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Home कथा-कहानी

खारे पानी की मछलियाँ

suraj singh by suraj singh
January 8, 2020
in कथा-कहानी
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डॉ रंजन ज़ैदी

विज़िटिंग रूम में मेरी उम्र के लगभग 5-6 युवक-युवतियां बैठे थे। पहला चक्र हो चुका था। दूसरे चक्र में किसी एक को चुना जाना था। उम्मीद कम ही थी। क्योंकि जो लोग रह गये थे, वे भी कम योग्य नहीं थे। फिर भी मैं इस बार आशान्वित था।
कुछ ऐसा लग भी रहा था कि मैं इस बार अवश्य कामियाब होऊंगा। मेरे ठीक सामने एक बड़ा सा एक्वैरियम था जिसमें तरह-तरह की रंगीन मछलियां तैर रही थीं। इनमें एक सफेद रंग की मछली घूम-फिर कर ठीक मेरे सामने आ जाती थी मानो वह मुझे ही देखना चाहती हो। मेरी दृष्टि भी उसी पर टिकी हुई थी।
ऐसा लगा मानो वह सफेद रंग की मछली मुझे बुला रही है। मैं एक्वैरियम की ओर खिंचा चला जा रहा हूं। यहां तक कि वह एक समुद्र के रूप में बदल रहा है। मैं समुद्र में उतरने लगा हूं। लहरें आकर मुझे पीछे धकेल देती हैं। मैं संभल कर फिर आगे बढ़ने लगता हूं। तभी कुछ शार्क मुझे चारों ओर से घेर लेती हैं। फिर एक मोटी सी लहर मेरे ऊपर से होकर गुज़र जाती है। गिर कर मैं फिर संभलता हूं। इस बार सारी शॉर्क ग़ायब हो जाती हैं। मैं साहिल की तरफ लौटने लगता हूं तो एक सफेद डाल्फिन मेरे सामने उछाल मारती है और कुछ इस तरह से क़लाबाज़ियां खाती हुई मेरे गाल को चूम कर गहरे में जा छुपती है कि मैं आश्चर्य चकित रह जाता हूं।
‘‘श्री शांतनु…….।’’ रिसेप्शनिस्ट लड़की की आवाज़ सुनकर मैं चांकै पड़ता हूं,‘‘अब आपका नम्बर है, जाइए!’’

**
मीराबेन बाटलीवाला ने सुनहरी कलर वाले पतले फ्रेम वाली ऐनक के भीतर से झांकते हुए भेदिया दृष्टि से मुझे टटोला। पहले तो मुझे बड़ा अजीब सा लगा, लेकिन फिर सहज सा हो गया। वह मेरे प्रोफ़ाईल को फिर से देखने की ग़रज़ से पन्ने उलटने-पलटने लगी थीं। एक हुंकारी भर कर बड़े ही इत्मीनान से वह सोफ़े की पीठ से टिक जाती हैं। मैं उनकी मनःस्थिति को समझ नहीं पा रहा था। अपनी गर्दन पीछे ढुलका कर शायद उन्होंने अपनी आंखें मूंद ली थीं। कहीं बहुत दूर तक का सफ़र तय कर जब वह लौटीं तो आंखों में सफ़र की थकान साफ़ दिखाई देने लगी थी,‘‘तुम्हारे इतने अच्छे अकैडमिक प्रोफ़ाईल को देखते हुए मैं यह कैसे विश्वास करूं कि तुम किसी कन्वेंशनल नौकरी के स्थान पर मेरे कंसलटेंट के रूप में यहां काफ़ी समय तक टिके रह सकोगे?’’
‘‘विश्वास तो पत्थर की मूर्ति में भी भगवान को बिठा देता है। मूर्ति की स्थापना से पहले ही हम विश्वास-अविश्वास के मर्म को कैसे समझ सकते हैं मैम?’’ मैं अपनी निर्भीकता को कम नहीं करना चाहता था, भले ही मुझे यह नौकरी मिले या न मिले।
मैंने देखा, श्रीमती मीराबेन बाटलीवाला के होंठों पर स्वतः ही थकान भरी बारीक सी मुस्कान उभर आई थी। वह अपनी ऐनक को उतार कर उसके लैंस साफ़ करने लग जाती हैं। उनका प्रश्न उभरता है,‘‘मिस्टर शांतनु! मैंने कहीं पढ़ा था कि ‘जीव’ सब में समान होता है। कहां से आता है, कहां चला जाता है, पता नहीं। तुम इस पर प्रकाश डाल सकते हो?’’
