कंबोडिया के पूर्व नरेश ‘प्रिय करुण पाद समदेव प्रिय नरोत्तम सिंहानुक’ की 89 साल की आयु में चीन की राजधानी बीजिंग मृत्यु हो गई। उनके निजी सहायक के अनुसार उनकी मौत सोमवार, 15 अक्टूबर 2012 की सुबह दिल के दौरे की वजह से हुई। नरोत्तम सिंहानुक को कम्बोडिया में प्रिय महाविरक्षत (सबकी रक्षा करनेवाला) के रूप में भी जाना जाता है।
कंबोडिया जिसे पहले कंपूचिया के नाम से जाना जाता था दक्षिण पूर्व एशिया का एक प्रमुख देश है जिसकी आबादी डेढ़ करोड़ है। नामपेन्ह इस राजतंत्रीय देश का सबसे बड़ा शहर एवं इसकी राजधानी है। कंबोडिया का आविर्भाव एक समय बहुत शक्तिशाली रहे हिंदू एवं बौद्ध खमेर साम्राज्य से हुआ जिसने ग्यारहवीं से चौदहवीं सदी के बीच पूरे हिन्दचीन क्षेत्र पर शासन किया था। कंबोडिया की सीमाएँ पश्चिम एवं पश्चिमोत्तर में थाईलैंड, पूर्व एवं उत्तरपूर्व में लाओस तथा वियतनाम एवं दक्षिण में थाईलैंड की खाड़ी से लगती हैं। मेकोंग यहाँ की बहने वाली प्रमुख नदी है। एक तरह से हिन्दू राष्ट्र होने की वजह से मेकोंग नदी को यहाँ गंगा के ही समतुल्य पवित्र नदी माना जाता है।
वर्तमान कम्बोडिया को जानने केलिए आवश्यक है कि पहले उसके इतिहास को जाना जाये, इंडोचीन प्रायद्वीप में सर्वप्राचीन लघु भारत की स्थापना फूनान प्रदेश में प्रथम शती के लगभग हुई थी। लगभग 600 वर्षों तक फूनान ने इस प्रदेश में हिंदू संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार करने में महत्वपूर्ण योग दिया। तत्पश्चात्इस क्षेत्र में कंबुज या कंबोज का महान्राज्य स्थापित हुआ जिसकी गौरवपूर्ण परंपरा 14वीं सदी तक चलती रही। कंबुज या कंबोज, कंबोडिया का प्राचीन संस्कृत नाम है। कंबोज की नींव ‘आर्यदेश’ के राजा कंबु स्वयांभुव ने डाली थी। वह भगवान्शिव की प्रेरणा से कंबोज देश में आए और यहाँ बसी हुई नाग जाति के राजा की कन्या ‘मेरा’ से विवाह कर लिया और कंबुज राजवंश की नींव डाली।
प्रथम ऐतिहासिक कंबुज राजवंश का संस्थापक श्रुतवर्मन था जिसने कंबोज देश को फूनान की अधीनता से मुक्त किया। इसके पुत्र श्रेष्ठवर्मन ने अपने नाम पर श्रेष्ठपुर नामक राजधानी बसाई जिसके खंडहर लाओस के वाटफू पहाड़ी (लिंगपर्वत) के पास स्थित हैं। तत्पश्चात्भववर्मन ने, जिसका संबंध फूनान और कंबोज दोनों ही राजवंशों से था, एक नया वंश (ख्मेर) चलाया महेंद्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात्उनका पुत्र ईशानवर्मन गद्दी पर बैठा। इस प्रतापी राजा ने कंबोज राज्य की सीमाओं का दूर-दूर तक विस्तार किया। उसने भारत के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए और ईशानपुर नाम की एक नई राजधानी का निर्माण किया। ईशानवर्मन के बाद भववर्मन्द्वितीय और जयवर्मन्प्रथम कंबोज नरेशों के नाम मिलते हैं। जयवर्मन्के पश्चात्674 में इस राजवंश का अंत हो गया।
9वीं सदी का आरंभ होते ही प्राचीन कंबोज साम्राज्य की शक्ति मानों पुन: जीवित हो उठी। इसका श्रेय जयवर्मन्द्वितीय (802-854 ई।) को जाता है। उसने अंगकोर वंश की नींव डाली और कंबोज को जावा की अधीनता से मुक्त किया। उपलब्ध इतिहास के अनुसार उसने भारत से हिरण्यदास नामक ब्राह्मण को बुलवाकर अपने राज्य की सुरक्षा केलिए व्यवस्थाएं करवाईं। इस विद्वान्ने देवराज नामक संप्रदाय की स्थापना की जो शीघ्र ही कंबोज का राजधर्म बन गया।
