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उफ़! ये हाड़ तोड़ ठण्डी, लगता है अब और जिंदा नही रहने देगी। अँगीठी की ठण्ड होती राख को कुरेदता हुआ गोकुल बीड़ी जलाने की कोशिश करता है, लेकिन गर्म राख से बीड़ी गर्म होकर काली तो हो गयी लेकिन पीने के हिसाब से सुलगी नहीं। वह अपने में ही बड़बड़ाता हुआ सथरी में घुसकर लम्बा हो जाता है। भीतर और बाहर धुप्प अँधेरा फैला है। गाँव की बिजली काट दी गई है, आखिर सरकार भी क्या करे तो क्या करे, कहाँ तक मुफ्त की बिजली दे। जब तक बिजली रहती है, तब तक बल्ब जलते ही रहते हैं, चाहे दिन हो या रात हो। इन्हें बुझाना आता ही नहीं। ये गाँव वाले भी कम अन्यायी नहीं हैं, इन्हें सब कुछ मुफ्त का चाहिए….पानी, बिजली, अनाज सब। इनकी गाँठ से कुछ न जाये। इन्हें कुछ करना भी न पड़े, मुफ्त में सब कुछ मिलता रहे, इनके घर पहुँचता रहे, तब तक सब ठीक है, वरना कुछ ठीक नहीं। पानी पी-पीकर सरकार को कोसेंगे, गरिआयेगें– “काम चोर, निकम्मे कहीँ के।”
आँगन से मद्धिम जल रही चिमनी की मरियल पीली रौशनी छनकर बाहर को आ रही थी। बर्तनों के खनकने की आवाज सुनकर गोकुल आश्वस्त हुआ कि चलो अभी घर की औरतें खाना खा रही हैं। ज्यादा रात नहीं हुई है। बिजली न होने से एक तरह से अच्छा ही हुआ है। साले गाँव भर के लौंडे-लपाड़ी देर तक टीवी में आँख गड़ाये हा-हा-हू-हू करते रहते थे। शुकून से दो पल बैठना-उठना भी मुश्किल किये रहे। अब किसी का रता-पता नही। कम से कम घर-गांव में शांति तो है।
गोकुल दीवाल के सहारे खिड़की तक जाता है, जहाँ से आँगन साफ दिख रहा था। दोनों बहुएं आँगन में चूल्हे पर लकड़ी जलाये रोटी खाती हुई साफ दिख रहीँ थी, वह बहू को आवाज देकर बोला..
“अरे छोटी, बीड़ी नही जल रही है। छोटू से एक चिंगार भिजवा दे।”
“छोटू सो गया लगता है। खाना खा लें फिर हमी लेकर आते है।” छोटी बहू आँगन से बोली।
गोकुल पुनः दीवाल के सहारे बिस्तर में आ गया। वह पुनः बड़बड़ाने लगता है…”ये औरतें भी गजब करती हैं, कहती है पहले खाना खाने दो, फिर बीड़ी लेसना ..हुँह.. क्या जानें ये, तलब क्या चीज होती है? बीड़ी तो पीती नही बेचारी.. कैसे जाने?”
वैसे देखा जाये तो छोटी करे भी तो कितना करे, जब से भोर का उजाला होता है, तब से खटती रहती है। घर का खाना-पीना, साफ-सफाई, गोबर कंडा, सब यही तो करती है। बड़ी बहू तो अभी चार दिन के लिए घर आई है। उसे कहाँ गाँव में रहने की फुर्सत? बच्चे शहर के स्कूल में पढ़ते है। मै भी अब किसी काम लायक रहा नही, कि कुछ मदद हो सके। शरीर जर्जर हो चला है,
वैसे घर में खाने पीने की कोई तकलीफ नही है। मेरी पेंशन से तीन लोगो का गुजारा अच्छे से हो जाता है, लेकिन जब से सुखेन्द की मौत हुई है, बिलकुल भीतर से टूट गया हूँ, घर में बैठी जवान बहू की पीड़ा मुझसे नहीँ देखी जाती।
मेरा जवान लड़का सुखेन्द दुर्घटना से नही मरा है, वल्कि सोची-समझी चाल से मारा गया है। नहर में गिरने से वह कैसे मर सकता है? उसे तैरना आता था और फिर कोई चप्पल और साइकिल छोड़कर उफनती नहर में क्यों कूदेगा? पर वाह रे! पुलिस, खा-पीकर हत्या को आत्महत्या बना दिया। मुझे एक-एक का नाम ठिकाना मालुम है। जी होता है, रात में सोये-परे उनके घरों में जाकर आग लगा दूँ। सब भीतर ही भुन जाएं साले। लेकिन नहीं, अपनी बहू और नाती का मुँह देखकर रह जाता हूँ, अगर मुझे कुछ हो गया तो ये बेचारे किसके सहारे रहेंगे। नहीं..नहीं ऐसा कुछ नहीं करूँगा, जिससे इन लोगों को कष्ट हो। उन हत्यारों को अब भगवान सजा देगा। जो जैसा करता है, उसे वैसा जरूर भुगतना पड़ता है। मैं भी तो पूर्व जन्म में किये पाप की सजा भुगत रहा हूँ। तभी ओसारी में सरसराहट की आवाज आती है, उस आवाज को पहचानकर गोकुल बोला…
“आ गये झब्बू लाल! भई बहुत देर कर दी।”
“कूँ कूँ कूँ कूँ”……जैसे कह रहा हो, हाँ! मालिक आ गया।”
“भई ठण्ड ज्यादा है, अपना बिस्तर टटोल कर बैठ ले, अभी छोटी मालकिन आयेगी, तुम्हें रोटी मिलेगी और मेरी बीडी जलेगी। तुम आराम से रोटी खाना और मै बीड़ी पियूँगा।” हा हा हा हा…..मज़ा आयेगा।
देख भाई झब्बू, .तू बोलता नहीं है, लेकिन तेरी हरकतों से मैं सब बात समझ लेता हूँ।”
“अच्छा बता, गाँव में आज कोई खास बात हुई?”