सुन कर अच्छा लगा। खारे शहर के समुद्र की इस मछली के प्रति मेरे मन में तनिक श्रद्धा सी उमड़ पड़ी। पहले का सोचा और संदेहों की बुनियाद पर निर्मित सब कुछ हरहराकर गिरता सा नज़र आया। भावनाओं में घुमड़ता आवृत्त कहीं रिसता सा जा रहा था। इसी तरह पुंसत्व का अभिमान भी मीराबेन के सामने रेत के घरौंदे की मानिंद साबित होने लगा था। मीराबेन की आंखें चेहरे पर चुभती सी नज़र आईं। पूछे गये प्रश्न की सार्थकता का सही उत्तर एक चुनौती सी लगी। व्यग्रातिरेक में मीराबेन बोल उठीं,‘‘नहीं प्रकाश डालना चाहते हो तो कोई बात नहीं। मैं दूसरा प्रश्न कर सकती हूं।’’
‘‘ऐसी बात नहीं है मैं।’’ मैंने कहा,‘‘चूंकि विषय बहुत गम्भीर है और इसके उत्तर में विस्तार है, इसलिए मैम! आत्म-शक्ति बटोरते हुए उत्तर देने का निमित्त तलाश रहा था।’’ मैंने देखा, मीराबेन बिना पलक झपकाये मुझे देख रही हैं। अंतरानुभूति में लगा, मानो मैं पुराने वक्तों के जंगल में स्थित किसी गुरुकल का कोई ऋषि या क्षत्रियराज राजन प्रवाहण जैबलि हूं और मीराबेन, ऋषि गौतम आरुधि उद्दालक, मेरे समक्ष समिधा लेकर घुटनों के बल बैठी हैं। मैंने कहा,‘‘जीवन का रहस्य गूढ़ है। जीवन पंचतत्वों का मिश्रण है…..!”
“अच्छा, कैसे?” वह संभल कर बैठ जाती हैं.
“श्रद्धा, वर्षा, अन्न, रेतस और जल।’’ मैं तो पहाड़ के बरसाती नाले की तरह बह चला था. छात्र जीवन का रट्टाफ़िकेशन आज इस समय काम आने वाला था. मैंने कहा,‘‘स्त्री अग्नि है, पुरुष का लिंग समिधा। उपमंत्रणा, धूम तो योनि ज्वाला। स्खलन, अंगार तो स्फुलिंग, आनंद। अग्नि में वीर्य का हवन, आहुति से गर्भ और उसके उल्ब में जीव का जन्म। जन्म के उपरांत एक निर्धारित आयु तक का जीवन और फिर अग्नि में विलय। यही जीवन और मृत्यु का चक्र है। जिस निर्दिष्ट स्थान से जीवन चलता है, वहीं लौट जाता है। इन्हीं जीवों में जो पांचों अग्नियों को जानता है, वही उत्तम लोक को पा जाता है।’’
देर तक की स्तब्धता के उपरांत मीराबेन जैसे किसी शार्क मछली की तरह गहरे पानी से उछल कर ऊपर आ गईं और सतह पर तैंरते हुए मेरे पास से होकर गुज़र गईं। मछली की दुर्गंध के स्थान पर जवाकुसुम की सुगंध के झोंके ने मुझे विश्वास दिला दिया कि मीराबेन को शायद मैंने निराश नहीं किया है। कानों में सारा सिंगवानी की आवाज़ गूंजी है,‘‘तुम तो एक कम्लीट म्यूज़िकल-बैंड हो। सुरों का एकसाथ थिरकता आर्द्र और रति वेद के व्याकरण-पंडित। भला तुम्हें कौन इग्नोर कर सकता है.’
