प्रेमचंद की महत्ता पहले से अधिक बढ़ गई है। आज की नई पीढ़ी के सामने मुंशी प्रेमचंद को उसी रूप में प्रस्तुत किया जाना क्या उचित है? इसका फैसला आपको करना है। इस क़लमकार ने जो महसूसा वही पुस्तक में दर्ज कर दिया। मैं नहीं जनता कि मुझसे पहले के विद्वानों ने प्रेमचंद को कितना सही समझा कितना कम, लेकिन मैंने उन्हें कदापि कम नहीं आँका है। आज प्रेमचंद को विभिन्न खानों में बाँटा ज़रूर गया है।
**************
प्रेमचंद का विचार था कि विश्व की आत्मा के अंतर्गत ही राष्ट्र या देश होता है और इसी आत्मा की प्रतिध्वनि है ‘साहित्य’. वह हिंदी साहित्य के कलेवर में हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के पक्ष में नहीं थे.* इसके बावजूद प्रेमचंद के समय में लिखे गए साहित्य की हिन्दू स्त्रियां बहनें नज़र आती हैं, बीवियां हैं, नंदनें हैं, सासें हैं और मुस्लिम औरतें वेश्याएं हैं और ईसाई कुलटाएँ. बात आगे बढ़ाई जाये तो यह कहना भी ग़लत न होगा कि हिंदी के लेखक भी कालांतर में हिन्दू होते चले गए, मुस्लिम पात्रों और लेखकों को अछूत बनाकर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. जिन्हें पात्र के रूप में भूमिकाएं दी गयीं, उन्हें कोठों से उठाया, ईसाइयों को पतित पात्र बनाकर अपने साहित्य के ऐवानों में रख भी लिया और हिंदी साहित्य मात्रा राष्ट्र-भाषा का रूप लेकर सरकारी संस्थाओं और भिन्न अनुदान देने वाले निकायों में छुपकर बैठ गई .*
इसीलिए आज की परिस्थितियों में हमें मुंशी प्रेमचंद के साहित्य के उस संस्कार को सामने लाना होगा जिसने अपने समय से आगे की पीढ़ी को नए साहित्यिक संस्कार प्रदान किये और उपन्यास जैसी विधा को एक नई यथार्थवादी व रचनात्मक सोच को उसके साथ जोड़ने का काम किया आगे बढ़ाया. क्या आज भी प्रेमचंद के कद्दावर अस्तित्व को चुनौती देने का साह्स नई पीढ़ी कर सकती है ?
साहित्य का आकलन बोलती तस्वीर की समग्र रूप में व्याख्या करना है. प्रेमचंद के साहित्य में जिस तरह का भारतीय उपयोगितावाद मौलिक रूप में दिखाई देता है, वह मेरी नज़र में मूलतः कला-जन्य है. उसी से विकास ऊर्जा प्राप्त करता है. उनके वे पात्र जो मरकर भी आज तक नहीं मरे हैं, जीवित हैं खेतों, खलिहानों में. बरखा लाने वाले बादलों को तकते रहने की मुद्रा में, ज़मींदार, महाजन या बैंकों के क़र्ज़ों को न चुकाने के दंश से दंशित आत्महत्या कर लेने की स्थिति में, धनिया, होरी और गोबर जैसे संघर्ष करते अनेक पात्रों की सूरत में. आज भी सब कुछ वैसा ही तो है. आज भी उनकी सजीव दास्तानें हमारे समाज, देश और दुनिया के पटल पर सचित्र देखि और सुनी जाती हैं.
दास्तान जैसी विधा का जन्म पतनोन्मुखी समाज के उदय का प्रतीक माना जाता है. प्रेमचंद’ फरवरी, 1934 का वह पत्र जिसे उन्होंने संपादक नैरंगे ख्याल को लिखा था जिसमें उन्होंने अपने किस्सों और अनुभवों को साझा किया था. ‘मेरे क़िस्से अक्सर किसी न किसी अवलोकन या अनुभव पर निर्भर होते है. मैं नाटकीय प्रभाव पैदा करने का प्रयास करता हूँ मैं उसमें किसी दार्शनिकता या भावुकता से युक्त वास्तविकता का प्रदर्शन करना नहीं चाहता हूँ.’
मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों में एक उपन्यास ‘किशना’ शीर्षक से भी था. न मालूम कौन नक़्क़ाद लखनवी नाम के एक सज्जन ने पहली बार उर्दू मासिक पत्रिका ज़माना (कानपुर) में इस उपन्यास की समीक्षा लिखी थी. ऐतिहासिक दृष्टि से इस उपन्यास की समीक्षा का महत्व कम नहीं है. हालांकि अब उर्दू का यह उपन्यास कहीं भी उपलब्ध नहीं है. नक़्क़ाद लखनवी के सम्बन्ध में बताया जाता है कि इस नाम से लिखने वाले आलोचक का मूलतः नाम नौबत रॉय ‘नज़र’ था. जिन्होंने ज़माना (कानपुर) के अक्टूबर-नवम्बर 1907 के संयुक्तांक में पहली बार प्रेमचंद की किसी पुस्तक की समीक्षा की थी
जब उपन्यास सेवासदन प्रकाशित हुआ तब गोरखपुर के एक पत्र स्वदेश के अंक 8 सितबर 1919 में प्रोफ़ेसर रामदास गौड़ और पंडित पद्म सिंह शर्मा की गंभीर समीक्षाएं प्रकशित हुईं। प्रोफेसर गौड़ की मान्यता थी कि प्रेमचंद मानसिक विकारों की तस्वीर उकेरने में बंकिम बाबू से भी आगे के लेखक हैं. उनके अनुसार प्रेमचंद मनोविकारों के सच्चे इतिहासकार थे..*
प्रो. रामदास गौड़ ने प्रेमाश्रम (प्रथम संस्करण) का अनुवचन लिखा था. अनुवचन पढ़ कर लगता है कि प्रेमचंद पर वह कुछ ज़्यादा ही मेहरबान रुख अपनाये हुए थे. हालाँकि आलोचना में जो पाकीज़गी पाई जाती है, वह कहीं भी कमज़ोर नज़र नहीं आती है. ठीक इसके विपरीत पंडित पद्म सिंह शर्मा के प्रति प्रेमचंद की अपार श्रद्धा थी. उनकी मृत्यु पर उन्होंने मई, 1932 में लिखा भी था कि ‘मेरे ऊपर तो उन पर असीम कृपा थी. सेवासदन उपन्यास क्षेत्र में मेरा पहला प्रयास था…. उन्होंने दिल खोलकर उसकी दाद दी, वह मैं भूल नहीं सकता.’*
लेकिन उन्हीं दिनों प्रेमचंद को कालिदास कपूर ‘पक्षपात रहित’* आलोचक नज़र आये. साहित्य समीक्षा शीर्षक से प्रकाशित निबंध-संग्रह में कालिदास कपूर ने प्रेमचंद के प्रेमाश्रम और रंगभूमि पर उनकी आलोचनाएं संकलित हैं. सरस्वती के फरवरी, 1920 के अंक में श्री कपूर ने उक्त उपन्यासों की तुलनायें चंद्रशेखर और वैनिटी फ़ेयर उपन्यासों से की थीं.* उपन्यास कायाकल्प पर भी कालिदास कपूर ने समीक्षा की थी लेकिन वह प्रभावी नहीं थी. प्रेमाश्रम और रंगभूमि पर आलोचनाओं की तब मानो बारिश की झड़ी सी लग गई थी. अवध उपाध्याय नामक आलोचक भी इस भीगे मौसम का लुत्फ़ उठाने में तनिक भी पीछे हटने में सकुचाये नहीं थे. उन्होंने प्रेमचंद की मौलिकता*, रंगभूमि और वैनिटी फेयर की समस्याएं*, प्रेमाश्रम और रिजरेक्शन शीर्षक से निबंध लिखे*. सरस्वती में ही उपाध्याय ने प्रेमचंद की करतूत अथवा रंगभूमि, आँख की किरकिरी और रंगभूमि* शीर्षक से लेख लिखे. इन लेखों में उनकी द्वेष-भावना स्पष्ट झलकती दिखाई देती है. इसके साथ ही आलोचना का स्तर भी नीचे दर्जे का बाज़ारूपन लेता चला गया था.
रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी हों या प्यारे लाल गुप्त, राज बहादुर लमगोड़ा हों या पं. रामकृष्ण शुक्ल ‘शिलीमुख,’ सभी अपने-अपने विचारों से प्रेमचंद के द्वारा रचे जा रहे साहित्य की समीक्षा कर रहे थे. लेकिन बुनियाद में अधिकतर आलोचकों की रेत भरी हुई थी. रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी, प्रेमचंद के अभिन्न मित्र थे. वह लिखते हैं,’प्रेमचंद की असामयिक मृत्यु के समय तक लगभग उनके (एक अपूर्ण कृति सहित) 20 उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे. उर्दू के उपन्यासों में मंगलाचरण* हिंदी में प्रकाशित तो हुआ किन्तु प्रेमचंद के पुत्र अमृत राय ने इसके प्रकाशन में अपना कोई सहयोग नहीं दिया.
राज बहादुर लमगोडा* ने अपने लेख में लिखा कि वैनिटी फेयर से अधिक समता रंगभूमि और कविवर टैगोर के उपन्यास गोरा में मिलती है. जबकि ऐसा नहीं है. इसी तरह शिलीमुख ने प्रेमचंद की कहानी ‘विश्वास’ को हालकेन कृत्य ‘इंटर्नल सिटी’ की छाया बताया. इस आरोप को दुलारे लाल भार्गव द्वारा सम्पादित पत्रिका सुधा में ही प्रेमचंद ने अपने पत्र के माध्यम से निरस्त कर दिया. लेकिन प्रेमचंद पर लगे आरोप अभी भी संदेहों से मुक्त नहीं हुए हैं.
हालांकि प्रेमचंद विरोधी आंदोलन से जुडी पत्र-पत्रिकाएं (जैसे सरस्वती, समलोचक, सुधा और भारत)1933 तक अबाध गति से अपना नज़रिया प्रस्तुत करती रहीं. उन दिनों एक स्वर से लगभग एक ही प्लेटफार्म पर विरोध का स्वर गूंजने लगा था जिसका पाठकों पर बुरा प्रभाव पड़ा. उन्हीं दिनों कर्मभूमि उपन्यास का प्रकाशन हुआ था जिसकी लोकप्रियता पर काफी समय तक ओस पड़ती रही. इस विरोधी आंदोलन में नन्ददुलारे बाजपेयी, बाबू बृजरतन दास, श्रीनाथ सिंह और निर्मल जैसे लेखक अग्रणी थे.
इन सबने प्रेमचंद के विरुद्ध विरोधी आंदोलन की आंधी सी छोड़ रखी थी. लेकिन प्रेमचंद ने इस अंधड़ को झेल लिया. ऐसे ही अंधड़ के दौरान 1933 में जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ ने एक पुस्तक लिखी ‘प्रेमचंद की उपन्यासकला’. इस पुस्तक को छपरा (बिहार) की प्रकाशन संस्था ‘पुस्तक वाणी मंदिर’ ने प्रकशित किया था जिसमें उपन्यासकार प्रेमचंद की शास्त्रीय आलोचना के साथ कुछ दूसरे वरिष्ठ उपन्यासकारों से तुलना भी की गई थी. यह बात और है कि इसका कोई साहित्यिक व ऐतिहासिक महत्व नहीं है क्योंकि यह प्रेमचंद के ही अनुसार,’जनार्दन झा योग्य लेखक हैं मगर उनमें स्फूर्ति या अन्तरदृष्टि बहुत नहीं है.* से ज्ञापित होता है.
प्रेमचंद, सर्वहारा वर्ग का समर्थन कर रहे थे. उनके ख्याल से पूँजीवाद देश को कभी भी सच्ची आज़ादी नहीं दिला पायेगा. उनकी आँखों में एक ऐसे देश के निर्माण का सपना करवटें ले रहा था जो एच.जी. वेल्स को अपनी आँखों में अपने देश के बारे में उमड़ रहा था.