(कुत्ते की पंजा पटकने की आवाज)
“न भई न, इतना गुस्सा उचित नहीं, जो हो रहा है, होने दे। बस चुपचाप देखता चल, सब मरेंगे साले, मेरे कलेजे की आग उनकी चिता की आग के साथ ही ठंडी होगी।”
“कें कें कें कें…..।”
“नहीं, नहीं, नहीं, झब्बू! मै तुम्हारी पीड़ा समझता हूँ, भाई! पर बहुत लाचार हूँ, कुछ भी हो, तुम बहुत बुद्धिमान हो, लेकिन दुनिया की नज़र में एक मामूली कुत्ता से ज्यादा कुछ नही हो, वो भी गोकुल नाम के असहाय, बूढे, लाचार, रिटायर पोस्टमैन का। मालिक की हैसियत से कुत्ते की हैसियत बनती है। कलेक्टर का कुत्ता भी कलेक्टर होता है। इसलिए अपनी पोजीशन समझ कर दिमाग से काम लो।”
यह गोकुल पोस्ट-मैन, जीवन गुजार दिया दूसरों की चिट्टी घर-घर पँहुचाते हुये। लेकिन खुद के नाम की चिट्टी उसे कभी नहीं मिली, जिसे वो बांच कर कलेजे से लगा सके। एक बार उसे मजाक सूझा था–“क्यूँ न एक लव लेटर खुद अपने नाम पते पर लिख कर लाल डिब्बे के मुँह में डाल आये। जब चिट्टी मिलेगी तो वह पूरे स्टाफ को पढ़कर सुनायेगा। लेकिन यह मजाक, निरा मजाक बनकर रह गया, जब एक दिन उसकी पत्नी, उसका मुकद्दर उसे छोड़कर चल बसा था। तबसे वह बहुत गम्भीर रहने लगा था। उस पर छोटे बेटे की रहस्यमयी मौत ने तो उसे निर्जीव बना दिया। अब एक ही उसका साथी है, कुत्ता झब्बू। जिससे गोकुल हँसता बोलता है, मजाक भी कर लेता है।
कुत्ता कूँ.कूँ करता हुआ पंजा पटकने लगा था।
“भाई तुम्हारी केटेगरी उस लेबल की नही है, जो कुत्ते मोटर में चलते हैं, सुबह शाम मॉर्निंग वॉक करते हैं। जमीन में पड़ा-सड़ा गोबर सूँघकर चोर पकड़ने का दावा उनके मालिकान करते हैं।”
“के हें एं…..।” इस बार झब्बू थोड़ी जोर से बोला।
ठीक है, ठीक है, तुम्हें बुरा लगता है, तो चलो माफ़ी मांगें लेता हूँ। परन्तु तुम भी मेरी तरह वक्त का इंतज़ार करो। समय के साथ सब कुछ साफ होता जायेगा। एक न एक दिन पूरा गाँव जान जायेगा–“यही हैं, मेरे बेटे के हत्यारे, यही हैं, सुखेन्द को मार कर उफनती नहर में फेंकने वाले।”
ढिबरी की लाल-पीली रौशनी धीरे-धीरे ओसारी की तरफ आती प्रतीत हुई। शायद बहुएं झब्बू के लिये रोटी लेकर आ रहीँ थी। हाँ वही दोनों थीं।नज़दीक आकर छोटी ने कहा….”बाबा! आप झब्बू से क्या-क्या बोल जाते हैं, ये बेचारा क्या समझे?”
“कूँ कूँ कूँ !!”
