कवि-गीतकार नीरज किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। कवि सम्मेलनों की शान नीरज जी अपने गीत और व्यक्तित्व के चलते प्रशंसकों के हृदय पर राज करते रहे हैं।
नीरज जी आज हमारे बीच जीवंत स्वरूप में नहीं हैं किन्तु वे भारत की इस माटी के कण-कण में हैं। नीरज जी जनमानस की उत्फुल्लता के गीतकार थे।
लगभग डेढ़ दशक पूर्व, अलीगढ़ के लिए दिल्ली से, एक ही सप्ताह में यह मेरी दूसरी यात्रा थी। एक टेलेविजन चैनल के लिए डॉ. गोपालदास ‘नीरज’ जी से साक्षात्कार करना था। इस बार की यात्रा में यह निश्चिंतता थी कि नीरज जी से मुलाकात हो ही जाएगी। तीन दिन पूर्व ही अलीगढ़ पहुँचकर बैरंग वापिस हो जाना पड़ा था। नीरज जी किसी कार्यक्रम के सिलसिले में अलीगढ़ से बाहर गए हुए थे। घर पर कोई बतलाने वाला नहीं था कि वे कहाँ होंगे या कब वापिस आएंगे।
नीरज आज भी वैसे हैं जैसे, आज से बहुत पहले थे। फक्कड़।
सोलह-सत्रह वर्ष की अल्पायु में काव्य तथा गीत की धारा में उतरने वाला यह कवि-गीतकार आज भी यायावर है, घुमंतू है, शृंखलाविहीन, फक्कड़ भी। शायद यही कारण है कि आशा, जिजीविषा और उत्साह का अप्रतिम गीतकार है।
दिल्ली से अलीगढ़ की दूरी यों तो एक सौ तीस किलोमीटर के लगभग है, किन्तु सड़क की स्थिति तथा बीच-बीच में उसमें मरम्मत कार्य की वजह से ट्रैफिक व्यवधान के चलते हमें उनके घर तक पहुँचने में पूरे चार घंटे लग गए। नौकर ने घर का दरवाजा खोलते हुए पूछा कि क्या हम लोग दिल्ली से आ रहे हैं, जब उसे उत्तर हाँ में मिला तो बोला नीरज साहब आप सब का इंतज़ार कर रहे हैं।
अलीगढ़ रेलवे स्टेशन से मात्र डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित जनकपुरी कॉलोनी में निर्मित नए आवासों के बीच अब नीरज जी का निवास प्राचीनतम निर्माण लगता है। बाहर बैठका सदृश्य है। वृहत्त वृकोदर गणेश जी पोस्टर रूप में दीवार से चिपके हुए हैं। खुले हुए दरवाज़े से अंदर प्रविष्ट होते ही एक बड़ा सा हॉलनुमा कमरा है, दोहरे पलंग पर नीरज जी मय नए-पुराने दस्तावेज़ों, पत्र-पत्रिकाओं और ढेरों प्रशस्ति पत्र, यश-लेख, स्मारिकाओं, स्मृति चिह्न के साथ पसरे पड़े हैं। इन्हीं में से एक, भारत सरकार द्वारा प्रदत्त ‘पद्मश्री’ सम्मान भी है। सम्मान और और अभिलेखों से भरे इस कक्ष में केवल नीरज ही जीवंत हैं, उनका ही महत्व है।
किन्तु नीरज इन सम्मानों, पुरस्कारों, यश-आख्यानों में भरमाने वाला व्यक्तित्व नहीं है, यह सारी दुनिया जानती है। नीरज को वस्तु-स्थिति का ज्ञान है। तभी, अकस्मात ही वह कह उठता है :
‘निराकार! जब तुम्हें दिया आकार, स्वयं साकार हो गया
युग-युग से मैं बना रहा था मूर्ति तुम्हारी एक अलेखी
आज हुई पूरी तो मैंने शक्ल खड़ी अपनी ही देखी
लेकिन इस से भी बढ़ कर अपराध कर गई पूजन-वेला
तुम्हें सजाने चला फूल जो मेरा ही शृंगार हो गया
निराकार! जब तुम्हें दिया आकार, स्वयं साकार हो गया
जो भी नाम दिया तुमको वह मेरा ही परिचय बन बैठा
अर्घ्य चढ़ा जो भी तुम पर बन गया अश्रु मेरी आँखों का
जो भी तुम्हें देखने दौड़ा मुझे देख बलिहार हो गया…….
