मियाँ मुचक्की ने जब रहस्यमय ढंग से अपने मालिक बड़कू वकील के बदन को तेल पिलाने के बीच बीती रात देखे गए सपने का खुलासा किया तो वकील साहब उसे दीदे फैलाये देखते के देखते रह गए. “यक़ीन नहीं आ रहा है मुझपर सेठ जी ?” मियाँ मुचक्की ने वकील साहब को बड़ी मुश्किल से भरोसे में लेते हुए कहा,”क़सम इमान की कह रिया हूँ, अल्ला झूठ न बुलाये. बाजी आपा तो सुनते ही मुसल्ले पर तस्बी के दाने गिनने लग गयीं थीं…”
“यानि, तूने उन्हें भी अपना सपना सुना दिया?” वकील साहब उठकर बैठ गए थे.
“क्या कै रहे हो मियाँ जी? बाजी आपा पर जिन्नातों का साया रैवे है. हर बखत गंडे-ताबीज में उलझी रैवे हैं. उनसे कैसे छुपा सकते हैं. जिन्नातों से छत के पंखे की ढिबरी खुलवा दी तो…. पता नहीं है साबजी, अम्मा जी पर जिन्नातों ने कैसे पंखा गिरा दिया था. बेचारी करवट न लेतीं तो उसी रात कांजी हौज़ के कब्रिस्तान में पहुंचकर अब्बा जी की बगल में जा सोतीं. सब जानती हैं वह. सईदा बी पर भी तो जिन थे. रात भर उनके साथ सोते थे. क़सम से मियाँ जी, मेरे को बोला था उनिन ने, सच बोलूं मियाँ, राज़ की बात है. लात नई मरना, उनसे तो मेरा भी फिफ्टी परसेंट इसक हो गया था मियाँ जी. बाजी आपा को समझना आसान नहीं है मियाँ जी. सारे सोते हैं, वह नोट टटोलती हैं….. आग दहकाऊँ मियाँ ?”
“दहका तो रहा है कम्बख्त. और कितना दहकायेगा? चल रहने दे. मुझे भी नहा -धोकर कचेहरी निकलना है. दफ्तर में लाईफ़-सर्टिफिकेट जमा करने जाना है.”
“वो क्या होवे है मियाँ जी?” “तू, अब पाँव छोड़, मेरी बात तेरी समझ में नहीं आएगी. अच्छा! सच बता क्या सचमुच ख्वाब में तूने जो देखा था, वह सब…..?”
“मतलब….आपके यह मियाँ मुचाक्की झूठ बोल रहे हैं मालिक? ये टूटा हुआ दायां हाथ देख रहे हो? पुलिस ने इसे कभी थाने में पीट-पीटकर झुला दिया था. अगर मैंने दरोगा की बात तब मान ली होती तो घंटाघर के इलाक़े के हलवाई की दुकान की जगह तहसील से लगी मेरी दुकान होती. पर नहीं, आप ने तो कभी मेरी मदद की नहीं मियाँ. पुलिस से छुड़वा के भी नहीं लाये. अब आप ही बताओ मालिक, मैं वकील सत्तार पर झूठा आरोप कैसे लगा सकता था कि उनके हियाँ हथियार लेकर 5 पाकिस्तानी आतंकवादी आये थे और हबीब चेयरमैन पर वकील सत्तार ने गोलियां दागी थीं. झूठ था न सब. हाथ तुड़वा दिया पर झूठ नहीं बोला. इसलिए कि मियाँ मुचक्की अब्बा जी की बात कभी नहीं भूलते कि घड़े में जब तक पानी गले-गले तक रहवेगा, उसके पानी की अवक़ात बनी रहेगी. जब गले से पानी ऊपर चढ़ेगा तो घड़ौंची भीग जाएगी और कीचड़ से दूसरे घड़े भी गंदे हो जायेंगे. बस! यही अपना सच था और आज भी है मियाँ।” “यानि, तेरे हिसाब से जो तू कह रहा है, वह सच है. तेरे पीर के हिसाब से मेरा, मेरे भाई से झगड़ा ऐवेंई नहीं हुआ था, अल्लाह की मर्ज़ी से हुआ था ?” “खटाक! सोला आने! देखो मियां जी!” मियाँ मुचक्की कपडे झाड़ते हुए दरवाज़े के बीच जा खड़े हुए थे. कुछ यादकर मियाँ मुचक्की बुज़ुर्गों जैसी भाव-भंगिमा में आ गए थे. “कितनी अजीब बात है मियाँ जी, जब अब्बा जी मरे थे, तब भी आप उनके पास नहीं थे. नहीं थे न? वह मरे तो मंझले भैया के हाथों पर. अम्मी जी मरीं तो अस्पताल में, वो भी उनके हाथों पर. अब बारी आपकी है. अब अल्ला कैसे चाहेगा कि मंझले भैया फिर इस घर में आएं और आप उनसे लड़ें. वह अब नहीं आएंगे. यह तो मैं भी जान गया हूँ. तभी तो पीर जी ने सपने में आकर बोल दिया कि तेरा गुनहगार मालिक जब मरेगा तो वहां कोई नहीं होगा.”