“अब देखो न तुम्हारी बात से यह सहमत नही है। ये सब समझता है।
ये बेचारा भी नही है..शेर है शेर। मौका आने पर इनकी ताकत देख लेना।”
झब्बू अपना दाया पंजा जमीन में पटककर पूँछ को जमीन में झाड़ू की तरह घसीट देता है..जैसे कह रहा हो…
“पंजा मारूँ जमीन में पानी निकाल लूँ।
बड़े-बड़े बहादुरों को मिट्टी में मिला दूँ।”
“लीजिये रोटी स्वीकार कीजिये, झब्बू जी।” बड़ी बहू रोटी की प्लेट झब्बूलाल के सामने रखते हुये बोली।
लेकिन ये क्या?…झब्बू रोटी की ओर देखा तक नहीं।
“देरी के लिए माफी चाहती हूँ।” बड़ी बहू हँसकर बोली।
“नहीं-नहीं! नाराज़गी की बात नही है, दरअसल हम दोनों के बीच तय हुआ है कि जब ये रोटी खायेंगे, तब मैं बीड़ी पियूँगा। तुम चिंगर लेकर नही आयी हो इसलिये ये रोटी नहीँ खा रहे है।”
छोटी दौड़कर चूल्हे की आग से बीड़ी जला लाई। गोकुल बीड़ी पीने लगा और वायदे के अनुसार झब्बूलाल भी रोटी खाने लग गये।
“आप भीतर के कमरों में क्यों नही सोते बाबा? यहाँ तो दरबाजा भी नही लगा है, कोई भी रात में घुसकर नुकसान पहुँचा सकता है, वैसे भी गाँव का माहौल पहले वाला अब नहीँ रहा।” बड़ी बहू ने कहा।
“बहू, तुम्हारी सास के निधन के बाद से मै इसी जगह में सो रहा हूँ, दूसरी जगह नींद नही आ सकती, और डरने की कोई बात नही है, हम अकेले थोड़ी हैं। हम दो लोग हैं।”
“दो लोग? और कौन?? बड़ी बहू आश्चर्य से बोली।
“अरे ये झब्बू लाल ये भी तो रात यहीं पर सोते हैं। इनके रहते डर कैसा?” दूसरी बात.. “मै इनके बिना नही रह सकता और ये मेरे बिना नहीँ रह सकते। ठीक कह रहा हूँ न, झब्बूलाल।”
झब्बू ने जमीन पर दो बार पूँछ पटक कर गोकुल की बात का समर्थन कर दिया।
***
इसी तरह से समय का पहिया अपनी गति से घूम रहा था। दिन, हफ्ते, माह गुजर रहे थे लेकिन गोकुल और झब्बू के लिए वक्त का बदलाव कोई मायने नही रखता था। वे दोनों मित्र बगैर नागा किये रात को साथ बैठते, आपस में बात करते और खा पीकर सो जाते। झब्बू का बिस्तर गोकुल के बिस्तर से थोड़ा हटकर द्वार के पास लगा था। झब्बू पहले गोकुल के नज़दीक ही बैठता, फिर जब नींद आने लगती थी। तब वह अपने बिस्तर में चला जाता था। दोनों पंजे आगे की ओर फैलाकर बीच में थूथन फँसा कर— लेटने की अदा को क्या कहने। बीच-बीच में कान को टेढ़ा कर बाहर की टोह लेने की उनकी आदत बॉर्डर में तैनात प्रहरी से मिलती जुलती होती थी।
एक रात की बात है, झब्बू जल्दी-जल्दी बाहर जाकर भोंक आता फिर भीतर आकर अपने बिस्तर में बैठ जाता। गोकुल को कुछ अटपटा सा लगा। इस तरह तो पहले कभी नही करता था। आखिर उससे नही रहा गया और उसने पूँछ लिया…”क्या बात है? कुछ परेशान हो झब्बू??”
जवाब में वह कूँ कूँ की ध्वनि मुँह से निकाल दिया जैसा आश्वस्त किया हो चिंता की कोई बात नही है, मालिक।”
फिर गोकुल की आँख लग गयी, अचानक बाहर बहुत जोर-जोर से झब्बू के भूँकने के साथ साथ किसी के चीखने-चिल्लाने की आवाज आई..