‘कायाकल्प’ में प्रेमचंद तब के हिंदुस्तान का ऐतिहासिक-पाइथागोरस निर्मित कर रहे थे जो सांप्रदायिक सोच और आतंरिक आतंकवाद के गणित को लेकर विचलन की स्थिति से गुज़र रहा था. इस नज़रिये से देखें तो ‘कायाकल्प’ की औपन्यासिक यात्रा हमें एक महत्वपूर्ण पड़ाव तक पहुंचाती है. यह संभावित अजन्मे उपन्यासों का ऐसा पड़ाव है जहां से गोदान के जन्म की भूमिका तैयार होती प्रतीत होती है, कर्म-भूमि का बीज भी इसी पड़ाव का प्रस्फुटन है.
जब हम रंगभूमि को देखते हैं तो वह खालिस सामाजिक-राजनीतिक कथा के ताने-बाने बुनता दिखाई देता है. प्रेमचंद के अनुसार,’विशुद्ध राजनीतिक अथवा धार्मिक विचारधारा को आधार रूप में स्वीकार करते हुए उसकेप्रचार और प्रसार हेतु यदि उपन्यासों की योजना और कथावस्तु का निर्माण किया जाये तो वह एक प्रचारात्मकउपन्यास (Propaganda Novel) होकर रह जायेगा…..साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली चीज़ नहींहै. उसके आगे-आगे चलने वाली एडवांस गाईड है*.
सामाजिक समस्या के गर्भ से ही राजनीतिक समस्या का जन्म होता है. जहां मनुष्य का समाज होगा, आस्था और विश्वास के तहत वहां ईश्वर भी होगा. आस्थाओं के मंदिर भी होंगे. यज्ञ और आहुतियां भी होंगीं. व्यवस्था के तहत प्रबंधक, प्रबंध समितियां और ट्रस्ट भी होंगे, इन व्यवस्थाओं के संचालन के गर्भ से राजनीति जन्म लेगी. इसलिए जब वर्णित उपन्यास में सुखदा आंदोलन चलाती है तो वह उस आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन के चश्में से नहीं देखती. वह उसे यज्ञ की संज्ञा देती है.
कर्मभूमि उपन्यास में भारतीय अधिकारियों के रवैये भी आश्चर्यजनक हैं. शांत, आन्दोलनकारियों के हितैषी. ब्रिटिश हुक्कामों के प्रशंसक, विचित्र-लाला समरकान्त डिप्टी पुलिस हैं, रिश्वत की अशर्फियों को जेब से निकालकर मेज़ पर रख देते हैं. ग़ज़नवी, ज़िलाधीश हैं. अमरकांत को अफ़सर सम्मान के साथ गिरफ्तार करने के लिए उसके मित्र सलीम को कार में भेजता है. पात्र, उत्तेजना फैलाने वाले भाषण देने के बाद भी न तो पुलिस के डंडों का सामना करते हैं न हंटर सहते हैं, वे चुपचाप गाड़ी में बंद होकर जेल चले जाते हैं, ये तो अंग्रेज़ों के रहमोकरम का क़सीदा है.
फिर, अंग्रेज़ भारत छोड़कर क्यों चले गए? जहां तक मैंने पढ़ा है, उसके हिसाब से तो घायल सत्याग्रहियों की सहायता करना भी जुर्म था. उनके तमाशबीनों पर गोलियाँ तक चला दी जाती थीं. जो भाषण देते थे, उन्हें गिरफ्तार कर प्रताड़ित किया जाता था. अक्सर ऐसा होता कि पिटाई कर उन्हें गोली से उड़ा दिया जाता था. कर्मभूमि में अँगरेज़ी शासन न तो इतना ज़ालिम है और न ही युगीन शासन का बर्बर शासक. यह कैसे माना जाये कि गांव की दलित बुढ़िया साहब के मुंह पर थूक दे और सरकारी साहब चूं तक न करे. शायद इसीलिए उपन्यास कर्मभूमि एक सशक्त उपन्यास बनते-बनते रह जाता है.
‘साहित्य का उद्येश्य’ जिसे 1954 में हंस प्रकाशन के अंतर्गत शिवरानी प्रेमचंद के संपादन में प्रकाशित हुई थी. उसमें और बनारस स्थित सरस्वती प्रेस से जो 1957 में पुस्तक प्रकशित हुई, जिसका नाम ‘कुछ विचार’ है, उसमें प्रेमचंद के अनेक निबंध संकलित थे लेकिन मुझे नहीं लगता कि ये दोनों मौलिक पुस्तकें अब भी उपलब्ध हैं.
