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Home कथा-कहानी

तीसरी नस्ल के लोग : रामानुज “अनुज”

root by root
January 8, 2020
in कथा-कहानी
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रामानुज “अनुज”

तीसरी नस्ल के लोग

दिसम्बर माह के अंतिम सप्ताह की हाड़ कंपाने वाली ठण्ड, ऊपर से टप-टप टपकती हुई कोहरे की बूंदें और बहता हुआ शीतल समीर।हर साल की तरह इस साल भी उत्तरी भारत सप्ताह भर से कोहरे की चपेट में है। दिल ढलते ही लोग बिस्तर की शरण मे छिप रहे हैं। जिसे जाने की विवशता है, यात्रा करना जरूरी है, उसे येन-केन-प्रकारेण जाना ही पड़ेगा। साल बिदाई को तैयार खड़ा है। आम जन-जीवन, ठिठुरन भरी शीत और कुहरे की जुगलबंदी से अस्त-व्यस्त हो गया है। कौन विगत को बिदाई देगा और कौन आगत का स्वागत करेगा, यह अभी अनिश्चित है। मौसम की बेरुखी से जिंदगी की रफ्तार ठहर गयी थी। आवागवन बाधित होने की बजह से गंतब्य तक पहुँचने की सुनिश्चितता लगभग खत्म सी लग रही थी। रेलगाड़ियों के चक्के जाम हो गये थे। बहुत कम रेलगाड़ियाँ साइकल के रफ्तार से पटरियों पर रेंग रही थी। किसी पैसेंजर गाड़ी के इंतज़ार में सोमा अकेली बैठी हुई उस तरफ नजर टिकाए हुये थी जिस दिशा से उसकी ट्रेन आने वाली थी। आदमी होने का सबूत छिपाए दस-बीस यात्री मुँह तक कम्बल लपेटे, सिकुड़े, दीवालों के सहारे टिके हुये प्लेटफॉर्म में बैठे हुये थे। वे जब खांसते या पटरियों पर किसी मालगाड़ी की सीटी सुनकर आवाज की दिशा में कनखियों से रेल ढूढ़ने की कोशिश में कम्बल से एक आँख बाहर निकालते, तब पता चलता कि वे लोग अभी जिंदा हैं।

सोमा के पापा का आज शाम को एक्सीडेंट हुआ था। वे इलाहाबाद हाई कोर्ट में बाबू हैं। शाम को जब वे न्यायालयीन काम-काज से फारिग होकर घर आ रहे थे, तभी शास्त्री ब्रिज के पास ऑटो रिक्शा से टकराकर घायल हो गए थे। सोमा की पोस्टिंग प्रेमपुर हाई स्कूल में है। यह छोटा सा कस्बा है। वह इसी साल अध्यापक बनी थी। प्रेमपुर, कानपुर के अनेक स्टेशन बाद का छोटा सा रेलवे स्टेशन है। यहाँ केवल पैसिंजर गाडियाँ रुकती है। कानपुर से इलाहाबाद की तरफ जाने वाली सुबह फ़ास्ट पैसेंजर का समय रात्रि दस बजे का है। अब रात्रि के ग्यारह बज रहे थे। सोमा का मन बेचैन होने लगा था। पता नहीँ पापा को कहाँ-कहाँ चोट लगी है। उसे अपने भाई पर रह-रह कर गुस्सा आ रहा था..यह छोटू भी गजब का पागल है, पापा से मेरी बात करानी चाहिए थी। बस ‘एक्सीडेंट हुआ है,’ इतना बताकर फुर्सत हो गया बेवक़ूफ़। अब मेरी कॉल रिसीव नहीं कर रहा है, पापा का मोबाइल स्विच ऑफ है। मम्मी मोबाइल रखती नहीं। अब क्या किया जाये? उसका मन बहुत घबरा रहा था। अगर ट्रेन न आयी तो क्या होगा? कैसे घर पहुँचूंगी? कई तरह की आशंकाए मन को पागल किये हुये थी। वह टहलती हुई बुकिंग ऑफ़िस की तरफ आ गयी। वहाँ भी दो-चार लोग सिमटे-सिकुड़े हुये पड़े थे। काउंटर में बैठा हुआ बाबू ऊंघ रहा था।

