पाकिस्तान में महिलाओं की संख्या ५२ % तथा पुरुषों की ४८% है. बहुसंख्यक होते हुए भी महिलाओं की पाकिस्तान में स्थिति अच्छी नहीं है. आये-दिन वहां चूल्हा फटने, छत से धकेल कर मारने, विष दे देने, जीवित जला देने और तलाक या खुला देकर निकाल बाहर करने की घटनाएँ घटती रहती हैं.
इन जैसी स्थितियों को देखकर ही सन १९५५ में पाकिस्तान के तत्कालीन चीफ जस्टिस मियां अब्दुर रशीद के नेतृत्व में एक कमीशन का गठन किया गया था, जिसका उद्देश्य महिलाओं को हिंसा. सामाजिक व मानसिक प्रताड़ना, बलात्कार और अधिकारों से वंचित करने जैसी समस्याओं प़र रिपोर्ट तैयार कर अपनी सिफारिशें पेश करना था.
समिति ने सिफारिशें पेश भी कीं, किन्तु उसपर किसी भी तरह से अमल नहीं किया गया. इसकी असफलता को देखते हुए एक बार पुनः उस व्यवस्था के नासूर को दूर करने के प्रयास में पाकिस्तान के तत्कालीन अटार्नी जनरल याहिया बख्तियार के नेतृत्व में पाकिस्तान वूमन राइट्स कमीशन(१९७५) का गठन किया गया ताकि पाकिस्तानी समाज में महिलाओं प़र हो रहे अत्याचारों को काबू में किया जा सके.
सन १९७६ में कमीशन ने अपनी रिपोर्ट सरकार के समक्ष प्रस्तुत कर दी. तत्पश्चात इसी कमीशन द्वारा हुदूद आर्डिनेंस, कस्सास वदीयत तथा अन्य मामलों प़र रिपोर्टें प्रस्तुत की गयीं जिनकी कालांतर में (१९७५) यानी जनरल जियाउल हक के शासन काल में काफी चर्चा रही. जिसका नेतृत्व ज़र्रीन सरफ़राज़ ने किया था. किन्तु ढ़ाक के वही तीन पात. किसी की भी सिफारिशों प़र कोई अमल नहीं हुआ. यहाँ तक कि बेगम बेनजीर भुट्टो की सरकार वजूद में आ गयी जो स्वयं एक स्त्री की पीड़ा को भली भांति समझ सकती थी. सन १९९४ में जस्टिस नासिर असलम जाहिद के नेतृत्व में एक और कमीशन का गठन किया गया जिसने अपनी रिपोर्ट १९९७ में प्रस्तुत कर दी.
११ सदस्यों की इस समिति में महिलाओं की संख्या सबसे अधिक थी. ये वे महिलाएं थीं जो न केवल स्वयंसेवी संगठनों से जुड़ी हुयी थीं, बल्कि उन्होंने पीड़ित महिलाओं से संपर्क भी किया था और उनसे जुड़े मामलों की तफ्तीश भी की थी. कमीशन ने मुस्लिम लाज आर्डिनेंस (१९६१) में वेस्ट पाकिस्तान रूल्ज़ इंडो-मुस्लिम फेमिली लाज आर्डिनेंस-१९६१, दहेज़ व वधु-पक्ष के उपहार एक्ट-१९९६, गार्जियन एंड वार्द्ज़ एक्ट-१९९०, जीवन-मृत्यु, विवाह पंजीकरण एक्ट-१९८६, तलाक एक्ट- १९६९ स्पेशल मैरिज एक्ट-१९७६, प़र अपने विचार और नए संशोधनों के साथ सिफारिशें प्रस्तुत कीं. विफ़ाकी शरई अदालत के चीफ जस्टिस महबूब अहमद, जस्टिस फ़िदा अहमद और जस्टिस एजाज़ यूसुफ़ की तीन सदस्यीय पीठ मुस्लिम फेमिलीज़ आर्डिनेंस मुज्रीअ १९६१ की धारा ४ को इस्लाम