इन्हीं पुस्तकों में प्रेमचंद के विभिन्न विषयों पर आधारित अनेक लेख संकलित किये गए थे. हाँ, प्रेमचंद के पुत्र अमृत राय ने अवश्य हंस प्रकाशन के द्वारा ‘विविध प्रसंग’ शीर्षक से उनके साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर अनुलब्ध लेख संकलित कर 1962 में तीन खण्डों में प्रकाशित किया था. प्रकाशन और संपादन के कार्य में उनकी अनुभवहीनता से प्रेमचंद के व्यक्तित्व और चिंतन को कोई विशेष लाभ नहीं पहुंचा. वे अधिकतर उर्दू में थे लेकिन हिंदी स्क्रिप्ट में वे लुप्त हो गए. इसी तरह लेख या निबंध जब हिंदी में लिप्यांतरित हुए तो अख़बार, पत्रिकाओं के नाम ही निबंधों पर से ग़ायब हो गए जिससे उन लेखों और निबंधों की मौलिकता ही संदिग्ध हो गई. इस तरह की भूलें ‘विविध प्रसँग’ जैसी सम्पादित व संकलित पुस्तक अपने महत्व को सहेज नहीं सकी….
तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन के बीच परिस्थितियां भी बदल रही थीं. इसका ज़िक्र प्रेमचंद ने मुंशी दयाराम निगम को भेजे अपने एक पत्र में किया था,’उर्दू में अब गुज़र नहीं है. यह मालूम होता है कि बालमुकुंद गुप्त महरूम की तरह मैं भी हिंदी लिखने में ज़िन्दगी सर्फ़ कर दूंगा. उर्दू नवीसी में किस हिन्दू को फैज़ हुआ जो मुझे हो जायेगा.* इसके बावजूद तत्कालीन बदलती विचारधारा ने जब कथाकार प्रेमचंद का क़लम थामा तो हिन्दू-मुस्लिम पात्रों ने उन्हें घेर लिया और खुशनसीबी यह रही कि वह अपने पात्रों से कभी भी दूर नहीं जा सके. उर्दू से उनका रिश्ता कभी नहीं टूटा। यह था प्रेमचंद को महान बनाने वाला वह जज़्बा जिसने उनके व्यक्तित्व को विशालता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचाने में संकोच से काम नहीं लिया.
आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने एक पुस्तक लिखी, ‘इस्लाम का विष-वृक्ष’.प्रेमचंद को आचार्य चतुरसेन शास्त्री की इस पुस्तक को पढ़कर बहुत बुरा लगा. जैनेन्द्र को पत्र लिखा, ‘इन चतुरसेन को क्या हो गया है कि ‘इस्लाम का विष-वृक्ष’ लिख डाला. उसकी एक आलोचना तुम लिखो और वह पुस्तक भेजो. इस कम्युनल प्रोपेगंडा का ज़ोरों से मुक़ाबला करना होगा और यह ऋषभ भला आदमी भी इन चालों से धन कमाना चाहता है.*
यह सच है कि मुंशी प्रेमचंद पीएन ओक के हिंदुस्तान के समर्थक नहीं थे, वह थे नए जनतंत्र के समर्थक. उनके साहित्य में हमें ऐसा ही जनतंत्र दिखाई भी देता है. लेकिन क्या तत्कालीन साहित्य के मठाधीश दिग्गज ऐसे हिंदुस्तान की रचना में दिलचस्पी रखते थे?