निराकार! जब तुम्हें दिया आकार, स्वयं साकार हो गया……’
नीरज जी से बात-चीत आरंभ हो गई थी। उनका जन्म 4 जनवरी, वर्ष 1925 में इटावा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। जब वे छः-सात वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहावसान हो गया। घर में गरीबी और विपन्नता का माहौल था। मजबूर हो कर उन्हें शिक्षा के लिए अपनी बुआ के घर, एटा में आना पड़ा।
नीरज जी का यह हॉलनुमा कक्ष उनकी तमाम यादों को समेटे और सुरक्षित रखे हुए है। सभी देवी-देवताओं, मान और प्रशस्तिपत्रों के ऊपर उनकी मातश्री का चित्र, दीवार पर विद्यमान है।
नीरज जी पलंग पर आराम से लेट गए। सफ़ेद बंडी और नीले रंग की लुंगी पहने। 22 नंबर बीड़ी का बंडल उन्हों ने अपने पास खिसका कर नौकर को आवाज़ लगाई।
‘अरे! आम काट कर लाओ। जल्दी। ये भी खाएं इस दशहरी आम को।‘ उन्हों ने बीड़ी का कश खींचते हुए कहा।
‘अभी जो बैठे हुए थे, वे यहाँ के एसडीएम साहब थे। एक्सपोर्ट क्वालिटी का दशहरी आम दे गए हैं। आप भी खाओ।‘ उन्हों ने बड़े आत्मीय लहजे से कहा।
यूं ही बातचीत को आगे बढ़ाने के लहजे में मैंने उनसे पूछ ही लिया कि गोपालदास सक्सेना, गोपालदास नीरज कब बना? शायद वे इसी तरह के प्रश्न की उम्मीद मुझ से कर रहे थे। छूटते ही बोले।
‘कविता तो जब मैं नवीं कक्षा में पढ़ता था तब से ही लिखने लगा था। बचपन में एक बार मैंने स्वर्गीय बलबीर सिंह ‘रंग’ जी कविता पाठ करते हुए सुना। तभी से मैंने मन में यह सोच लिया कि आगे चल कर मैं भी बलबीर सिंह ‘रंग’ की तरह ही कविता पाठ करूंगा। बस यही विचार या यूं कहें कि प्रेरणा मुझे लेखन से मंच की ओर ले आया।
ईश्वर की कृपा से मेरी आवाज़ अच्छी थी, मुझे बचपन में लोग कुन्दन लाल सहगल भी कहा करते थे। मैं गाता था तो लोग रुक जाते थे। छज्जों पर भीड़ सी इकट्ठा हो जाती थी।
आपका यह प्रश्न कि ‘नीरज’ कैसे बना, इसका उत्तर तो यह है कि यह लोगों का दिया हुआ नाम है। ‘नीरज’ नाम मेरे लिए बहुत सौभाग्यशाली सिद्ध हुआ, यह मेरे नाम के साथ मेल भी खा गया और मेरी जन्मकुंडली के साथ भी।
मेरी पहली कविता दैनिक समाचारपत्र जागरण के एटा अंक में प्रकाशित हुई। जिस तरह से माँ अपने इकलौते पुत्र को गले से चिपकाए-चिपकाए फिरती है वैसे ही मैं भी उस अखबार को हर जगह लिए-लिए फिरता था।
एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा, कविता कैसे करनी चाहिए और कविता क्या है यह मैंने ‘रंग’ जी से ही सीखा। हाँ कविता को समझने में मैंने बच्चन जी की ‘निशा-निमंत्रण’ को कई-कई बार पढ़ा। उनसे ही मुझे कविता के मूल-तत्व की जानकारी मिली।‘
थोड़ा सा विराम देकर मैंने पुनः उन्हें विषय में उतारा, यह कब की बात है?
यह सन 1941 की बात है। दसवीं कक्षा मैंने एटा से पास की थी। वहाँ से पढ़ाई के बाद मैं वापिस इटावा लौट आया था। जैसा कि मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ मैं मूल निवासी इटावा का ही हूँ, एटा मैं अपनी बुआ के पास गया था। जब मैं छः वर्ष का था तभी पिताजी मर गए थे, हम लोग बहुत गरीब थे। मेरी माँ मुझे पढ़ा नहीं सकती थी। इसी लिए मुझे फूफा जी के यहाँ एटा भेज दिया गया था। हाई स्कूल की परीक्षा मैंने फर्स्ट डिवीज़न में पास कर ली। उस समय नौकरी-वौकरी कहाँ मिलती हमें। कभी किसी कोर्ट-कचहरी में बैठ कर हिन्दी टाइप करने का काम कर लिया, कभी ट्यूशन कर ली या फिर कभी पान बेच लिया।
इसी तरह अपना काम चल रहा था।
अचानक चार नवंबर 1942 को मुझे सरकारी नौकरी मिल गई। नई दिल्ली के शाहजहाँ रोड पर स्थित सप्लाई डिपार्टमेन्ट में। मैंने अपने जीवन में नौकरी की शुरुआत हिन्दी-टाइपिस्ट के तौर पर की। उस समय मेरी मौसी 5-ई, पंचकुइयां प्लेस में दिल्ली में ही रहती थीं। मैं नौकरी केलिए दिल्ली आगया और मौसी के साथ रहने लगा। प्रति-दिन मैं पंचकुइयां से शाहजहाँ रोड आना-जाना पैदल ही किया करता था।
तब मुझे वेतन के तौर पर सत्तासठ रुपए मिला करते थे।
इन में से पाँच-छः रुपए तो किराए पर खर्च हो जाते थे। तीस रुपए मैं माँ के पास भेज दिया करता था। बाकी पैसों में खाने का खर्च भी पूरा नहीं पड़ता था। इसी कारण से मैं हमेशा दोपहर में पूड़ी खाया करता था। दिन में एक बार पूड़ी खाने से दोनों समय की क्षुधा शांत रहती थी क्योंकि पूड़ी देर से हजम होती है।
सुबह नाश्ते में भिगोए हुए चने फांक लेता था।
एक दिन मुझे पता चला कि आर्य समाज की तरफ से एक कवि सम्मेलन का आयोजन होने जारहा है। यह बात मुझे विज्ञापन पढ़ने से मालूम हुई थी। मैं भी आयोजन स्थल पर पहुँच गया।
मैंने आयोजनकर्ताओं से अनुरोध किया कि मुझे भी कविता पाठ करने दिया जाए। उन्हों ने इशारा कर के बताया कि ‘शेष’ जी से पूछ लो। मैं ‘शेष’ जी के पास पहुँच गया। बड़े लंबे-चौड़े कद के इंसान, बड़ी अच्छी कविता किया करते थे। उन्हों ने मुझे करूणेश जी से मिलने को कहा। मैं करूणेश जी के पास गया और उनसे अनुरोध किया कि मुझे भी कविता पढ़ने का अवसर दें। उन्हों ने पूछा, क्या करते हो? मैंने बताया कि मैं सप्लाई डिपार्टमेन्ट में हिन्दी-टाइपिस्ट हूँ। यह कह कर मैंने उनके चरण छू लिए। करूणेश जी उन दिनों खासे लोकप्रिय कवि हुआ करते थे।
उन्हों ने मुझसे पूछा कहाँ के रहने वाले हो। मैंने उन्हें बताया कि मैं इटावा का रहने वाला हूँ। इतना सुनते ही वो तपाक से बोले ‘अरे! इटावा का तो मैं भी रहने वाला हूँ।‘ मैंने मन ही मन सोचा कि बात बन गई, मुझे मंच से कविता पढ़ने का अवसर मिल जाएगा।‘
उन्हों ने कहा ‘बेटा कविता पढ़ने का अवसर तो दूंगा, पर सब से पहली कविता तुम से ही पढ़वाऊंगा। मुझे भला इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी।
करूणेश जी ने मुझे मंच से एक कविता पढ़ने को निमंत्रित किया।
मैंने अपनी पहली कविता पढ़ी तो श्रोताओं का शोर हुआ कि एक और। मैंने दूसरी कविता समाप्त की तो फिर शोर उठा कि एक और। इस तरह वहाँ मैंने तीन कविताएं पढ़ीं। श्रोता और सुनना चाहते थे। मैंने उन्हें बताया कि मेरे पास यही तीन कविताएं हैं। अब मेरे पास कविता ही नहीं थी तो और क्या कहता। करूणेश जी ने मुझे परितोषक स्वरूप पाँच रुपए दिए। उन दिनों पाँच रुपए का भी बहुत महत्व था।
इस तरह से हमारा कवि-सम्मेलनीय सिलसिला चल पड़ा।
ऐसे ही एक कवि सम्मेलन में मैंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर एक गीत पढ़ा ‘आज मिला गंगाजल, जल जम-जम का।‘ ‘जम-जम’ काबे का पवित्र जल है। अब यह कविता मुझे ध्यान नहीं है और शायद यह किसी किताब में भी नहीं है। जब यह गीत समाप्त हुआ तो एक बुजुर्ग से सज्जन ने मुझे अपने पास बुलाया और बोले ‘साहबज़ादे यहाँ आओ।‘
मैं पास पहुंचा तो बोले ‘क्या करते हो?’