“हाय! मर गये…काट खाया।” फिर जोर से झब्बू के चिल्लाने का शोर हुआ जैसे किसी ने उस पर हमला किया हो।
चिल्लाहट का शोर इतना भयानक और तेज था कि पड़ोस के लोग भी जाग गये। छोटी बहू ढिबरी लेकर बाहर आ गई, पास पड़ोस के लोग भी हाथ में लालटेन टार्च लेकर पहुँच गये। बाहर का दृश्य बहुत ही बीभत्स था किसी ने झब्बू की गर्दन, पेट और पीठ पर किसी धारदार हथियार से प्रहार किये थे। वह जमीन में पड़ा तड़फ रहा था। गोकुल आगे बढ़कर कुत्ते से लिपटकर रोने लगा, तभी छटपटाते हुये कुत्ते में कहाँ से जान आ गयी की वह अज़ीब सी
आवाज निकालता हुआ गोकुल की गोद में शांत हो गया।
झब्बू से सदैव बात करने वाला गोकुल आज उसकी बोली समझ नही पाया था। आखिर में झब्बू क्या कहना चाहता था। लेकिन सुबह होते ही बात साफ हो गयी। झब्बू ने रात को रामजीत और दरोगा नाम के दो लोगो को काटा था। इन्ही लोगो ने उसे मारा होगा। थाने में रिपोर्ट लिखाने गोकुल गया था, लेकिन सिपाही ने यह कह कर भगा दिया था….
“अबे चल हट, कुत्ता ही तो मरा है, तेरा बाप तो नहीं। यहाँ रोज आदमी मर रहे हैं, कुछ खोज-खबर नही होती। और तू चला आया कुत्ते की रपट लिखाने….देख भाई! तुम्हारा कुत्ता दो लोगो को काट खाया है, यदि उनकी तरफ से रिपोर्ट आयी, तो तुम अंदर हो जाओगे। तुम यहाँ से फूट लो। कोई पूछे तो कह देना ..मेरा पालतू कुत्ता नही था। नहीं तो, उलटे तुम फँस जाओगे। तुम गरीब आदमी लगते हो, इसलिए सब साफ-साफ बता दिया हूँ।”
गोकुल उस दिन से बहुत उदास रहने लगा। उठना-बैठना, बोलना, बहुत कम कर दिया था। वह अब छोटी से बीड़ी जलाने को नही कहता था। कोई जला कर दे दे, तो अच्छा…न भी दे, तो भी अच्छा। एक दिन छोटी बीड़ी जलाकर गोकुल को दे आई थी लेकिन गोकुल बीड़ी को एक किनारे रखकर बोला…..”छोटी! अब बीड़ी पीने का मन नही होता, मत दिया कर।”
“क्यों बाबा ??”
गोकुल इस बात का जबाब न देते हुये बोला.. “जानती है, छोटी! झब्बू ने जिन दोनों को काटा है, यही दोनों सुखेन्द के हत्यारे हैं।”
“ये कैसे कह सकते हैं? बाबा!”
“मुझे अब पक्का यकीन हो गया है। झब्बू ने जान-बूझकर इनको
काटा है। उस रात लगता है ये दोनों मुझे मारने आये थे। लेकिन झब्बू ने अपनी जान देकर मुझे बचा लिया। उसने नमक का कर्ज उतार दिया बेटा।”
एक दिन गांव में खबर फैली क़ि रामजीत और दरोगा दोनों पागल हो गये थे, जिन्हें झब्बू ने काटा था। वे कुत्ते की तरह भूंकने और रेंगते लगे हैं। खबर पक्की थी…दोनों को इलाज के लिए जिला अस्पताल ले जाया गया था। लेकिन उन्हें बचाया नहीँ जा सका, कुत्ते का जहर उनके रक्त में फैल चुका था। वे बच नही पाये, दो-चार दिन भर्ती रहने के बाद रात में दोनों की मौत हो गई।
गोकुल को जैसे ही दोनों के मरने की खबर मिली..वह बाहर से उठकर आँगन में चला आया और छोटी बहू को सुनाकर बोला.. ” सुन लो, छोटी! आज तेरे पति के हत्यारों को सज़ा मिल गई…वो मर गये। झब्बू के जहर से भला कौन डॉक्टर बचा सकता था। आज मैं बहुत खुश हूँ। झब्बू, मेरे भाई…तुम तो बड़े नमकहलाल निकले। मेरी जान बचाने के साथ-साथ बेटे के हत्यारों को भी सजा-ए-मौत दे दी। हे भगवान! मेरे झब्बू को जन्नत में जगह देना।” आसमान की ओर ताककर गोकुल बोला।
छोटी कुछ नहीँ बोली थी, गोकुल के सामने हमेशा जूड़े से टिका रहने वाला पल्लू आज नीचे सरक आया था। उसे ठीक करने की कोशिश भी उसने नहीँ की।
“एक बीड़ी दे न, जलाकर।” गोकुल ने कहा।
छोटी बीड़ी जलाकर गोकुल को दे गयी थी। उधर गाँव में मातम पसरा था।दो-दो जवान लोगों की मौत, कोई साधारण घटना नहीँ थी। इधर आँगन में बैठा हुआ गोकुल दीवाल से पीठ टिकाये हुये बीड़ी फूँक रहा था।
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