” ऐसा बोला वो स्स्स्साला, यज़ीद, मादरचोद? सामने होता तो…..” “मिया जी, मेरे पीर जी को गाली काय को देते हो. मेरे को दे दो. आप गालियां बहुत देते हो. अब्बा और अम्माँ जी को भी बहुत देते थे. बुरा लगता होगा उन्हें. बूढ़े थे बेचारे. कुत्ते को भी दुत्कारो तो वह बेइज्जती महसूस करता है. मियाँ! पैसे ने कभी किसी को इज्जत नहीं दी. पीठ पीछे आपको भी लोग अच्छा नहीं समझते हैं. बहू-बेटियां भी नहीं. पैसा देने पर रोक लगाकर दिखा दो सेठ जी, तब मैं आप से बात करेगा.”
“हाँ! सही कहता है तू. यह ज़माना ही बहुत बुरा है मुचक्की. कितना ही किसी के साथ कर लो, कोई फायदा-अहसान नहीं…… अज़ीज़ों पर पानी की तरह पैसा लुटाता था. पर अब वो सब कहाँ हैं. बेकार, बेरोज़गार बाप से मुझे नफरत इसलिए थी कि उन्होंने मेरी माँ को बच्चे पैदा करने की मशीन बना दिया था. उस बड़े टब्बर और उसे पालने की ज़िम्मेदारी मेरे सर मढ़ी जा रही थी. यही कमज़ोरी थी मुझमें? इमोशनल ब्लैकमेलिंग का शिकार बनाकर मेरी बेमेल शादी करदी मेरे बाप ने. क्या किसी अच्छे घराने में मेरी शादी नहीं कर सकते थे? जिससे किया, उसने मुझे अपने रिश्तों की कोठरी में क़ैदकर मेरे अपनों से इतना दूर कर दिया कि मैं अँधेरे का ही आदी हो गया था मुचक्की। मुझे तब न बेटे के कराहने की आवाज़ें सुनाई दीं, न बच्चियों की किलकारियों की आवाज़ें. बस, कानों के पास से गुज़रती आवाज़ों में जो तड़प और फड़फड़ाहट सुनाई देती थी, वो थी नोट गिनने और उन्हें हवा में उछालते रहने की. कब बेटा बड़ा हो गया, कब वह मुझसे दूर हो गया, पता ही नहीं चला…..”
वे क्षण शायद बहुत भावुक होने के क़रीब पहुँच गये थे. “शायद वक़्त भी मुझे माफ़ न करे. वक़्त ने मुझे और मेरी नई नस्ल को भी बर्बाद कर दिया. शायद तेरा ख्वाब मुझे आईना दिखाना चाहता है, क्योंकि मैं खुद भी अपने साथ कभी इंसाफ नहीं कर पाया. शायद तेरे ख्वाब की ताबीर में यही हो कि ……..”
“मियाँ….मियां…मियाँ.. अरे कोई है? कोई है? अरे….अरे…सब कहाँ गए सब?”
मियाँ मुचक्की को छत पर चढ़कर पता चला कि बुरे बखत में पडोस के नईम अंसारी जैसे जानकर भी हाथ नहीं आते हैं. बुलंद आवाज़ बग़ल के खेतों में व्यस्त ट्रैक्टरों के शोर में दबती चली जाती है. नीचे सीढ़ियां तय कर मियाँ मुचक्की अपने मालिक के पास पहुंचकर बदन को झिंझोड़ता है,’मियां..मियां।” जब कोई जवाब नहीं मिलता है तो वह मियाँ के ही फोन से एक दूसरे ख़ास पड़ोसी डॉ अहसान की कोठी में फोन करता है. इसी आपाधापी के बीच काम निबटाकर गुड्डी यानि कामवाली बाई घर में प्रवेश करती है. मियाँ मुचक्की उसकी ओर दौड़ पड़ता है, पूछता है,’बीबी…बीबी कहां है? तू आकर देख, देख…, मालिक का मुंह टेढ़ा हो गया है. वह बोल भी नहीं पा रहे हैं. डाकटर जी को फोन किया लेकिन…”
बाई का जवाब था, ‘बीबी तो बिटिया के साथ बैंक गयीं हैं. साहब की पेंशन आ गई है न.. कह गयीं थी, मुचक्की घर में है, काम कर जाना. साहब को कचेहरी भी जाना है….अब?”
डॉ रंजन ज़ैदी