‘हिन्दी-टाइपिस्ट हूँ।‘ मैंने जवाब दिया।
‘कितने रुपए मिलते हैं।‘
‘सत्तासठ रुपए।‘
तुम नौकरी से रिज़ाइन कर के कल से मेरे पास आजाओ। मैं तुम्हें हिन्दी भाषा का लिटरेरी असिस्टेंट नियुक्त करूंगा। और तुम्हारी तंख्वाह होगी एक सौ बीस रुपया महीना।‘
उन दिनों एक सौ बीस रुपए का बहुत मूल्य था। मैं बहुत प्रसन्न हुआ। मेरी प्रसन्नता आकाश छू रही थी।
अगले दिन मैं सप्लाई डिपार्टमेन्ट से रिज़ाइन करके उनके पास चला गया।
आप सोच रहे होंगे कि वो व्यक्ति कौन था जिसने मुझे इस ओहदे पर बुलाया था।
वो थे हफीज जालंधरी साहब। उर्दू के बहुत अच्छे शायर। बाद में वे पाकिस्तान चले गए और पाकिस्तान रेडियो के प्रमुख बने। पाकिस्तान का राष्ट्र-गीत भी उन्हीं के द्वारा लिखा गया है।
वे उन दिनों ‘सॉन्ग पब्लिसिटी ऑर्गनाइज़ेशन’ के महानिदेशक थे। हफीज जालंधरी साहब ने ‘शाहनामा-ए-इस्लाम’ की रचना की थी।
उन दिनों ‘सॉन्ग पब्लिसिटी ऑर्गनाइज़ेशन’ का कार्यालय कश्मीरी गेट पर अंडरहिल रोड पर हुआ करता था। अरशमद जानी उन दिनों उर्दू के लिटरेरी असिस्टेंट हुआ करते थे। इस दफ्तर में मेरा काम अङ्ग्रेज़ी हुकूमत के कामों का प्रचार करने का था। इसमें कवि सम्मेलन इत्यादि के आयोजन का भी काम था। ‘सॉन्ग पब्लिसिटी ऑर्गनाइज़ेशन’ का सालाना बजट था एक लाख रुपया।
इसी अनुक्रम में एक रोचक घटना है। ‘सॉन्ग पब्लिसिटी ऑर्गनाइज़ेशन’ से पहले एक आयोजन रशीद अहमद बुखारी साहब ने जो उन दिनों देहरादून में डिप्टी कलेक्टर थे ने किया। हमें भी बुलवाया।
मैं देहरादून स्टेशन पर पहुँच कर इधर-उधर भटक रहा था कि देखा कि कुछ और लोग भी मेरे जैसे एक-दूसरे का मुंह ताकते हुए भटक रहे हैं। मैंने उनमें से एक से पूछा कि आप लोग किसी को ढूंढ रहे हैं क्या? तो उनमें से एक सज्जन बोले ‘हाँ! हम लोग नीरज को तलाश रहे हैं।‘ मैंने उनकी तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा कि मैं ही नीरज हूँ तो वे आश्चर्य में पड़ गए। ‘आप कैसे नीरज हो सकते हैं, हमारी जान में तो नीरज कोई अचकन पहने, हाथ में छड़ी घुमाते हुए वृद्ध सज्जन होंगे।‘ उन्हों ने कहा।
देहरादून के उस कवि सम्मेलन में मुझे अभूतपूर्व स्नेह प्राप्त हुआ। बुखारी साहब मंत्र-मुग्ध हो गए। उन्हों ने अनुरोध किया ‘आप एक दिन के लिए और रुक जाइए। कल शहर में आल इंडिया मुशायरा हो रहा है। इस मुशायरे का संचालन शहंशाहे तरन्नुम जिगर मुरादाबादी साहब करेंगे। इसमें पूरे देश देश के प्रसिद्ध शायर आ रहे हैं। मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे दिल्ली फोन कर के यह बता दें कि मैं एक दिन और देहरादून रुकूँगा।
बुखारी जी ने मुझे बताया कि वे चाहते थे जिगर मुरादाबादी साहब आपको सुनें।
अगले दिन, मुशायरा शुरू होने से पहले वे मुझे लेकर जिगर मुरादाबादी साहब के पास पहुंचे और उनसे कहा कि ‘यदि इजाज़त हो तो इस बच्चे को आप को सुनवाना चाहता हूँ।‘
जिगर मुरादाबादी साहब ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और थपथपाते हुए कहा ‘आओ बेटा! मुशायरे का आगाज़ ही आप से करते हैं।‘
मैं माइक के पास आकर बैठा तो जिगर मुरादाबादी साहब मेरे बगल में आकर बैठ गए, मेरी पीठ ठोंकी और कहा पढ़ो।
मैंने एक गीत पढ़ा तो उन्हों ने कहा एक और पढ़ो। जब दो पढ़ चुका तो बोले एक और पढ़ो भाई। मैंने उस मुशायरे में तीन गीत पढ़े। जब मैं तीसरा गीत पढ़ चुका तो जिगर साहब माइक पर आए और बोले ‘उम्र-दराज़ हो इस बच्चे की, क्या पढ़ता है, ऐसा लगता है कि एक नगमा सा गूँजता है।‘
इसी नौकरी के दौरान मुझे फिर बुखारी साहब के एक आयोजन में जाना पड़ा। उस आयोजन में मैंने एक ऐसी कविता पढ़ दी कि अंग्रेज़ सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा। कविता तो लंबी थी पर थोड़ी सी याद है :
मैं विद्रोही हूँ, जग में विद्रोह कराने आया हूँ,
जन-जन का राग सुनहरा दर्द सुनाने आया हूँ