मेरी नज़र में साहित्य का आकलन बोलते इतिहास की समग्रता में व्याख्या करना है. उनके वे औपन्यासिक पात्र जो मरकर भी आज तक नहीं मरे हैं, जीवित हैं खेतों, खलिहानों में. बरखा लाने वाले बादलों को तकते रहने की मुद्रा में, ज़मींदार, महाजन या बैंकों के क़र्ज़ों को न चुकाने के दंश से दंशित आत्महत्या कर लेने की स्थिति में, धनिया, होरी और गोबर जैसे संघर्ष करते अनेक पात्रों की सूरत में. आज भी सब कुछ वैसा ही तो हैं. आज भी प्रेमचंद के साहित्य में सौंदर्य के नए प्रतिमान होरी या हरखू, दंडी की भांति अलंकारों की पहचान नहीं कराते. होरी के सांवले गाल पिचके हैं तो उनका भी अपना अलग सौंदर्य है, हरखू का शरीर खरहरे की तरह सूखा और मिर्च की तरह तीखा है तो उसका अपना अलग सौंदर्य है.’प्रेमचंद की सौंदर्य-परख में आत्मकामी का ही तो संकेत है. जो अशिव है वही असत्य है. वही कुरूप है. यही तो जार्ज सेन्टेना के विचार थे. प्रेमचंद तो एक बहता हुआ महा-सागर है जिसका पानी भला कैसे खुश्क हो सकता है ?
और, भूमिका के अंत में, एक सवाल अनुत्तरित कि प्रेमचंद के साथ उनके जीवन में अनेक विवाद क्यों साथ-साथ चलते रहे थे ? ‘प्रेमचंद घर में’ पुस्तक की लेखिका उनकी पत्नी शिवरानी देवी हैं. पहला संस्करण सरस्वती प्रेस, वाराणसी और दूसरा संस्करण दिल्ली स्थित आत्माराम एंड संस प्रकाशन से 1956 में प्रकाशित हुआ. इन संस्करणों से कई नई बातों का खुलासा होता है जिनके बारे में पहले कोई नहीं जानता था. कुछ खुलासे निम्नलिखित हैं-
*प्रेमचंद अपनी विमाता के बहुत क़रीब नज़र आते है. अकेले में जब भी प्रेमचंद से विमाता की बातें होतीं तो वह उनके पक्ष में आकर क्रोधित हो पत्नी को पीटने लग जाते थे.
*बचपन से प्रेमचंद परिवार की स्त्रियों के प्रति आसक्त नज़र आते हैं. उन्हें स्त्रियों के बीच होती रहने वाली बातों में बहुत रूचि आती थी.
*महोबे में प्रवास के दौरान बेगार में असामी से सबकुछ ले लेते थे जिनमे दूध, घी और बर्तन तक शामिल था. खाने पीने का सामान वह स्वयं बाजार से मंगवा देते थे. (पृ. 4 -5,13,16)
*प्रेमचंद ने जब शिवरानी देवी से शादी की तो उसकी सूचना अपने परिवार को नहीं दी थी. शायद इसी कारण उन्हें शुरू में एक माह प्रेमचंद के घर में और 11 महीने मायके में रहना पड़ता था. इन कष्टदायक स्थितियों में शिवरानी देवी को वैवाहिक जीवन के 8 वर्ष तक दंपत्ति-जीवन का संकट झेलना पड़ा. (पृ. 11-12)
*प्रेमचंद की पहली पत्नी सुन्दर और सुशील थी। प्रेमचंद की नज़र में वह ग़रीब और सीधी थी. इसके बावजूद प्रेमचंद अकड़े रहते थे. (शिवरानी देवी: प्रेमचंद घर में /पृ. 07)
*प्रेमचंद पहली पत्नी के रहते उन्होंने एक और स्त्री को घर में रख रखा था जिससे उनके शारीरिक सम्बन्ध थे. शिवरानी देवी यह बात जानती थीं. (शिवरानी देवी: प्रेमचंद घर में /पृ. 264)
*शिवरानी देवी को प्रेमचंद धोखा देते रहे कि पहली पत्नी की मृत्यु हो चुकी है. बस्ती प्रवास के दौरान शिवरानी देवी को पता चला कि वह जीवित हैं. (शिवरानी देवी: प्रेमचंद घर में /पृ. 26, 8)
प्रगट में प्रेमचंद का अपना चरित्र कैसा भी रहा हो. शिवरानी देवी पत्नी के रूप में सब जान और समझ चुकी थीं. वह यह भी जान चुकी थीं कि वह देर गए तक कवियों, कथाकारों और राजनीतिज्ञों के बीच होती रहने वाली बैठकों में शराब भी पीते थे और जब घर लौटते तो ‘कुत्तों की तरह’ भौंकते थे. (पृ. 75)
चारित्रिक दोष यह था कि प्रेमचंद प्रगतिशील विचारधारा के होते हुए भी प्रेस में काम करने वाले कर्मचारियों की ग़ैरहाज़री और देर से आने पर उनका वेतन काट लिया करते थे. (पृ. 156)
1933 की मज़दूर हड़ताल का कारण प्रेमचंद की सख्ती और कामगारों के वेतन से पैसा काटते रहना था. यही नहीं, वह कामगार को काम से निकालकर उसकी जगह दूसरे कामगार को नौकरी पर लगा लेते थे.