“ये कानपुर इलाहाबाद पैसेंजर कब आयेगी?” सोमा ने बुकिंग बाबू से पूछा। उधर से कोई जबाब नहीँ मिला। बाबू या तो नींद की खुमारी में था या ऊंचा सुनता था।
“हलो!।मैं आपसे ही पूछ रही हूँ?” सोमा इस बार ऊँचे में बोली।
“काहे को चिल्ला रही हो? हमें का पता, जहां तुम वहीं हम। कोहरा देख रही हो, ससुरा अपना पसरा हाथ तक ठीक से दिखता नई। रेल भी तो आदमी चलाता है।” किसी बोलती मशीन की तरह बुकिंग बाबू बिना हिले-डुले ही बोल गया।

“कोई सम्पर्क तो होगा उधर से? प्लीज पता करिये न।”
कोमल नारी ह्रदय से निःसृत विनय वाणी से बाबू का कठोर दिल नरम हो गया, अब वह कम्प्यूटर ऑन कर स्क्रीन में रेलगाड़ी तलाशने में व्यस्त हो गया था। इधर-उधर ‘माउस’ घुमाने के बाद उसने बताया कि कानपुर में बहुत अधिक कोहरा है। ट्रेन अभी वहाँ से चली नहीं है।

सोमा निराश मन से चहलकदमी करती हुई पुनः उसी सीमेंटेड बेंच में पालथी मार कर बैठ गयी थी। अब उसे भी जोर की ठण्ड महसूस हो रही थी। रह-रह कर सूखे पत्ते की मानिंद समूचा जिस्म कांप उठता था। लपेटी हुई पश्मीना की शाल बर्फ के पानी में निचोई सी लग रही थी। उसने हथेलियों को आपस में रगड़ा और पर्स से मोबाइल निकाल कर पुनः छोटू का नम्बर मिलाने लगी। इस बार फोन का सम्पर्क हो गया।
“नालायक, फोन क्यों नहीं उठा रहा था? फोन में सम्पर्क मिलते ही वह छोटू को डाँटकर बोली।

“सब ठीक है दिदिया! तुम रात में मत आना, घने कोहरे के साथ ठण्ड तेज है। पापा के पाँव की हड्डी टूट गयी है। डॉक्टर बता रहे थे कि महीने भर में जुड़ जायेगी।” वह एक साँस में बताकर फोन काट दिया।

वह अपनी समझ से नसीहत के साथ पूरी बात बता चुका था। सोमा परेशान हो उठी, उसे लगा कि छोटू असलियत छुपा रहा है। चलो एक बार फिर से पूछती हूँ। सोमा ने दोबारा से छोटू का नम्बर मिलाया, नम्बर मिलते ही छोटू इस बार झल्लाकर बोला..”काहे को परेशान कर रही हो, दिदिया। सोने दो न।”
“फोन मत काटना इस बार…देखो ‘एडिडास’ का स्पोर्ट शू लाऊंगी, तुम्हारे वास्ते।” सोमा जल्दी से बोली।

“ठीक है, बताओ।”
“पापा ठीक हैं न?”
“हाँ बता तो दिया…पैर की हड्डी चटकी है। जुड़ जायेगी, तुम नाहक परेशान हो रही हो, कह दिया न जुड़ जायेगी। दिदिया! अब तुम सो जाओ, मुझे जोर की नीं…आए बा. बाय।”

ऐसी ठण्ड में मुँह तो खुलते नहीं, छोटू की बात सुनकर उसके लबों में हल्की सी मुस्कुराहट तैर गयी। उसे अब यकीन हो आया कि इस बार छोटू सच बोला है। कुहरा और घना हो गया था। प्लेटफॉर्म में गठरी-नुमा मानव आकृतियाँ धुँधली हो चली थीं। बुकिंग बाबू की खुली खिड़की बन्द हो गयी थी। हर कोई कोहरे के आगे नतमस्तक हुआ अपना अस्तित्व खोता जा रहा था। सोमा इधर-उधर नजरें दौड़ाती हुई हताश मन से बेंच पर और सिकुड़ कर बैठ गयी। रात्रि आधी गुजर गयी थी। यदि मोबाइल की घड़ी सही है तो बारह का टाइम हो चला था। अब ट्रेन आने की संभावना खत्म-सी हो गयी थी। दूर-दूर तक अमूर्त सन्नाटा बुनती हुई कुहरे की विशाल चादर के सिवा कुछ भी दिखाई नहीँ देता था। आहिस्ता-आहिस्ता कोहरे के बढ़ते हुये कद को देखकर अब उसे ठण्ड के साथ डर भी सताने लगा था। कुछ देर पहले तक सुदूर बस्तियों से कुत्तों के भूँकने की क्षीण आवाजें आनी बंद हो गयीं थी, पता नहीँ वे जीवित भी हैं, या मर गए। अचानक काले रंग का एक मरियल सा कुत्ता न जाने कहाँ से रोमा के सामने आकर दुम हिलाने लगा। हाड़-तोड़ ठण्ड में दुम हिलाना बड़ी बहादुरी का काम था। उसे उस कुत्ते पर तरस आ गया, काँपते हाथों से उसने बैग से बिस्कुट का पैकेट निकाल कर कुत्ते को खिला दिया। कुत्ता अब रोमा के पैरों के नीचे दोनो पंजों में थूथुन छिपाकर बैठ गया था।