रोक सका है कौन उसे, जिसने बस चलना ही सीखा
बुझा सका है कौन उसे, जिसने बस जलना ही सीखा
मिटा सका है कौन उसे, जिसने बस जीना ही सीखा
भूल गए, तुम भूल गए क्या, चन्द्रशेखर को भूल गए
भूल गए, तुम भूल गए क्या, भगत सिंह को भूल गए
यह लंबी कविता थी और राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत थी। कवि सम्मेलन के बाद बुखारी जी मेरे पास आए। बोले और, नौकरी में रह कर तुम ऐसी कविता करते हो, यह खतरनाक है। इसकी रिपोर्ट दिल्ली चली गई है। अब आप ऐसा करो कि तुरंत यहाँ से फरार हो जाओ नहीं यहीं तुम्हारी गिरिफ़्तारी हो जाएगी।
दुनिया में अच्छे लोग बहुत होते हैं। बुखारी जी जैसे अच्छे इंसान दुनिया में मिल ही जाते हैं। इस कवि सम्मेलन के बाद मैं कभी कानपुर, शहडौल तो किसी सुदूर प्रांत में लंबे अंतराल तक लुकता-छुपता रहा।
इसी लुका-छुपी के दौर में मैं कवि सम्मेलनों में भी आता-जाता रहा। ऐसा ही एक आयोजन सरगोधा (अब पाकिस्तान का हिस्सा) में रखा गया था। इस कवि सम्मेलन के आयोजक थे, सनातन धर्म प्रचार सभा के श्री वशिष्ठ जी। उन्हों ने मुझे कहा कि इस कवि सम्मेलन में तुम्हें भी चलना है। मैं तैयार होगया। सरगोधा तब भी मुस्लिम बहुल इलाका था, वहाँ हिन्दी का कवि सम्मेलन हो यही सब से बड़ा आश्चर्य था।
वशिष्ठ जी ने आयोजन से पूर्व घर-घर जाकर, सब से हाथ जोड़ कर विनती की कि इस हिन्दी कवि सम्मेलन का आयोजन आप सब के लिए ही किया जा रहा है। अगर हर घर से दो-दो सदस्य इस आयोजन में नहीं पहुंचेंगे तो उन्हें ब्रह्म हत्या का दोष लगेगा। साहब उनकी इस बात का असर हमें आयोजन की रात देखने को मिला। सरगोधा का बहुत बड़ा हुजूम हिन्दी कविता सुनने के लिए इकट्ठा हुआ। इत्तेफाक, मुझे उस दौरान 103-104 डिग्री बुखार हो आया। यह बात वशिष्ठ जी को मालूम हुई तो चिंतित भाव लिए मेरे पास आए और बोले, ‘नीरज! कविता तुम्हें पढ़नी ही पड़ेगी। अगर तुम कविता नहीं पढ़ोगे तो शेष कवियों के पारश्रमिक लायक का दान भी न मिल पाएगा।‘ मैंने कुछ दवाएं आनन-फानन में ले लीं। मुझे मंच पर एक कुर्सी पर बैठा दिया गया। अंत में जब कविता पढ़ने की बारी आई तो मेरे सामने माइक ला कर रख दिया गया।
वशिष्ठ जी दौड़ कर मेरे पास आए और कान में फुस-फुसा कर बोले, नीरज जब मैं कहूँ तब तुम कविता पढ़ना बंद कर देना। वे मेरे स्वास्थ्य को लेकर चिंतित थे। मैंने कविता पढ़नी शुरू की, माहौल उठान पर था कि वशिष्ठ जी ने इशारा कर दिया, मैं चुप हो गया। इस पर श्रोताओं ने शोर मचाना शुरू कर दिया, तो वशिष्ठ मंच पर आकर प्रिय, श्रोताओं हमें कवियों की विदाई के लिए 500 रुपया चाहिए, मैं अंगौछा बढ़ाए आप के पास आरहा हूँ। कृपा कर, यथाशक्ति सहायता कीजिए।
वशिष्ठ जी पैसे बटोर कर लौटे तो मैंने फिर कविता पढ़ना शुरू किया। थोड़ी ही देर बाद उन्हों ने मुझे फिर रुकने का इशारा किया। वे फिर मंच पर आए और बोले, भाइयों ढाई सौ रुपए अब भी कम पड़ रहे हैं। मैं फिर आपके पास आ रहा हूँ। वशिष्ठ जी फिर दान बटोर कर लौटे तो मैंने कविता पाठ प्रारम्भ किया। यह सब बातें मैं इस लिए जग जाहिर कर रहा हूँ ताकि लोगों को पता चले कि पहले आयोजंकर्ताओं के हृदय में कविता के प्रति कितना जज़्बा हुआ करता था, लक्ष्य हुआ करता था। अब ऐसा नहीं है। अब तो आयोजक व्यवसायी हैं और संचालक चुट्कुले बाज़। आज संचालक का काम ताली बजवाने का रह गया है, पहले कवि सम्मेलन में ताली बजाना बद्तमीजी मानी जाती थी।
नीरज जी के इस कथन ने मुझे वर्षों पहले घटी एक घटना याद दिला दी।