होठों पर शायद अन्यमनस्क सी स्मित रेखा उभर आती है। खोखला दंभ! यदि इसमें लेशमा़त्र भी सच्चाई होती तो आज मैं इस खारे शहर में अपने तन से अंधेरे सम्बंधों में स्त्रीत्व की अनुभूति में व्यवसायिक सिहरन पैदा करते रहने का जोखिम न उठा रहा होता।
इंटरकाम पर मीराबेन ने अपनी निजी सचिव मैरी ब्रिगेंज़ा को इत्तिला दी कि बाकी उम्मीदवारों को साक्षात्कार के लिए वह कम्पनी के उप-प्रबंधक के पास भेज दे।
कानों में कोई फुसफुसाता है, ‘मीराबेन अब लंच के लिए घर जाएंगी।‘
अपने इस आदेश के बाद वह खड़ी हो गईं और मैरी की ओर हाथ बढ़ाते हुए मुझसे कहा कि आज के रिज़ल्ट के बारे में कल तुमको फ़ोन पर सूचित कर दिया जायेगा।
*********

श्वेतकेतु, उद्दालक का पुत्र।
पिता के चरणों का स्पर्श कर वह पंचाल के क्षत्रियों की एक सभा में भाग लेने जा रहा था। स्वभाव में अत्यधिक आत्मग्लानि थी। पिता ने सारा पांडित्य धाराशायी कर दिया था। उनके समक्ष उसकी स्थिति एक याचक सी होकर रह गयी थी। सात का अध्ययन और सारा अर्जित ज्ञान और स्वभाव में आ गया अहंकार, गत कुछ दिनों में हरहरा कर ढह गया था। कैसा अद्भुत आश्चर्य है कि सात वर्षाे के दौरान उसके ज्ञान में इस गूढ़ रहस्य की पर्तें तक गुरुकुल में नहीं खुल पायीं कि सृष्टि के आदि में क्या था? कहीं उसके ज्ञान का अहंकार पंचाल की राजसभा मे चकनाचूर न हो जाये। पिता के शब्द कनों में आशीर्वाद घोलने लगे,‘हे सौम्य! जब तक अहंकार अंगारा बनकर ईंधन से दूर रहेगा, ईंधन राख नहीं बनेगा। आत्मविश्वास बनाये रख, विजय तेरी होगी।’ पिता के आशीर्वचन के उपरांत भी पंचाल की राजसभा तक पहुंचने से पूर्व उसके चिंतन में आंधियों का आधिक्य रहा। स्वभाव में अजानी सी दीनता घर करने लगी थी। जीने का मोह घटने लगा। मन हुआ कि जल-समाधि ले ले। किन्तु नेत्रों के समक्ष पिता की छवि आ गई। पंचाल पहुंचने के रास्ते दासों की एक टोली उद्दालक के साथ हो ली। दासों को भी पंचाल जाना था। कहीं पास से ही एक पड़ाव पर टोली ने कुछ देर विश्राम करने की इच्छा व्यक्त की। उद्दालक एक घने वृक्ष के नीचे विश्राम करते-करते सो गया।
********
सारा सिंगवानी के फोन पर मुझे मैरीन-ड्राइव स्थित उत्कर्ष अपार्टमेंट के 13वें फ्लोर पर पहुंचना था। लिफ्ट में मेरे साथ एक स्त्री भी दाखिल हुई। मैं उसे नहीं देखना चाहता था लेकिन स्वतः ही नज़रें टकरा गईं। स्कर्ट पर बिना आस्तीन के ब्लाउज़ को विभाजित करती चौड़ी बेल्ट, पके बालों का डाई-श्रृंगार और काजल की रेखाओं से झांकते यौवन का निमंत्रण, अद्भुत किंतु आतुरता और कौतुकता का समावेश। शुरूआत में ही अनुभव और बेबाकी का प्रदर्शन करते हुए स्त्री ने पूछा,‘‘अप्वाइंटमेंट है?’’
मैंने कहा,‘‘हां!’’
उसने अपने फ्लैट का नम्बर दिया,‘‘मेरे पास आज काफ़ी समय है। दो घंटे तुम्हारे साथ बिता सकती हूं। न टाइम हो तो पिकअप ज्वाइंट्स दे सकते हो।’’ कह कर उसने अपना विज़िंटंग कार्ड मेरी ओर बढ़ा दिया।
वह शायद अंतिम तल था जहां पहुंच कर मुझे अपनी ग़लती का अहसास हुआ। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं इस शहर में आकर इस हद तक गिर जाऊंगा।
रोटी-रोज़ी की चाह मुझे कमाठीपुरा की वेश्या जैसा बना देगी। मां ने कभी नहीं सोचा होगा कि जो कद-काठी वह धूप देकर मालिश करके तैयार कर रही है, वह एक दिन एलीट महिलाओं की हविस को शांत करने के काम आयेगी। अजीब सी वितृष्णा ने एकाएक मुझे जकड़ लिया था।
किसी ने टोका,‘‘किदर जाने का?’’
लिफ्ट में आकर ही अहसास हुआ कि लोग संदेह से देख रहे हैं। आतंक के साये ने लोगों को कितना शंकित कर दिया है। मैंने देखा, लोग गंतव्य तक डटे रहे। जब तक फ्लैट का दरवाज़ा खुला नहीं और मैं अंदर प्रविष्ट नहीं हो गया, लोग इधर-उधर नहीं बिखरे। अंदर ‘सारा’ भड़क उठी,‘‘अब तक गेट पर कितने ही फोन कर चुकी हूं। पूरा अपार्टमेंट ढूंढने में लग गया होगा। पर हुज़ूर, आप पता नहीं कहाँ अटक गये. कोई सप्लिमेंट कन्साइन था? फ़ोन भी बंद कर रखा है, क्यो?’’