इससे प्रेमचंद का जो चरित्र उभरता है, वह पाठकों को कहीं तक भ्रमित करता है लेकिन जब प्रेमचंद को एक साहित्यकार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो उनकी साहित्यिक साधना व उनका कृतित्व उनकी मानवी कमज़ोरियों को गर्त में धकेलकर उनके व्यक्तित्व को बहुत ऊंचाइयों पर पहुँचा देता है. इस तरह की सोच रखने वालों में चाहे जैनेन्द्र कुमार हों या श्यामसुंदर, डॉ. कृष्णदेव झारी हों या प्रताप नारायण टंडन, परमेश्वर द्विरेफ हों या जितेन्द्रनाथ पाठक, रामरतन पाठक हों या हरस्वरूप माथुर, गंगा प्रसाद विमल हों या हिमांशु श्रीवास्तव। कुल मिला कर प्रेमचंद की साहित्यिक मीमांसा पर अतीत से लेकर आज तक निरंतर शोध और विचार किया जा रहा है और तलाशा जा रहा है कि उनके समय का ग्राम्य-जीवन कैसा था, उनके उपन्यासों में कलात्मक स्थिति क्या है, प्रेमचंद अपने समकालीन मित्रों में क्या स्थान रखते थे? उन्हें उपन्यास सम्राट की पदवी किन आलोचकों ने दी थी?
इसके लिए लेखक को उन सभी स्रोतों को तलाशना और उनमें से खोज-बीनकर प्रकाश में लाना ज़रूरी था. मेरी नज़र में मुझ यायावर की तलाश साहित्य के रेगिस्तान में मृगमरीचिकाओं के बीच पानी को तलाशने जैसी थी. ग्रन्थ में अभी भी प्रेमचंद सवाल करते प्रतीत होते हैं कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद क्या भारत के आमजन को सच्ची आज़ादी मिली या नहीं? क्या इस देश का किसान महाजनी व्यवस्था से मुक्त हुआ कि नहीं? क्या अब भी देश का किसान ग़रीब और ज़मींदारों और महाजनों का ग़ुलाम है, आत्महत्याएं भी करता है? प्रेमचंद के बाद की पीढ़ी ज़िम्मेदारियों से मुक्त नहीं है. उसे भी अब जवाब देना होगा क्योँकि साहित्य में कहानी और उपन्यास अब एक सशक्त विधा के रूप में प्रतिष्ठापित हो चुके हैं. अब उसकी ज़िम्मेदारियाँ इतिहास के मुक़ाबले पहले से अधिक बढ़ गई है.
उपन्यास, अपने समय-काल का आईना होता है जिसे हम अपने समय का सामाजिक, राजनीतिक व ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी कह सकते हैं. वह इतिहास नहीं होता है, लेकिन दीवार पर टंगी ऐतिहासिक पेंटिंग में ज़िन्दगी के होने का अहसास ज़रूर पैदा कर देता है.
इस ग्रन्थ में मुंशी प्रेमचंद को मैने एक नए रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है लेकिन सच्चाई यह है कि यह तो कूज़े में समंदर भरने की बात होगी. प्रेमचंद तो अपने आपमें ठाठें मारता हुआ साहित्य का एक महा-सागर हैं जिसका पानी भला कैसे खुश्क हो सकता है ?
सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘प्रेमचंद : अपार संभावनाओं के विस्मयकर साहित्यकार’ / रंजन ज़ैदी’ से साभार.