बीएचईएल में एक कवि सम्मेलन का आयोजन होना था, वहाँ के जिन अधिकारी को यह ज़िम्मेदारी सौंपी गई हालांकि वे बुजुर्ग थे किन्तु इस तरह के आयोजन और कविता से उनका दूर-दूर का वास्ता न था। उन्हों ने वह ज़िम्मेदारी मुझ पर डाल दी। और कहा कि कुछ भी हो अशोक चक्रधर और सुरेन्द्र शर्मा को जरूर ले आना। चक्रधर जी से बात हुई तो वे कवि सम्मेलन का ठेका खुद लेने को बोले, मैंने मना कर दिया। कवि हमारी पसंद के होंगे। ये सब जब तय होगए तो मैंने स्वर्गीय रमानाथ अवस्थी जी से संपर्क किया। उन्हों ने पूछा और कौन-कौन आरहा है, मैंने नीरज जी, संतोषानन्द सहित चक्रधर और सुरेन्द्र शर्मा के नाम गिना दिए। इस पर अवस्थी जी ने जवाब दिया ‘ओझा जी आप का परिचय है, आऊँगा पर भविष्य में अगर मसखरे बुलाएँ तो मुझे माफ कीजिएगा।‘
चक्रधर साहब का व्यवहार मुझे दुबारा भी झेलना पड़ा था। दिल्ली के एक बिल्डर जैनेन्द्र जैना के पिता की कविताओं को संपादित कर के मैंने प्रकाशित किया था। उनकी इच्छा हुई कि वे इसका विमोचन सोनिया गांधी से करवाएँ। बड़ी विकट मांग थी उनकी। मैंने आदरणीय रत्नाकर पाण्डेय जी (राज्य सभा सांसद) से अनुरोध किया और यह कार्यक्रम उनके सहयोग से 10, जनपथ में सम्पन्न हुआ।
अब जैना जी इस पुस्तक का औपचारिक विमोचन गालिब ऑडिटोरियम में रखना चाहते थे। रत्नाकर पाण्डेय जी को मुख्य अतिथि बनाया गया। कवि सम्मेलन भी करना था, उनका आग्रह भी चक्रधर को लेकर था। मैंने चक्रधर जी से बात की तो फिर वही ठेके वाली बात उठी। मैंने जैना जी को बतला दिया। समय कम था अन्य कवियों को एकत्रित करने और निश्चित समय पर बुलाने में असुविधा हो रही थी। सो बीस हज़ार रुपए में ठेकेदार को ठेका दे दिया गया। जिसने जामिया के अपने छात्रों से कविता पढ़वा कर रकम वसूल ली।
‘पर आप भी तो ऐसे चुट्कुलेबाजों के बीच बैठते हैं।‘ मैंने नीरज जी से कहा।
‘नीरज उठ के चला जाए तो सब खतम। नीरज को इस लिए बुलाया जाता है कि नीरज साठ वर्षों से मंच पे राज कर रहा है।‘ बेतकुल्लुफ़ हो कर उन्हों ने कहा।
मेरी इस टिप्पणी पर कि नीरज भी इस स्थिति के लिए दोषी है, लंबी सांस लेकर बोले ‘नीरज के सर क्या दोष? नीरज तो माइनोरिटी में है। नीरज इस अव्यवस्था पर कुछ बोले भी तो उसी को गालियां पड़ेंगी, यह सही बात बता रहे हैं आपको। मंच तो आजकल हंसी-ठट्ठा करनेवालों का हो कर रह गया है। लोग चुट्कुले सुना-सुना कर लखपति-करोड़पति बन गए हैं इसी मंच की बदौलत। पहले, मंच से कविता पढ़ने की पहली अनिवार्यता होती थी कि आपका काव्य संकलन प्रकाशित हो, अन्यथा आपको मंच पर स्थान नहीं मिलता था। आज क्या है? आप खुद ही देख रहे होंगे।
मैंने पूछा कि क्या कभी एक्टिंग का भी चस्का लगा तो जवाब आया, ‘पहचान’ फिल्म देखी है आपने, मनोज कुमार वाली? मैंने न सूचक मुंडी हिलाई। तो वे बोले मैंने मनोज कुमार की ‘पहचान’ फिल्म में फकीर का किरदार निभाया था। फकीर तो हम वैसे भी हैं ही। रफी साहब का गाया एक गीत ‘बच के निकल जा, इस बस्ती में करता मोहब्बत कोई नहीं’ मेरे ऊपर फ़िलमाया गया था। इसमें काफी संवाद भी थे। पर बदमाश मनोज ने वो सब निकलवा दिए, उसे लगा मैं उस पर हावी हो रहा हूँ। दरअसल कैमरे से कभी घबराया नहीं, और गीत गाना तो आता ही है।
आप क्या सोच के मुंबई गए थे? मैंने उन्हें कुरेदते हुए पूछा था।
मुंबई यह सोच कर गया था कि मुझे फिर लौट कर अपनी जगह आना है। मैं वहाँ का हो कर नहीं रह सकता था। मैं वहाँ ठहरने के लिए भी नहीं गया था। वहाँ भी बहुत ज़बरदस्त खेमा-बंदी है। मैं मुंबई से लौट इसलिए आया क्योंकि एसडी बर्मन जी का निधन हो गया था, शंकर-जयकिशन नहीं रहे, मदन मोहन का स्वर्गवास हो गया था। इकबाल कुरेशी का इंतकाल हो गया। जब वही नहीं रहे जिनके लिए हम लिखा करते थे तो हम वहाँ जाते किस के पास। आज के चपड्नाती हैं सब।
मुकेश भट्ट ने मुझे फिर से बुलाया। जतिन-ललित के लिए लिख कर आया था। साले ने बुलाया पूरी फिल्म के गीत लिखने के लिए पर गीत लिखवाए तीन ही। बाकी किसी और से लिखवा लिए। गीत मेरे हिट हुए। फिल्म थी ‘फरेब’। उसका गाना था, ‘आँखों से दिल में उतर कर तुम मेरी धड़कन में हो’।, दूसरा गीत थे ‘मेरे प्यार का पहला….।’
नीरज मुंबई पहुंचा कैसे?