एक गाढ़ी ख़ामोशी के बाद सारा का गुस्सा शांत हुआ.
‘‘खैर छोड़ो! पानी पियो।’’ सारा के क्रोध का पारा जिस गति से चढ़ा होगा, उसी तेज़ी से नीचे भी आ गया था। उसने कहा,‘‘इनसे मिलो! यह मेरी नीस है, प्रिया खन्ना। मैंने तुम्हें इसकी मीटिंग बनाने के लिए बुलाया था। मुझे अभी आफ़िस भी जाना है। फ़िलहाल तुमसे एक डील करनी है।’’ कह कर सारा पर्दा उठा कर एक कमरे में चली गई।
प्रिया अब तक नज़र झुकाये मेरे सामने बैठ चुकी थी। उसके अर्द्ध-वक्ष पर बिखरी बालों की लटें, सुडौल देह और कुछ ऐसा कि जिसे देख कर जुगुप्सा भीतर तक रेंगती चली गई। वह मुझे दूसरों से भिन्न नज़र आई। कुछ-कुछ लजाई सी, खुद में सिमटी-सिकुड़ी मानों पहली बार उसे किसी गै़र मर्द के सामने लाया गया हो। ऐसा लगा जैसे वह मीठी नदी के जल से भरी हुई कोई सुराही हो। खारे शहर में ऐसी महिला से शायद उसका पहली बार सामना हो रहा था।
सारा लौटी तो हाथ में नोटों का एक बडंल था। उसने वह बडंल मेरे सामने फेंक दिया,‘‘एक नया अग्रीमेंट! प्रिया से तुम्हें विदाउट प्रिकाशंस मीटिंग बनानी है। तुम समझ रहे हो, मैं क्या कह रही हूं?’’ उसने मेरी आंखों में आंखें डाल कर कुछ ऐसा कहा मानों मैं उसकी उस सांकेतिक भाषा को सदियों से समझता आ रहा हूं। उसने पर्स कंधे पर डाल कर कार की चाबी उंगलियों पर नचाई और बोली,‘‘प्रिया को मैंने सब समझा दिया है। वह फुलली कोआपरेट करेगी। अब मैं चलती हूं। ओके प्रिया, टेक केयर!’’ कह कर वह हवा के किसी गर्म झोंके की तरह कमरे से बाहर निकल गई।
उसके जाते ही लगा मानो मुझे उबकाई सी आने लगी हो। मैं तेज़ी से वाशरूम की ओर दौड़ पड़ता हूं। देर तक आईने के सामने मैं बेसिन पर झुका हाँपता रहता हूँ. पता नहीं आज क्यों इंटरव्यू के बाद अपने भीतर हो रहे एक बड़े परिवर्तन को महसूस कर रहा था. तभी मुझे दरवाज़े पर चीनी मिटटी की सी बनी मूर्तिवत प्रिया खड़ी नज़र आई.
