्र हैं।
इस अंक में लघुकथाओं को चार भागों में विभाजित किया गया है – किसान, मज़दूर, किन्नर और अन्य विविधता लिए नये कथानक।
किसान जो कर्ज में डूबा है और उसी खेत में आत्महत्या कर लेता है, जिसे वह अपना जीवन मानता आया है। जो अन्नदाता कहलाता है और भूखा सोता है। उस पर लघुकथाओं का लिखा जाना, समाज की दुखती रग को सुकून देता है। कमलेश भारतीय की ‘प्रयास’, उपेन्द्रप्रसाद राय की ‘विलाप’ में किसान की व्यथा अच्छे से उभर कर पाठकों के मन को भिगोती है। वहीं ऋचा वर्मा की ‘सुंदर हाथ’, नीना छिब्बर की ‘चूल्हा-चौका’, लाजपतराय गर्ग की ‘बाइक’ लघुकथाएँ किसान की छटपटाहट से संवेदित होकर उन्हें नये रास्ते अपनाने का परामर्श देती हैं।
मेहनतकश मज़दूर पर लघुकथाओं में उनके संघर्षों की अनुगूंज सुनाई देती है। अशोक जैन की ‘खुसर पुसर’ और ‘भूख के आरपार’, मुकेश शर्मा की ‘मिस्त्री जी ‘, मीरा जैन की ‘उपहार’ में शोषित मज़दूर, शोषक के हथकंडों से वाकिफ है लेकिन अब उसके तीखे तेवर एक बदलाव की आहट देते हैं। कान्ता राय की ‘श्रम की कीमत’, प्रेरणा गुप्ता की अंजन’, ‘लाचारी’, पवन जैन की ‘व्हाइट कॉलर मज़दूर’ में शोषितों की दयनीय स्थिति और व्यथा उभर कर आई है। भगवान् वैद्य प्रखर की ‘भीख’, वेद हिमांशु की ‘पाप पुण्य’, सुदर्शन रत्नाकर की ‘आग का गोला’, प्रताप सिंह सोढ़ी की ‘मजदूर की उमंग’, राम यतन यादव की ‘जिंदगी’, आशीष दलाल की ‘नयी फसल’, प्रभात दूबे की ‘लाचारी’, सविता अक्षजा की ‘श्वास’, आभासिंह की ‘ताप की छाँव’ लघुकथाएँ, अपना-अपना मजदूर जीवन के प्रति संवेदनशील उद्देश्य प्रेषित करने में सक्षम हैं।
किन्नर वर्ग को समाज की मुख्य-धारा में लाने के लिए जितना लिखा जाए उतना कम है। इस उद्देश्य से लिखी वीरेंदर वीर मेहता की ‘एक और एक ग्यारह’, सविता इन्द्र गुप्ता की ‘और दीप जल उठा’, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल की ‘किन्नर डॉट कॉम’ उल्लेखनीय हैं। किन्नर समाज को दिशा देने के लिए उनका चरित्र महिमामंडित करती लघुकथाएं भी हैं, जो वास्तविकता से तनिक दूर लगती हैं लेकिन वो भी लिखा जाना चाहिए जो समाजोन्मुखी हो और जैसे समाज निर्माण की जरूरत है। जगदीश कुलरियाँ की ‘रुदन’ एक कटु और दुखद सत्य से परिचय कराती है वहीं इंदु गुप्ता की प्रशंसनीय लघुकथा ‘वापिसी’ सहज ही तीखा सन्देश दे जाती है। रूपेंद्र राज की ‘माँ का धर्म’ और लता अग्रवाल की ‘दहलीज का दर्द’ बहुत मार्मिक बन पड़ी हैं।
विविध नए विषयों की लघुकथाओं में एक अत्यंत सशक्त व प्रशंसनीय लघुकथा है – संध्या तिवारी की ‘अन्धेरा उबालना है’। व्यंजनात्मक शीर्षक, संवेदनाओं का सैलाब और भिन्न शैली-शिल्प में कैंसर की दी कुरूपता पर लिखी यह लघुकथा आगे भी चर्चा के गलियारों में स्थान पाएगी। बलराम अग्रवाल की ‘इमरान’, भगीरथ की ‘रेंजर दौरे पर’, उर्मि कृष्ण की रक्षा’, कमल चोपड़ा की ‘लिव-इन’, तारिक असलम तस्नीम की ‘खुदा की मर्जी’ बेहतरीन मुकम्मल रचनाओं का आस्वादन कराती हैं। कनक हरलालका की ‘प्रतिदान’, चंद्रेश कुमार छतलानी की ‘खोटा सिक्का’, राम कुमार आत्रेय की ‘एक और सच’, उषा लाल की ‘सुबह का भूला’, सतविंदर राणा की ‘फैसला’, मार्टिन जॉन की ‘खिताब’, नीरज सुधांशु की ‘कुम्भकार’, ओमप्रकाश करुणेश की ‘सत संग’, दुलीचंद कालीरमन की ‘हलचल’ पठनीय और स्तरीय होने के कारण ध्यानाकर्षण करती हैं।
दस पुस्तकों की समालोचना और प्राप्त 32 पुस्तकों की सूचि दी गयी है। साहित्यिक गतिविधियों के अंतर्गत लघुकथा सम्मेलनों की शानदार रिपोर्ताज है। लघुकथा विधा के मनीषियों के चार दशकों के प्रयासों के सुफल के रूप में ‘पाठ्यक्रम के लिए लघुकथा की दस्तक’ ने लघुकथा के हृदय की धड़कन खुशी से बढ़ा दी है। इसके लिए राजकमल प्रकाशन और बलराम अग्रवाल के श्रमसाध्य काम को अनंत साधुवाद।
“यह मन मांगे मोर” की तर्ज पर कुछ नये विषयों पर लघुकथाएं आमंत्रित की जा सकती थीं जैसे बाजारवाद, वैश्वीकरण, स्मार्ट फोन और सोशल मीडिया का दुष्प्रभाव, नई तकनीक ( रोबॉटिज़्म) कृत्रिम बुद्धिमत्ता कोलोनीकरण आदि का मानवता पर अच्छा या बुरा प्रभाव।
निष्कर्षतः यह अद्भुत अंक समाज में बिखरे नए विषयों को खंगाल कर दिशा और दृष्टि देने में सक्षम है और अपने उद्देश्य में कमोवेश सफल हुआ है। विश्वास है लघुकथा जगत में इसका गर्मजोशी से स्वागत होगा। !
सविता इन्द्र गुप्ता,
गुरुग्राम