हुआ यों कि वर्ष 1960 में मेरा जन्म दिन मुंबई में मनाया जाना था, मुंबई के साहित्य संगम के द्वारा। इस कार्यक्रम में श्रेयान्स प्रसाद जैन, जो कि साहू शांति प्रसाद जैन जी के बड़े भाई थे, अध्यक्ष थे। मेरा एकल काव्य पाठ था उस कार्यक्रम में। तत्कालीन मुख्यमंत्री वाईबी चव्हाण उस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। मुझे उस कार्यक्रम में पाँच हज़ार रुपए के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उस कव्यापाठ को सुनकर आर चंद्रा, जिन्हों ने ‘बरसात की रात’ फिल्म बनाई थी मेरे पास आए और बोले मेरी अगली फिल्म के लिए गीत लिखो। मेरा बेटा राजीव उस फिल्म में हीरो की भूमिका अभिनीत करेगा। आर चंद्रा भी इटावा के ही थे। उनका बेटा राजीव कभी धर्म समाज कॉलेज, अलीगढ़ में मेरा छात्र रह चुका था। ‘बरसात की रात’ फिल्म के गाने साहिर लुधियानवी जी ने लिखे थे। आर चंद्रा का साहिर से किसी बात पर झगड़ा हो चुका था।
इस समय तक मेरा गीत, ‘कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे’ हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों में हिट हो चुका था। इस गीत को मैंने पहली बार 1955 में लखनऊ रेडियो स्टेशन से पढ़ा था। पहली बार किसी हिन्दी कवि के मुंह से उर्दू के इस तरह के शब्द निकले थे। इस गीत से पहले कोई हिन्दी कवि ‘कारवाँ गुजर गया’ की भाषा से परिचित ही नहीं था।
मैंने चंद्रा जी से साफ कह दिया कि मैं मुंबई रुक कर तो गीत लिख नहीं सकता। हाँ, अगर चाहें तो मेरे गीतों की पुस्तक से गीत लेके कोई फिल्म बना लें, उस पर मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।
चंद्रा जी मेरे ही गीतों पर फिल्म बनाना चाहते थे। सो उन्हों ने पहले मेरे गीत चुने फिर उन गीतों के इर्द-गिर्द फिल्म की कहानी लिखवाई तब जाकर उन्हों ने फिल्म बनाई ‘नई उम्र की नई फसल’। ‘नई उम्र की नई फसल’ का फ्रेज़ भी उन्हों ने मेरी कविता से ही लिया।
‘नई उम्र की नई फसल’ फिल्म के सभी गीत बहुत हिट हुए। तब मुझे चन्द्रशेखर ने बुलाया, वो फिल्म बना रहे थे ‘चा-चा-चा’ इस फिल्म में मैंने दो गीत लिखे। दोनों ही गीतों को रफी साहब ने गाया। ‘सुबह न आई, शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई’, और दूसरा गीत था, ‘हम न थे, वो तुम न थे’। ‘चा-चा-चा’ फिल्म पहले रिलीज़ हुई। ‘नई उम्र की नई फसल’ बाद में आई। दोनों ही फिल्मों के मेरे गीत ज़बरदस्त हिट हुए। गीतों के हिट होते ही मैं हिट हो गया।
ऐसे ही मुंबई के एक कवि सम्मेलन में देवानंद साहब मुख्य अतिथि के रूप में पधारे। मेरी कविता सुनने के बाद मेरे पास आए और बोले कि नीरज साहब आपके गीतों की भाषा मुझे पसंद आई है। ईश्वर चाहेगा तो हम और आप शीघ्र ही साथ-साथ काम करेंगे।
1965 में देवानंद जी ने एक फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ की घोषणा की। मैंने ‘स्क्रीन’ पत्रिका में विज्ञापन देखा। उसमें संगीतकार का नाम एसडी बर्मन था, पर गीतकार का नाम नहीं था। शैलेंद्र जी का निधन हो चुका था। मुख्य रूप से वे ही देवानंद जी केलिए लिखा करते थे। मैंने तत्काल एक पत्र देवानंद जी को लिखा और उन्हें उनकी बात याद कराई। जवाब में देवानंद जी ने आने-जाने का टिकट भेज दिया। मैं मुंबई जाकर देवानंद जी से मिला। वे मुझे लेकर एसडी बर्मन जी के पास पहुंचे। एसडी बर्मन से जब परिचय हो रहा था तो वे विशिष्ट बांग्ला शैली में बोले ‘कौन नीरोज, हम किसी नीरोज-वीरोज को नहीं जानता।‘
देवानंद ने संकोच के साथ उन्हें कहा कि एक बार वे उन्हें अवसर देकर तो देख लें, यदि उनके लिखे गीत नहीं समझ आएंगे तो वापिस अलीगढ़ लौट जाएंगे।
एसडी बर्मन ने गीत की की भूमिका समझाई। खेमकरण से भारतीय लड़की देवानंद के प्रेम में भाग कर लंदन आती है यहाँ वह ‘मिस इंडिया’ चुनी जाती है। उसके सम्मान में आयोजित कार्यक्रम में देवानंद एक अन्य लड़की को बाँहों में लिए हुए प्रविष्ट होता है।
बर्मन दादा के अनुसार गीत ‘रंगीला’ शब्द से शुरू होना चाहिए, उसमें शराब इत्यादि का उल्लेख नहीं होना चाहिए। हालांकि, देवानंद को किसी अन्य स्त्री के साथ देख कर उसे सदमा लगा है, और उसके हाथ में शराब का प्याला भी है। गीत में नायिका की अतीत की स्मृतियाँ, दु:ख और कुछ व्यंग्य भी चाहिए था। पर सब से प्रमुख तो यह कि गीत ‘रंगीला’ शब्द से ही शुरू होना चाहिए था। बर्मन दादा ने मुझे ट्यून सुनाई। देवानंद जी ने मुझसे पूछा ट्यून समझ ली? मैंने जवाब दिया कि, जी हाँ समझ ली।
मैंने बर्मन दादा को कहा कि गीत मैं कल दे दूंगा। बर्मन जी बोले इतनी जल्दी? तब देवानंद जी ने सुझाव दिया कि गीत बर्मन दादा को दिखाने से पहले उन्हें भी दिखा लूँ। मैंने सहमति में सर हिला दिया।
अगले दिन हम दोनों फिर बर्मन दादा के घर पहुंचे।
मैंने गीत शुरू किया:
‘रंगीला रे
तेरे रंग में, यूं रंगा है मेरा मन……
छलिया रे
न बुझे है किसी जल से ये जलन…..