जयवर्मन्द्वितीय को अपने समय में कंबुजराजेंद्र और उसकी महारानी को कंबुजराजलक्ष्मी नाम से अभिहीत किया जाता था। इसी समय से कंबोडिया के प्राचीन नाम कंबुज या कंबोज का विदेशी लेखकों ने भी प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था।
यशोवर्मन्ने कंबुपुरी या यशोधरपुर नाम की नई राजधानी बसाई। धर्म और संस्कृति का विशाल केंद्र अंग्कोर थोम भी इसी नगरी की शोभा बढ़ाता था। ‘अंग्कोर संस्कृति’ का स्वर्णकाल इसी समय से ही प्रांरभ होता है। वर्ष 944 में कंबोज का राजा राजेंद्रवर्मन्था जिसके समय के कई बृहद् अभिलेख सुंदर संस्कृत काव्यशैली में लिखे मिलते हैं। वर्ष 1001 तक का समय कंबोज के इतिहास में महत्वपूर्ण है क्योंकि इस काल में कंबोज की सीमाएँ चीन के दक्षिणी भाग छूती थीं, लाओस उसके अंतर्गत था और उसका राजनीतिक प्रभाव स्याम (थाईलैंड) और उत्तरी मलाया तक फैला हुआ था।
सूर्यवर्मन्प्रथम (मृत्यु 1049) ने प्राय: समस्त स्याम पर कंबोज का आधिपत्य स्थापित कर दिया और दक्षिण ब्रह्मदेश पर भी आक्रमण किया। वह साहित्य, न्याय और व्याकरण का पंडित था तथा स्वयं बौद्ध होते हुए भी शैव और वैष्णव धर्मों का प्रेमी और संरक्षक था। उसने गृहयुद्ध को समाप्त कर राज्य की स्थिति को पुन: सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया।
जयवर्मन्सप्तम (1181) के राज्यकाल में पुन: कंबोज की यश:पताका फहराने लगी। जयवर्मन्सप्तम की गणना कंबोज के महान्राज्यनिर्माताओं में की जाती है क्योंक उसमे समय में कंबोज के साम्राज्य का विस्तार अपनी चरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। जयवर्मन्सप्तम ने अपनी नई राजधानी वर्तमान अंग्कोरथोम में बनाई थी। इसके खंडहर आज भी संसार के प्रसिद्ध प्राचीन अवशेषों में गिने जाते हैं। नगर के चतुर्दिक्एक ऊँचा परकोटा था और 110 गज चौड़ी एक परिखा थी। इसकी लंबाई साढ़े आठ मील के लगभग थी। नगर के परकोटे के पाँच सिंहद्वार थे जिनसे पाँच विशाल राजपथ (100 फुट चौड़े, 1 मील लंबे) नगर के अंदर जाते थे। ये राजपथ, बेयोन के विराट् हिंदू मंदिर के पास मिलते थे, जो नगर के मध्य में स्थित था। मंदिर में 66,625 व्यक्ति नियुक्त थे और इसके व्यय के लिए 3,400 ग्रामों की आय लगी हुई थी। इस समय के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि कंबोज में 789 मंदिर तथा 102 चिकित्सालय थे और 121 वाहनी (विश्राम) गृह थे।
1854 में कंबोज के निर्बल राजा अंकडुओंग ने अपना देश फ्रांसीसियों के हाथों सौंप दिया। नरोत्तम प्रथम (1858-1904) ने 1863 में इस समझौते को पक्का कर दिया और अगले 80 वर्षों तक कंबोज या कंबोडिया फ्रेंच-इंडोचीन का एक भाग बना रहा।
नरोत्तम सिंहानुक (‘सिंहानुक’ संस्कृत शब्द है जो सिंह और हनुक दो शब्दों से मिलकर बना है, हनुक का अर्थ जबड़ा होता है।) भारत के बहुत बड़े प्रशंसक थे। बात-बात में वे जवाहर लाल नेहरु को अपना परम मित्र कहा करते थे। यही कारण है कि स्वर्गीय नेहरु ने गुट निरपेक्ष आन्दोलन की नींव रखते हुए नरोत्तम को अपना प्रमुख सहयोगी बनाया था। नरोत्तम सिंहानुक गुट निरपेक्ष आन्दोलन के माध्यम से हिन्द-चीन स्थित अपने देश को अमरीका और रूस के मध्य जारी शीत युद्ध से बचाए रखना चाहते थे, हालाँकि दुर्भाग्य से ऐसा संभव नहीं हो सका।