**
कुछ घंटों बाद सड़क पर मैं गाड़ी दौड़ाते हुए काफी राहत सी महसूसने लगा था, मानो अगर रफ्तार धीमी की तो मुझे फिर उल्टी आ जायेगी। फिर वाशरूम के गेट पर प्रिया डूबती आवाज़ में पूछेगी,’मैं पीठ सहलाऊँ?’ मैं ज़ोर के ब्रेक लगाकर फुटपाथ से लगे किसी फैक्ट्री के कैम्पस की दीवार के सामने रुककर स्टीयरिंग-व्हील पर माथा टिका देता हूँ. उस समय मैं यह भी भूल जाता हूँ कि क्लाइंट के यहाँ से वापसी पर मुझे किसी दूसरे क्लाइंट के ऐड्रेस पर सर्विस देने जाना था।
***************

आरुणि उद्दालक ने श्वेतकेतु से कहा,‘‘विवाह कर ले सौम्य! तू नहीं जानता कि स्त्री यज्ञ-स्थान है। उसका जनन स्थान वेदी है। संभोग यज्ञ है। संतानोत्पादन गृहस्थ धर्म का रहस्य है। पत्नी के अतिरिक्त अधिक वीर्य रेतस स्वप्न या अन्यत्र स्खलित हो तो मनुष्य को प्रायश्चित कर स्वयं को पाप से मुक्त करना चाहिए। ऐसा ऋषि मौदगल्य नाक और कुमार हारित ने भी कहा था। वीर्य मनुष्य देह का सार है। इस सार-संग्रहण के लिए ही प्रजापति ने स्त्री को जन्म देकर उसका पद नियत किया है।’
श्वेतकेतु सिर झुकाये सुन रहा था।
‘‘हे पुत्र!’’ आरुणि उद्दालक ने कहा,‘‘स्त्री को गर्भ धारण कराना है तो उसे सर्व-प्रथम ऋतुस्नान करा। ऋतुधर्म के समय उसके साथ किया जाने वाला संभोग महापाप है। तू नहीं जानता सौम्य कि पुथ्वी अग्नि से गर्भवती हुई थी। ऐसे ही इंद्र से द्युलोक और वायु से दिशाएं गर्भयुक्त हुईं। स्त्री तो पृथ्वी है, वही पुत्र को उत्कर्ष का मार्ग दिखाती है।’’
श्वेतकेतु ने कहा,‘‘हे पिता! विवाह करने के लिए मैं तत्पर हूं।“
*************

मैंने मीराबेन के बंगले में गाड़ी मोड़ी तो गार्ड ने रोक लिया। कुछ क्षण प्रतीक्षा की प्रतीक्षा के बाद मुझे अंदर जाने की अनुमति मिल गई। विज़िटर पर्किंग में मुझे सारा की गाडी़ दिखाई दी। शॉक सा लगा, ‘सारा यहां कैसे? कही उसने मीरा मैंम को मेरे अँधेरे-व्यवसाय के बारे में कुछ बता तो नहीं दिया? कहीं यह नौकरी भी मेरे हाथ से …..।
मैं अब सही ज़िन्दगी जीना चाहता हूं। मां का सपना पूरा करना चाहता हूं। उसके लिए बहू लाना चाहता हूं। अपने अब तक के क्रियाकलापों से मुक्त होकर एक नये जीवन की शुरुआत करना चाहता हूं। प्रिया भी तो यही चाहती है। वह अपने परिवेश से मुक्त होकर मेरे साथ जीना चाहती है। अब वह अपनी कोख को बांझ नहीं होने देना चाहती। कितना कष्ट सहा है उसने। हर बार एबार्शन! क्या वह जानबूझकर अपने गर्भ में कन्या भ्रूण को जगह देती है? उसके ससुराल वाले यह बात क्यों नहीं समझ पाते कि बेटियां घरों की खुशियां होती हैं। वे भी अपना एम्पायर खड़ा करने की सलाहियत रखती हैं। वे भी अपनी विरासत को संभाल सकती हैं। आज बेटियां, बेटों से कितना आगे निकल रही हैं। यह कैसी ज़िद है कि अपनी कोख से वंश को आगे बढ़ाने के लिए स्त्री बेटे को जने, चाहे उसे पर-पुरुष के साथ शारीरिक संसर्ग ही क्यों न करना पड़े। यह कैसी पारिवारिक मर्यादा आरै उसके अहम् के संस्कार हैं ?
जो पर-पुरुष से शारीरिक रिश्ता नही चाहती, उसे क्यो मजबूर किया जाता है?’ इसकी क्या गारंटी है कि मैं प्रिया को पुत्र-रत्न दे सकूंगा? यह तो सरासर मानसिक यातना है, जिसका रास्ता शारीरिक यातना तक जाता है। प्रिया, इसी यातना से ही तो गुज़र रही है। उसका बिलकना मैं कैसे भूल सकता हूं, ‘मुझे ये सब बहुत गंदा लगता है। ये सब मेरे संस्कार में नहीं है। मेरे पति कहते हैं कि मैं बहुत ठंडी हूं। मैं नहीं जानती कि इसका क्या मतलब होता है, यह तो आपने मुझे पहली बार अहसास कराया। क्या मैं आपको वही लगी जैसा मेरे बारे में प्रचारित किया जाता रहा है.”
मैंने कहा,‘‘………….नहीं!’’
‘‘फिर मैं इस आरोप को क्यों सहूं?’’ प्रिया ने कहा,‘‘मैं अब एबार्शन नहीं चाहती। मैं भी जीना चाहती हूं। क्या आप मुझे सहारा देंगे?’’