रंगीला रे’
‘किसी जल से’ वाली पंक्ति को देखिए इसमें शराब का उल्लेख किए बिना सब कुछ कह दिया गया है। जब यह गीत बर्मन और उनकी पत्नी ने सुना तो कुछ मत पूछिए दोनों ही मुग्ध हो गए। देवानंद जी को बर्मन दादा ने वापिस भेज दिया। कहने लगे, देव साहब आप जाओ, अब हम नीरज से बात करेंगे।
देव साहब के जाने के बाद बर्मन दादा मुझ से बोले, नीरज तुमने तो कमाल कर दिया, मैंने यह ट्यून तुम्हें फिल्म से हटाने के लिए दी थी। पर इतना सुंदर गीत तुमने लिख दिया कि मैं तुम्हारा कायल हो गया। आज तुम मेरे साथ ही रहो। शाम को खाना-खाकर वापिस जाना। तुम ड्राईवर को वह जगह दिखा दो जहां ठहरे हुए हो वह रोज़ तुम्हें ले आया करेगा।
देव साहब को मैंने रात फोन कर के बताया कि बर्मन दादा ने मुझे अपने घर पर भोजन करवाया तो वे हंस कर बोले दादा कभी किसी को चाय नहीं पिलाते, अगर तुमको खाना खिलाया है तो समझो बात बन गई है। इसके बाद हम दोनों की समझ इतनी बढ़ी कि जैसे ही वे ट्यून देते मुझ से फटाक से गीत तैयार हो जाता। ‘फूलों के रंग से दिल की कलम से तुझको लिखी रोज़ पाती’, इसमें मैंने शुद्ध संस्कृत शब्दों का इस्तेमाल किया, ‘इतना मधुर, इतना मदिर तेरा-मेरा प्यार, लेना होगा जनम हमें कई-कई बार।‘
फिर एक और गीत देखिए ’शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब, उसमें फिर मिलाई जाए थोड़ी सी शराब। होगा यूं नशा जो तैयार-वो प्यार है’। देवानंद के बाद विजय आनंद साहब ने मुझ से ‘तेरे-मेरे सपने’ के गीत लिखवाए। वो फिल्म भी हिट हो गई। इसका गीत तो आपने सुना ही होगा ‘जीवन की बगिया महकेगी, चहकेगी/खुशिओं की कलियाँ झूमेंगी घूमेंगी।‘
इसके बाद मैंने ‘शर्मीली’ फिल्म की। उसके सारे गीत सुपर हिट हुए। ‘खिलते हैं गुल यहाँ, खिल के बिखरने को/मिलते हैं दिल यहाँ, मिल के बिछड़ने को’, ‘कैसे कहें प्यार ने हमको क्या-क्या खेल दिखाए’।
‘कन्यादान’ का मेरा गीत बहुत हिट हुआ, ‘लिखे जो खत तुझे, वो तेरी याद में, हजारों रंग के नज़ारे बन गए। सवेरा जब हुआ तो फूल बन गए, जो रात आई तो सितारे बन गए।‘
‘गैम्बलर’ फिल्म का गीत जिसे किशोर कुमार ने गाया था ‘दिल आज शायर है, गम आज नगमा है/शब ये गजल है सनम’। मनोज कुमार की फिल्म ‘पहचान’ में मैंने दो गीत लिखे और वो दोनों ही सुपर हिट रहे। ‘बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ, आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ।‘
जिस समय मैं मुंबई में गीत लिख रहा था, उस समय पूरे हिंदुस्तान में गीत का माहौल था। साहिर थे, मजरूह थे, शैलेंद्र, हसरत, प्रदीप, पंडित भरत व्यास थे, इंदीवर और कैफी आज़मी थे। ये सब साहित्य से जुड़े हुए लोग थे।
इस से भी बड़ी बात, उस समय पोएट्री एक उद्देश्य के साथ लिखी जाती थी। सब कविताएं, गीत प्रगतिवाद से प्रभावित होते थे।
मेरा एक गीत है ‘आज की रात बड़ी शोख बड़ी नटखट है, आज की रात तो तेरे बिना नींद नहीं आएगी।‘
यह तो गीत की शुरुआत थी, किन्तु समाप्ति देखिए :
पर ठहर, वे जो वहाँ लेटे हैं फुटपाथों पर,
लाश भी जिनकी न कफन तक यहाँ पाती है,
और वे झोंपड़ी, छट भी न है जिसके सर पर,
छाके छप्पर जहाँ ज़िंदगी सो जाती है,
पहले इन सब के लिए एक इमारत गढ़ लूँ,
फिर तेरी मांग सितारों से जड़ी जाएगी।
(फिल्म : नई उम्र की नई फसल)
मैंने जो भी गीत लिखे वो पागलपन, जुनून पर जाकर लिखे। शायद यही कारण रहा कि मेरे सारे गीतों को जनता का प्यार मिला।
एक बार आत्माराम जी मेरे पास आए, वे उन दिनों ‘चंदा और बिजली’ फिल्म बना रहे थे। मुझ से बोले कि एक दोहा लिख दो। मैंने कहा सिचुएशन समझाइए। जब उन्हों ने सिचुएशन बताई तो मैंने कहा यहाँ तो गाना बनता है। फिर मैंने गाना लिख कर दिया।
‘काल का पहिया घूमे रे भइया,
लाख तरह इंसान चले।‘
इस गीत को मन्ना डे जी ने फिल्म में गाया। और इसी गाने पर मुझे ‘फिल्म फेयर’ अवार्ड मिला। पहली बार किसी धार्मिक गाने को ऐसा पुरस्कार हासिल हुआ।
अब अगर इस दरम्यान राज कपूर जी का जिक्र न करूँ तो बात अधूरी रह जाएगी।
‘मेरा नाम जोकर’ के लिए राज कपूर जी को गीत चाहिए था। वे जोकर को गवईय्या नहीं बनाना चाहते थे। यही कारण है कि मैंने अपनी एक कविता, ‘राजपथ के राही’ उन्हें सुनाई। कविता सुनते ही बोले, बस यही चाहिए। इसमें सर्कस और जोड़ दो।
यह कविता ब्लैंकवर्स थी। न दोहा, न छप्पय, न रुबाई, न गज़ल। गीत को लेकर वे शंकर-जयकिशन से मिले तो उन दोनों ने हाथ खड़े कर दिए। कहने लगे, ये क्या ले आए। इसकी धुन ही नहीं बनती। राज कपूर जी ने फोन करके मुझे वहीं बुला लिया। शंकर जी के सामने मैंने उस गीत को अपने अंदाज़ में पढ़ कर सुनाया :-
‘ऐ भाई ज़रा देख के चलो,
आगे ही नहीं, पीछे भी,
दायें ही नहीं बाँये भी…….’