के कानून के खिलाफ बताते हुए सरकार को निर्देश दिया है कि वह संविधान में यह बात शामिल करे कि अनाथ पोते को दादा की संपत्ति में हिस्सेदार बनाया जाए. इस प्रकार अदालत ने तलाक, दूसरी शादी और विरासत से सम्बंधित अन्य दूसरे ३८ दायर मामलों प़र १०० पृष्ठों प़र अपने फैसले दिए हैं. यह महत्वपूर्ण निर्णय ३ सदस्यीय बेंच के पूर्व जस्टिस नासिर असलम जाहिद, जस्टिस खलीलुर रहमान, और जस्टिस फ़िदा मोहम्मद खान ने ऐसे माहौल में दिए हैं जब पाकिस्तान मुस्लिम कट्टरतावाद की आग में धधक रहा है. फैसले में कहा गया है कि ख़ुफ़िया निकाह वर्जित है. और निकाह का रजिस्ट्रेशन न कराने वालों के लिये पहले की तुलना में दोगुना अधिक दंड का प्रावधान कर दिया गया है. अब ऐसे अपराधियों को ३ महीने के स्थान प़र ६ महीने की सजा भुगतनी होगी. फैसले में कहा गया है कि इस्लाम में ख़ुफ़िया शादी करने का न तो कोई प्रावधान है और न ही इसकी अनुमति है. इसलिए निकाह का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है. फैसले में कहा गया है कि यदि पति अपनी पत्नी की इच्छा के विरूद्ध दूसरा विवाह करता है तो पत्नी के माता-पिता सहित प्रथम पत्नी और उसके बच्चों का पूरा खर्चा पति को उठाना होगा. इसके लिये पीड़ित पत्नी अदालत का दरवाज़ा खटखटा सकती है जहाँ उसे उसका अधिकार मिल सकता है. अनाथ पोता वसीयत के बिना भी दादा की संपत्ति में से १/३ का दावेदार होगा. तलाक के सम्बन्ध में मुस्लिम फैमिली लाज आर्डिनेंस-१९६१ के अंतर्गत १८ वर्ष से कम आयु को भी तलाक दिया जा सकता था किन्तु नए फैसले ने इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया है. नए निर्देश के अंतर्गत तलाक का अधिकार औरत को है. स्त्री जब यह महसूस करे कि पुरुष उसकी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने योग्य नहीं है, या उसके परस्पर सम्बन्ध बेहतर नहीं हैं, और सबंधों के सुधरने के भी आसार नहीं हैं तो, स्त्री पति से तलाक ले सकती है. ऐसी स्थिति में यदि पति पत्नी प़र अत्याचार करता है या दबाव डालता है तो वह कानून की नज़र में मुलजिम घोषित होगा. फैसले में चन्द मुस्लिम देशों में मुस्लिम समाज का ज़िक्र करते हुए बताया गया है कि मराकश में ऐसी स्थिति में पत्नी को जब यह लगे कि उसका पति दूसरी शादी करना चाहता है, उसे तंग करता है, उसे धोखा देता है, प्रताड़ित करता है, उसे संतुष्ट करने में अक्षम है तो पत्नी अपने पति से तलाक ले सकती है या उसे तलाक दे सकती है. अल्जीरिया के फैमिली ला के आर्टिकल-१९ के अनुसार औरत अपने निकाहनामे में अपनी शर्ते दर्ज करा सकती है जिसका पति को पालन करना आवश्यक है.