**
मेरे पास गार्ड ने आकर जानकारी दी कि ‘मेम साब प्रतीक्षा कर रही हैं’. मैं उंगलियों से बालों को संवार कर मुंह साफ़ करता हूं और ‘जो होगा, देखा जायेगा’ का भाव लिये कार से बाहर आकर अंदर जाने के रास्ते पर आ जाता हूं। इसी समय पोर्टिको में दो पुलिस की जीपें आ लगती हैं। मुड़कर आश्चर्य से देखता हूं, पुलिसवाले तेज़ी से उतर कर इधर-उधर मोर्चा संभालते नज़र आते हैं। मुझे नहीं मालूम था कि यह किसी तूफ़ान के आने की निशानदेही थी।
अंदर आने की अनुमति की मुद्रा में मैं दरवाजे के बीचो-बीच खड़ा हो जाता हूँ। एक बड़ी़े सी बैठक में कई लोग सोफों में पहले से ही धंसे बैठे नज़र आते हैं। ठीक सामने सिंगिल सोफे पर मीराबेन बैठी थीं। उनकी बगल में सारा सिंगवानी थीं। दरवाज़े के बीचोबीच मुझे खड़ा देख सब बारी-बारी से चौंकते हैं। मैं अंदर आकर अपने बैठने की जगह टटोलता हूं तो सारा सिंगवानी की कठोर आवाज़ कानों से टकराती है,‘‘वहीं खड़े रहो।’’
सुनकर मैं ठिठक जाता हूं। समझ जाता हूं कि भाग्य ने फिर मुझे धोखा दे दिया है। अब यहां भी नौकरी की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। सारा ने शायद मेरे अंधेरे व्यवसाय पर से पर्दा उठा दिया है। किसी अज्ञात आशंकावश उस क्षण मेरी आंखें स्वतः ही झुक सी जाती हैं।
हॉलनुमा बैठक में सन्नाटा सा व्याप गया था। मैंने सारा को सवालिया दृष्टि से देखा। उनका चेहरा तमतमाया हुआ था। मानो, वह अपना क्रोध दबाने का प्रयास कर रही हों. शुरुआत मीराबेन ने की,‘‘प्रिया कहाँ है?’’
‘‘प्रिया?’’ नाम सुनकर अकस्मात् सारा शरीर पसीने-पसीने हो जाता है। ‘प्रिया कहां है? यह मैं कैसे जान सकता हूँ? उसने तो मुझे नहीं बताया कि वह कहाँ जा रही है. कानों में प्रिया के शब्द अवश्य टकराये,‘मैं अपने जीवन से तंग आ चुकी हूं। मैं अब अपने पति के साथ भी नहीं सो सकती। घृणा आती है मुझे उस आदमी से जो अपनी पत्नी को दूसरे मर्द की बाहों में सौंप देने की अनुमति देता है। मैं वेश्या नहीं हूं। तुम्हारे साथ लेटकर मैं अब उस आदमी के पास नहीं लौट सकती जो कुछ दिन पहले तक मेरा पति हुआ करता था। आई हेट, आई हेट हिम,,,,,,!’
‘मैं समझा नहीं मैं ! प्रिया के बारे में …?’ मेरी आवाज कुछ-कुछ लड़खड़ाने ने लगी थी। इससे पहले कि मैं रूमाल से अपने मुंह पर आये पसीने को साफ़ कर पाता, सारा अपनी जगह से उठ कर सैंडिल लिये मेरी ओर चील की तरह झपटती है और गालियां देती हुई मुझ पर सैंडिल से वार करने लग जाती है।
‘‘साले, गंदी बस्ती की गलियों में मुंह मारते रहने वाले आवारा कुत्ते, हरामी, गंदी नाली के कीड़े, कमाठीपुरा के गोंदले! तेरी इतनी हिम्मत? तुझे मेरा ही घर मिला। बोल, कित्ता पैसा चाहिए मेरी प्रिया की रिहाई के बदले?’’