कुत्ते को बैठे देखकर रोमा के भीतर का हौसला बढ़ गया, उसने सोचा की यह निर्वस्त्र होकर भी मेरी तरह कांप नहीँ रहा है, मेरे पास तो गर्म कपड़े हैं, कश्मीरी गर्म शाल है, फिर यह ठण्ड किसलिए असर दे रहा है। अब वह बेंच पर आराम की मुद्रा में बैठकर आँखे बंद कर ली थी। कुछ वक्त यूँ ही गुजरा होगा कि जिस्म पर किसी की छुअन महसूस कर उसने आँखे खोल दी।आवारा से लगने वाले तीन लड़के बेंच में उससे सटकर बैठ गये थे। उन्हें देखकर प्रथम तो वह डरी फिर हिम्मत बटोर कर बेंच से उठते हुये जोर से बोली…”ये क्या बदतमीची है?”
“बदतमीची?? हा.हा.हा.हा मैडम! कितनी ठण्ड तेज हैं, हमारे साथ चलो, जान बचाने का कोई और उपाय नहीँ है, शरीर की गर्मी से ही ठण्ड से बचा जा सकता है।” फर्स पर गुटके की पीक छोड़ता हुआ पीली दाँत वाला युवक बोला।
“तुम लोगों के घर में मां-बहन तो होंगी, उन्हीं से चिपक कर …रोमा का वाक्य पूरा नहीँ हुआ था, कि उसका एक अन्य साथी चाकू तानकर बोला..
“सीधी तरह से हमारे साथ चलो, वरना….।” युवक के हाथ में खुला चाकू देखकर रोमा डरकर जोर से चीख उठी…”बचाओ..बचाओ..कोई है?”

वे बदमाश लड़के रोमा को बाहर की तरफ खींचने लगे थे। रोमा बराबर चीख रही थी, लेकिन मदद के लिए कोई उठ नहीँ रहा था। जबकि उसकी चीख हर कान तक अवश्य पहुँची होगी। हाथ पकड़कर घसीटता हुआ वह युवक रोमा को डांट कर बोला…”और जोर से चिल्ला ले….इधर साले सब हिजड़े पड़े हुये है..ही.ही.ही.ही… ये तेरी मदद को उठेंगे।” तभी कोई जोर से कंबल परे फेंककर उठा और चाकू वाले युवक के पेट पर एक लात जमाता हुआ भारी आवाज में बोला…”तूने मेरी कौम को गाली दिया रे…हम तो देर से तेरा नाटक देख सुन रहे थे। अपुन तो इंतज़ार में थे कि कोई औरत-मरद मदद को उठेगा अपुन तो हिजड़ा है। हमें इल्म नहीँ था कि इधर को चौथी नस्ल का लोग पड़ा है।”

वो हिजड़ो की टीम थी, चार हिजड़े ताली ठोंकते हुये और उठकर आ गये थे, उन सबने मिलकर उन बदमाश युवकों की जबरदस्त धुनाई कर दी। वे किसी तरह अपनी जान बचाकर कुहरे में विलीन हो गए थे। उनके पूछने पर सोमा ने उन्हें सब बता दिया। पूरी बात सुनकर एक सयाने से दिखने वाले हिजड़े ने अपने साथी से कहा..”शबनम, लड़की को अपने साथ सुला ले, इसकी तरफ कम्बल डबल मार देना।”
सोमा के कदम खुद-ब-खुद उस ओर बढ़ चले थे, जिधर हिजड़ों ने बिस्तर लगा रखा था।
*****

रामानुज “अनुज”

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