कम्बोडियाई नरेश, नरोत्तम सुरामृत और रानी शाश्वती कोस्सामक से उत्पन्न नरोत्तम सिंहानुक का जन्म 22 अक्टूबर 1922 में हुआ था, वे अपने पिता की सबसे बड़ी संतान थे। उनकी शिक्षा सैगोन और पेरिस में हुई थी। कम्बोडिया स्वतंत्रता से पूर्व एक फ्रांसीसी उपनिवेश था, उन्नीस सौ चालीस के दशक की तत्कालीन फ्रांस सरकार को लगा था कि उन्हें आसानी से क़ब्ज़े में रखा जा सकता है इसलिए उनके पिता की जगह उन्हें महज़ 18 साल की उम्र में गद्दी पर बैठा दिया गया।
लेकिन सत्ता संभालने के बाद सिंहानुक ने फ्रांस से आज़ादी के लिए विश्वव्यापी मुहिम शुरू कर दी जिसके नतीजे के तौर पर सौ सालों की ग़ुलामी के बाद इस एशियाई देश को स्वतंत्रता हासिल हुई।
उनकी पहली भारत यात्रा वर्ष 1956 में हुई थी। वायु यान से उतरते ही उन्होंने कहा था कि ‘यहाँ आकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। मुझे नेहरु जी से मिलने का एक और सौभाग्य प्राप्त होगा जिनका मैं प्रशंसक हूँ और जिन्हें मैं अपना परम मित्र मानता हूँ।’
नरोत्तम सिंहानुक की दूसरी भारत यात्रा वर्ष 1963 में भारत-चीन युद्ध के तत्काल बाद हुई। इस यात्रा के दौरान भी उन्होंने नेहरु के साथ अपनी मित्रता की बात दोहराई।
नेहरु जी के निधन के बाद इंदिरा गाँधी काल में गुट निरपेक्ष आन्दोलन का संस्थापक होने के बावजूद भारत रूस की परिधि में चला गया जबकि अपनी राष्ट्रीय समस्याओं के चलते नरोत्तम सिंहानुक अमरीका के साथ होलिये। नरोत्तम कम्बोडिया में भयानक खूनी संघर्ष के दौर में भी नाम मात्र के नरेश बने रहे। कम्बोडिया की सत्ता पर पोल पॉट की खमेर रूज के काबिज़ होने के समय नरोत्तम ने खमेर शासकों का साथ दिया, जबकि भारत ने कम्बोडिया से खमेर रूज के सफाए में विएतनाम को मदद का हाथ बढ़ाया। इसी के साथ दोनों देशों के बीच सम्बन्ध विच्छेद की स्थिति का जन्म होगया। कहा जाता है कि खमेर रूज के शासन के दौरान पोल पॉट शासकों ने लगभग पच्चीस लाख कम्बोडियाई नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया था। मारे जाने वाले में नरोत्तम के बच्चे भी शामिल थे।
हालाँकि नरोत्तम ने नृशंस खमेर रूज सरकार का समर्थन किया था किन्तु किन्ही कारणों के चलते खमेर शासक ही नरोत्तम के विरुद्ध होगये जिसके कारण से उन्हें घर में ही नज़रबंद कर दिया गया था। समाचारों के अनुसार खमेर शासक उनकी हत्या करने पर सहमत होगये थे किन्तु चीनी नेता चाऊएनलाइ की मध्यस्थता के चलते उन्हें रिहा कर दिया गया था। जब संयुक्त राष्ट्र की देख-रेख में वियतनाम कंबोडिया से वापस हुआ तो सिंहानुक राजा के तौर कंबोडिया वापस आ गए जिसके बाद उन्होंने कंबोडिया के विभिन्न राजनीतिक ताक़तों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई।
बहुविवाहित नरोत्तम सिंहानुक की दो पत्नियों के विषय में जानकारी मिलती है जिनसे उन्हें 14 संतानें प्राप्त हुईं। हालांकि कुछ लोग उन्हें निरंकुश और ग़ुस्सैल बताते थे किन्तु, कंबोडिया की जनता में उनका बहुत आदर था और लोग उन्हें पिता-तुल्य समझते थे। नरोत्तम सिंहानुक बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे संगीतकार थे, कविता और गीत लिखते थे, फिल्म निर्माता थे। उनके निधन से कम्बोडिया ने एक ऐसे राष्ट्रवादी व्यक्तित्व को खो दिया है जिसकी पूरे विश्व में पहचान थी।
सुधेन्दु ओझा (7701960982)
(प्रकाशन : डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, लखनऊ)