सारा पर मानो पागलपन का भूत सा सवार हो गया था। सभी लोग शायद इस अप्रत्याशित हमले के लिये तैयार नहीं थे। उनमें से दो-तीन लोग हड़बड़ाहट में उठ कर उसे काबू में करने का प्रयास करने लगे, लेकिन उस पर तो मानो दौरा सा पड़ गया था। उसे काबू में करने के लिए बाहर तक पहुंचे शोर को सुन कर एक पुलिस अधिकारी अपनी समूची हड़बड़ाहट के साथ अंदर तक आ गया। सारा की गालियां समाप्त नहीं हो रही थीं।
मीराबेन का चेहरा शांत था। वह मुझे अपलक देख रही थीं। मैं स्वयं को बचाने का भरसक प्रयास करता हुआ थिरक सा रहा था। मेरे लिए ये क्षण बेहद अपमानजनक थे। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि इस शहर में मुझे इस तरह के हालात से भी होकर गुज़रना होगा।
‘‘पूछो इस साले रंडे से कि मेरी प्रिया को इसने कहां छुपा कर रखा है?’’ हांफते हुए खरखराती आवाज़ में सारा ने मेरी ओर इंगित करते हुए पुलिस इंस्पेक्टर से कहा और इतना कह कर वह अपने को उन लोंगों की पकड़ से मुक्त कराने लगी जिन्होंने उसे पकड़ रखा था जिसमें पुलिस इंस्पेक्टर भी शामिल था।
स्थिति का अनुमान लगाकर इंस्पेक्टर ने मेरी कलाई मज़बूती से पकड़ ली। मैं उस समय खुद को बहुत अपमानित महसूस कर रहा था। सारा ने न केवल मेरी शर्ट के सारे बटन तोड़ दिये थे बल्कि उसने उसकी जेब, आस्तीन और गिरेबान तक फाड़ दिया था। मैंने अपनी सांस पर काब पाते हुए इस्ं पेक्टर से कहा,‘‘यह तो सरासर गुंडागर्दी हुई। पुलिस की मौजूदगी में मुझे एक औरत अकारण अपमानित करती रहीऔर आप,,,,,?’’
आगे मैं कुछ भी कहने लायक नहीं रहा क्योंकि पुलिस इंस्पेक्टर ने मेरे गाल पर ज़न्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया था। यही नहीं, वह मुझे मारता और खींचता हुआ बाहर तक ले आया और सिपाहियों के हवाले कर ऐसी भद्दी गाली दी कि मैं यहां उसका ज़िक्र नहीं कर सकता। यही नहीं बल्कि अपने साहब को प्रसन्न करने के उद्देश्य से एक सिपाही ने मेरे नितम्बों पर ऐसी लाठी से प्रहार किया कि मैं कुछ कदमों तक लड़खड़ा सा गया। जैसे ही संभला, पुलिस वालों ने मुझे दबोच कर जीप में ऐसे डाल दिया जैसे मैं आदमी नहीं कोई अनाज का बोरा हूं।
इंस्पेक्टर अभी तक मुझे गालियां दिये जा रहा था। जीप स्टार्ट हो गई थी। मैंने सुना, इंस्पेक्टर अपने आदमियों को आदेश दे रहा था कि वे मुझ रंडे को पुलिस स्टेशन ले जाकर लॉकअप में बंद कर दें।
मुझ पर वर्तमान घटना ने अपना गहरा असर छोड़ा था। क्षण भर में मेरा सब कुछ तबाह हो गया था। मैं अपनी ही नज़रों में इस हद तक गिर चुका था कि गर्दन उठा कर पुलिस के सिपाहियों तक से आंख मिलाने का साहस नहीं जुटा पा रहा था।
रफ्ता-रफ्ता मुझ पर मूर्च्छा सी छाती जा रही थी।
*************
कोलाहल सुन कर दालभ्य ने प्रश्न किया,‘‘यह कैसा कोलाहल है। कौन लोग
वहां एक व्यक्ति पर झुके हुए हैं?’’
कुछ-कुछ ऐसा ही प्रश्न उद्दालक ने किया।
‘‘ऋषि जैगीषव्य, घोर और कुंडजठर ने एक शूद्र को दबोच रखा है।’’ किसी ने आकर सूचना दी।
‘‘कारण?’’ उद्दालक की भृकुटियां तन गईं।
‘‘काफी समय से शूद्र युवक गुरुकुल के बाहर वेद सुन-सुन कर याद करता रहा था।’’ सूचना देने वाले ने जानकारी देते हुए बताया,‘‘आरोप है कि विराट की नगरबधू कुमारिका मित्रा से इसके अवैध दैहिक सम्बंध हैं और उस स्त्री के गर्भ में इसका बीज अंकुरित हो रहा है।’