इसके अतिरिक्त निकाह का रजिस्ट्रेशन ज़रूरी है. इंडोनेशिया, इराक, उर्दुन, मलेशिया, लेबनान, क्वैत, लीबिया, अल्जीरिया, मलेशिया, मराकश , दमिश्क, तुर्की, यमन और यहाँ तक क़ि बंगलादेश जैसे मुल्कों में निकाह का रजिस्ट्रेशन आवश्यक हो गया है किन्तु पाकिस्तान एक ऐसा देश है जहाँ निकाह के रजिस्ट्रेशन को सिरे से ही टाल दिया जाता है. वहां स्वार्थी मौलवी फ़तवा देकर यह कह देते हैं कि निकाह दो गवाहों की उपस्थिति में ही जाएज़ है. इससे शातिर लोग लाभ उठाकर निकाही पत्नी को इस्तेमाल कर छोड़ दिया करते हैं. नए फैसले के अनुसार अब वहां ऐसा नहीं हो सकेगा. १९९६ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार लाहोर के सिविल कोर्ट में २५० निकाहनामे प्रस्तुत किये गए. इनमें आधे से अधिक जाली थे जिससे वे स्त्रियाँ अपने नान-नफ्क़े से वंचित हो गयीं जिन्हें धोखे से शादी कर छोड़ दिया गया था. अकेले लाहोर में ही ऐसे लगभग २० हज़ार जाली निकाहनामें पाए गए जिनके सहारे लड़कियों को बेचा गया, या स्तेमाल कर छोड़ दिया गया. इस प्रकार के निकाहनामों की संख्या प्रतिवर्ष १० हज़ार तक पहुँच जाती है. इसके अतिरिक्त खुला, तलाक और नान-नफ्क़े के मामले भी उलझा दिए जाते हैं. जब पुरुषों के द्वारा मेहर चुकाने का मामला आता है तो इस्लामी शरई कानून की दुहाइयां दी जाने लगती हैं लेकिन दहेज़ की लेनदारी प़र शरीयत का ज़िक्र नहीं किया जाता. हाँ, मेहर प़र रूपये ३२ .५० सिक्काए-राय्जुल्वक्त (यानी समकालीन मुद्रा) से बात आगे नहीं बढती. जबकि शराअ के अनुसार मेहर अधिक होना चाहिए या हैसियत के अनुसार. यह स्त्री धन है जो उसकी ज़रुरत प़र काम आसकता है. कुरान में कहा गया है कि मेहर की अदायगी पति के लिये वाजिब है. जब मर्द की जिंदगी में औरत दाखिल होती है तो औरत के खर्च की पूरी ज़िम्मेदारी मर्द की हो जाती है. यहाँ तक कि तलाक हो जाने प़र भी औरत के खर्च का ज़िम्मेदार (एक निर्धारित समय तक) मर्द ही होता है. दुखद स्थिति यह है कि मर्द बच्चों को भी औरत के हवाले कर देता है जो ममतावश उन्हें गले लगा लेती है. इस प्रकार तलाकशुदा पत्नी प़र तीन तरफ से हमला हो जाता है. एक-घर छूटना, दूसरा-कोर्ट-कचेहरी की दौड़, और तीसरा-बच्चों की परवरिश की समस्याएं. अपनी एतिहासिक सिफारिशों में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश नासिर असलम जाहिद ने कहा कि औरत सामाजिक व्यवस्था का स्तम्भ है. हमने अपनी रिपोर्ट में औरत के साथ होने वाले अत्याचारों को चिन्हित किया है किन्तु पाकिस्तानी समाज में महिलाओं के अधिकार एक तरह से न के बराबर हैं. इनके अतिरिक्त ऐसी घटनाओं की श्रृंखला का ज़िक्र भी है जो रोंगटे खड़े करने के लिये काफी है. हमें महिलाओं के साथ किये जा रहे दुर्व्यवहार को अब समाप्त करना होगा. कहते हैं कि औरत बहुत बोलती है प़र कहाँ? वह तो गूंगी है. अगर उसके मुंह में ज़बान होती तो मर्द उसपर अत्याचार कैसे कर सकता था? लेकिन पाकिस्तान में ज़ुल्मत की रातों का अभी सफ़र समाप्त नहीं हुआ है. कहते हैं कि औरत को रात के अंधेरों में घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए. शाएद यही कारण है कि पाकिस्तान में अभी रातें लम्बी हैं और गूंगी औरतें घरों से बाहर नहीं निकलीं हैं. लेकिन एक दिन सूरज निकलेगा और औरतें खतरों से आजाद होंगीं, तब उन्हें सड़कों प़र भी आन्दोलन करने से कोई नहीं रोक पायेगा.
नीना गर्ग
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