गीत कम्पोज़ होने के बाद मुकेश जी ने गाया तो राज कपूर का चेहरा देखने लायक था। जब-जब लोगों ने राज कपूर से उस गीत की प्रशंसा की, राज कपूर ने बिना किसी लाग-लपेट के बराबर कहा कि इस गीत की प्रशंसा का श्रेय राज कपूर को नहीं, नीरज को जाता है क्योंकि यह गीत भी उसका है और इस गीत की कंपोज़ीशन भी उसी की है।
राज कपूर साहब शो-मैं थे, बहुत बड़े शो-मैं। सम्बन्धों को पकड़ने की गहराई का शायद उनमें अभाव था। मेरे उनके साथ ज़्यादा संबंध नहीं रहे। देवानंद जैसा बेहतरीन व्यक्तित्व न तो फिल्म इंडस्ट्री में कोई है और न ही कोई होगा। वह व्यक्ति संबंध निभाना जानता था। उन्हों ने मुझ से ‘सेंसर’ फिल्म के के गीत लिखने को कहा, मैं अपने सारे काम छोड़ कर मुंबई गया। न केवल देवानंद साहब बल्कि विजय आनंद, चेतन आनंद सब में सम्बन्धों के प्रति अटूट लगाव था। उनके लिए गीत लिखने में कभी भी हिचक नहीं होती थी। पैसे रहते तो कहते ले जाओ, नहीं रहते तो कहते चले जाओ, जब होंगे तो घर पहुँच जाएंगे। मुझे आज तक, देवानंद जी जैसा जीवंत और स्फूर्त व्यक्तित्व कहीं नहीं टकराया है।
एसडी बर्मन जी के बारे में जितना कहा जाए, कम है। वे संगीत के जादूगर थे। अब सुनो, उनके एक अभिनव प्रयोग के बारे में बताता हूँ। उन्हों ने मुझ से कहा कि एक धुन तैयार की है, सुनो। इस धुन में पहली दो पंक्तियों का संगीत लोक-संगीत होगा। अगली दो पंक्तियाँ शास्त्रीय संगीत की होंगी, फिर अगली दो पंक्तियाँ रॉक म्यूज़िक की होंगी फिर अगली दो पंक्तियों में क़व्वाली की अनुभूति रहेगी। इस पर लिखो। मैंने उन के इस कंपोज़ीशन को कई बार सुना। अब देखिए उस पर नीरज ने क्या लिखा :
‘गम पे धूल डालो,
कह-कहा लगा लो (लोक-गायन)
छोटी सी डगरिया ज़िंदगानी है,
जो बीत जाए राजधानी है (क्लासिकल)
ये होंठ सूखे-सूखे
ये बाल रूखे-रूखे (रॉक)
छाई उदासी कैसी यारों
यारों उधर ले लो मस्ती
मस्ती का नाम तंदुरुस्ती (क़व्वाली)
(फिल्म : प्रेम पुजारी)
डॉ गोपालदस नीरज चार भाई हैं। एक नीरज जी से बड़े हैं और दो उनसे छोटे हैं। इन में से एक भाई अमरीका जा बसे हैं। नीरज जी के पहले विवाह से एक पुत्र हैं, जिनका वे विशेष उल्लेख करते हैं, वे भेल से महाप्रबंधक पद से सेवा-निवृत्त हुए। उनकी पौत्री एमबीए करने के पश्चात ‘भारतीय निर्यात संवर्धन परिषद’ से उच्चस्तरीय पाठ्यक्रम में शिक्षित हो चुकी हैं।
अपने ‘दूसरे विवाह’ का भी वे हलके ढंग से उल्लेख कर देते हैं। फिर यह कहते हुए बड़ी शीघ्रता से उसका पटाक्षेप भी कर देते हैं कि अब ‘उनसे’ ऐसा कोई संबंध नहीं है। वह करोड़पति घराने की हैं, पर अब हम अलग हैं।
सदियों का अंतराल देखने वाला नीरज, आज भी इटावा की मिट्टी का साधारण साक्षी है। उसके आवास पर आधुनिकता सोफिस्टीकेटेड ताम-झाम नदारद्द है। एक कक्ष पूरी तरह से ‘नारायण श्री हरि’ को समर्पित है, बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ और उनके भी ऊपर शोभायमान नीरज जी की माता का फोटो-फ्रेम में मढ़ा हुआ चित्र।
आँगन में तुलसी का बिरवा। कमरे में भी ग्रामीण परिवेश पसरा हुआ है। बाईस नंबर बीड़ी का बंडल, माचिस, और लुंगी में लिपटे नीरज। श्री नीरज शुभम, नीरज फैन क्लब का संचालन करते हैं। उनके साथ श्री रज़्ज़ाक़ साहब हैं जिनकी गीत-गज़ल विधा पर अच्छी पकड़ है। वे एक साहित्यिक पत्रिका भी निकालते हैं। ये सब अलीगढ़ में नीरज जी के दैनिक जीवन का अभिन्न अंग हैं। नीरज जी हेड मास्टर हैं और ये सब आज्ञाकारी शिष्य।
नीरज जी आज की स्थिति से संतुष्ट नहीं हैं। किन्तु यह भी मानते हैं कि एक समय होगा, अच्छा समय आएगा।
एक हिन्दी टाइपिस्ट से जीवन यात्रा प्रारम्भ करने वाला आशा-विश्वास और उमंग का यह गीतकार राष्ट्र-कवि की चौखट पर पहुँच कर भी वैसा ही था जैसा आज से वर्षों पूर्व 1940-42 में था। उसे किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं है। नीरज ने बातचीत के दौरान कहीं मुझे बताया था कि नीरज, वैष्णव है।
केवल वैष्णव ही नीरज जी की तरह सोच रख सकता है।
देखते हैं, जातिगत-दलगत उठापटक से दूर क्या राजनीति इस जन गायक को ‘राष्ट्र-कवि’ के रूप में प्रतिष्ठापित कर स्वयं सम्मानित होना चाहेगी? या उससे पूर्व मृत्यु उन्हें वरण कर लेगी?
(मेरी आत्मकथा का एक हिस्सा)
सुधेन्दु ओझा