सभी आपदा मनुष्य द्वारा उत्पन्न माने जा सकते हैं। क्योंकि कोई भी खतरा विनाश में परिवर्तित हो, इससे पहले मनुष्य उसे रोक सकता है। सभी आपदाएं मानवीय असफलता के परिणाम हैं। मानवीय कार्य से निर्मित आपदा लापरवाही, भूल या व्यवस्था की असफलता मानव-निर्मित आपदा कही जाती है। एक प्राकृतिक आपदा जैसे ज्वालामुखी विस्फोट या भूकंप भी मनुष्य की सहभागिता के बिना भयानक रूप नहीं धारण करते हैं। यही कारण है कि निर्जन क्षेत्रों में प्रबल भूकंप नहीं आता है।
आपदा एक प्राकृतिक या मानव निर्मित जोखिम का मिला-जुला प्रभाव है। आपदा शब्द, ज्योतिष विज्ञान से आया है। इसका अर्थ होता है कि जब तारे बुरी स्थिति में होते हैं तब बुरी घटनाएं घटती हैं। भारत जैसे विकासशील देश आपदा प्रबंधन की आधारभूत संरचना विकसित न होने का भारी मूल्य चुकाते हैं।
जब जोखिम और दुर्बलता का मिलन होता है तब दुर्घटनाएं घटती हैं। जिन इलाकों में दुर्बलताएं निहित न हों वहां पर एक प्राकृतिक जोखिम कभी भी एक प्राकृतिक आपदा में तब्दील नहीं हो सकता है। एक प्राकृतिक आपदा एक प्राकृतिक जोखिम का ही परिणाम है। जैसे कि ज्वालामुखी विस्फोट, भूकंप या भूस्खलन; जो कि मानव गतिविधियों को प्रभावित करता है। बिना मानव की भागीदारी के घटनाएं अपने-आप जोखिम या आपदा नहीं बनती हैं।
प्राकृतिक जोखिम किसी ऐसी घटना के घटने की संभावना को कहते हैं जिससे मनुष्यों अथवा पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पर सकता हो। कई प्राकृतिक खतरे आपस में संबंधित हैं, जैसे कि भूकंप सूनामी ला सकते हैं, सूखा सीधे तौर पर अकाल और बीमारियां पैदा करता है। खतरे और आपदा के बीच के विभाजन का एक ठोस उदाहरण यह है कि 1906 में सैन फ्रांसिस्को में आया भूकंप एक आपदा थी, जब कि कोई भी भूकंप एक तरह का खतरा है। फलस्वरूप भविष्य में घट सकने वाली घटना को खतरा कहते हैं और घट चुकी या घट रही घटना को आपदा।
उत्तराखंड में भी घटी आपदा दैवीय, प्राकृतिक आपदा न होकर मानव-निर्मित है, जिसका विकास-परियोजनाओं से, बड़े बांधों आदि से सीधा संबंध है। हिमालय जल का स्रोत और भंडार है। चार करोड़ वर्ष का यह पहाड़ क्या इससे पहले कभी इतने गुस्से में था? क्या हजार वर्ष से अधिक पहले का केदारनाथ धाम आज जैसी स्थिति में कभी रहा? क्या इससे पहले का केदारनाथ धाम आज जैसी स्थिति में कभी रहा? क्या इससे पहले नदियां, कभी इतनी आक्रोशित हुई थी? विकास के लिए पहाड़ों की छाती चीर कर चौड़ी सड़कें बनाना उचित था? पहाड़ों के पेट में बारूद भरकर उसे तोड़ते समय क्या यह जानने की कोशिश की गयी कि पहाड़ों में प्राकृतिक आपदाओं को रोकने की क्षमता है? नदियों का स्वभाविक मार्ग बदलने से क्या नदियां खामोश रहेंगी? जो हिमालय ‘एशिया का वाटर टावर’ कहा जाता रहा है, वहां की नदियां क्या लोभियों, धनपशुओं की कुत्सित ‘लीला’ को चुपचाप देखती रहतीं?
उत्तराखंड में भीषण तबाही का मुख्य कारण क्या है? ठेकेदारों, माफिया, कॅारपोरेटों, भ्रष्ट नौकरशाहों, निर्लज्ज नेताओं, बिल्डरों के हवाले है उत्तराखंड, जिन्होंने मिलजुल कर पहाड़ों को नंगा किया, उनकी भौगोलिक संरचना से खिलवाड़ किया, वनों की निर्ममतापूर्वक कटाई की, नदियों को बांधा, बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं लागू कीं।
बेशक, उत्तराखंड आपदा के तरह की प्राकृतिक आपदाओं के बारे में सही-सही पूर्वानुमान संभव नहीं है। उत्तराखंड जैसी आपदाओं को इस अर्थ में तो ‘प्राकृतिक’ कहा जा सकत है कि विज्ञान अब तक हमें इनसे निपटने में समर्थ नहीं बना पाया है, फिर भी इस तरह की आपदाओं में योग देने वाले अनेक कारक मानव निर्मित होते हैं। मिसाल के तौर पर बादल फटने की नौबत तब आती है, जब गरम तथा नम हवा पहाड़ों में ऊपर उठती है और गर्जनमय बादलों की रचना करती है। पर्यावरण में आ रही विकृति के चलते ऊपर बहने वाली हवाएं बहुत कम हो गई हैं, वरना ये हवाएं इन गरजते बादलों को बिखेरने का काम कर सकती थीं। परिणामस्वरूप, बादल फटने की घटनाएं बढ़ रही हैं। साल 1999 से लेकर अब तक उत्तराखंड में बादल फटने की छह बड़ी घटनाएं घट चुकी हैं। वनों के विनाश, अवैज्ञानिक तरीके से नदियों पर बांध बनाए जाने और पत्थर व रेती के अंधाधुंध खनन ने उत्तराखंड में एक घातक मिश्रण तैयार कर दिया है, जो ऐसी आपदाओं के लिए जिम्मेदार है।
ऐसी आपदा के समय हमें गांधी जी के शब्दों का स्मरण करना होगा कि पृथ्वी के पास प्रत्येक व्यक्ति की जरूरतों को पूरा करने के लिए सभी कुछ है, मगर यह किसी का लालच पूरा नहीं कर सकती। ध्यान रहे विलासितापूर्ण जीवन से बचाव के साथ-साथ हमें प्रकृति का संरक्षण करते हुए उससे अपना दोस्ताना रिश्ता भी कायम करना होगा।
प्रकृति के दिल दहलाने वाली लीलाओं- तूफान, बाढ़ और भूस्खलन के रौद्र रूप से लड़ना आसान नहीं होता। लेकिन, इन्हें अपने पापों का फल मानने के बजाय अपने रोज के जीवन में प्रकृति से छेड़छाड़ के रूप में देखना चाहिए। पिछली आपदाओं से सबक लेना चाहिए। आपदाओं के लिए सिर्फ प्रकृति को जिम्मेदार ठहराने के बजाय अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। आपदाओं से होने वाले नुकसान को कैसे कम किया जाए, इसके लिए राजनेताओं पर दबाव बनाना चाहिए। औद्योगिकरण के नाम पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाना बंद करना चाहिए। पर्यावरण संरक्षण नियमों का कड़ाई से अनुपालन करना चाहिए। हम चाहें तो आने वाले खतरों से खुद को बचा सकते हैं और चाहें तो और बड़े खतरों को आमंत्रित कर सकते हैं। तबाही या निर्माण, फैसला हमें ही करना है।
आलोक कौशिक
मनीषा मैन्शन, जिला- बेगूसराय, राज्य- बिहार, 851101,