युवक सहायता के लिए चिल्ला रहा था। इससे पहले कि उद्द्यालक सहायता देने के लिए घटनास्थल पर पहुँचता, ऋषि जैगीषव्य के आदेश पर वणिक घोर और कुंडजठर ने युवक के कान में खौलता हुआ सीसा उंडेल दिया। खौलते सीसे ने युवक को उसकी एक लम्बी हृदय-विदारक चीख के साथ मूर्छित कर दिया था।

*********

रात, लगभग दो बजे मुझे लॉकअप से निकाल कर इंस्पेक्टर सदाशिव आप्टे के सामने लाया गया। मेरीे बांईं कलाई में हथकड़ी थी। पूरा शरीर अनायास ही थर-थर कांप रहा था मानो जाड़े की कडक़ती रात में मुझे निर्वस्त्र खड़ा कर दिया गया हो। मेरे बाल इतने भीग रहे थे जैसे मैं अभी-अभी नहा कर बाथरूम से बाहर निकला हूं।
‘‘बैठ जाओ।’’
इंस्पेक्टर आप्टे की आवाज़ में मुझे अप्रत्याशित मानवीयता की अनुभूति हुई। अनमना सा मैं, मेज़ के सामने कुर्सी पर बैठ जाता हूं। इंस्पेक्टर सदाशिव आप्टे किसी को आवाज़ देता है,‘‘ओये पानवलकर! शांतनु जी के लिए चा ले आ।’’
सन्नाटे भरी रात। कहीं से कोई आवाज़ नहीं। शायद मुझे टार्चर-रूम में ले आया गया था। फिल्मों में अक्सर देखा था। हड्डियों के पोर-पोर चटखने लगे थे। न जाने इस रात यहां मुझ पर कौन-कौन से हथकंडों का इस्तेमाल किया जायेगा। कंपन था कि थम नहीं रहा था। टार्चर रूम के द्वार-पट खुले हुए थे। दो सिपाही बाहर बेंत लिये ड्युटी पर तैनात थे। सामने, छोटी सी मेज़ से उठ कर कानों तक कांच के टकराने की आवाज़ अवश्य पहुंचती है और नाक के नथुनों तक अंग्रेज़ी शराब की गंध भी।
आप्टे फिर लहकता है,‘‘ओये वडेकर! नीचे से सोडा भी मंगा ले ।’’ ड्युटी कांस्टेबिल आकर बताता है कि ‘‘पानवलकर गये ला। मैं सोडा लाता साब!’’ सा’ब लापरवाही से जवाब देता है,‘‘ठीक है, ठीक है. जा! जल्दी से ।”
सदाशिव आप्टे गहरी खामोशी के बाद तदुपरांत मुझसे सम्बोधित होता है,‘‘मेरी तरफ़ देखो! आंखें मिला कर बात करो।’’
मैं झिझकते हुए गर्दन सीधी कर बड़ी कठिनाई से आप्टे को देखता हूं। वह मुझे अत्यंत गम्भीर मुद्रा में नज़र आता है। वह ऐसे बोलता है मानों किसी फिल्मी सेट पर डॉयलाग बोल रहा हो,‘‘इस शहर में जिनकी गर्दनें झुक जाती हैं, वे गटर में फेंक दिये जाते हैं। तेरे जैसे लोग यहां के अक्खा समुंदर में बहुत दिनों तक जिन्दा नहीं रहते, क्या? कोई न कोई शार्क उसे चबा जाती है। मेरे को पता है कि तूने प्रिया का अपहरण नहीं किया है। पर अपुन को भी नौकरी करनी है, बाप। अपुन के भी बाल-बच्चे हैं। बड़े लोगों से हम पंगा नहीं ले सकते। ये माफ़िया से भी अधिक पावरफुल होते हैं बाप। अपनी पर आते ही हम पुलिस वालों को भड़वा बना देते हैं ये लोग।’’
अचानक उसने माथे पर बल डालते हुए थोड़ा आगे झुक कर मेरी आंखों में आंखें डालते हुए पूछा,‘‘हां! वह रंडी तुझे रंडा कह रही थी। अपुन को उसके चरित्तर के सटिफिकेट देखने की ज़रुरत नहीं भीड़ू! साली, एनजीओ की आड़ में मंत्रियों को लौंडिया सप्लाई करती है। हम पुलिस वालों को गालियां देती है, कोरप्ट बताती है। हमारे एक अफसर को उसने रेप के केस में फंसाकर सड़कों पर जलसे जुलूस निकाले। बोले तो साहब की नौकरी ले ली, क्या?’’
इत्मीनान से घूंट भर कर आप्टे पीठ से टिक गया था। उसकी आंखें मुंद गई थीं और वह बोल रहा था,‘‘ये डेमोक्रेसी है शांतनु जी…डेमोक्रेसी। जनता का राज! पर, चुनाव तक है साला । बाद में बोले तो जनता कहीं नहीं। अफ़सरशाही, नेताशाही….और स्साले दो-दो कौड़ी के पालिटिकल भड़ुवे मेरे को बोलते, आप्टे! कहना नहीं मानेगा तो तेरा तबादला करा देंगे, सस्पेंड करा देंगे। हाअ! मादर….।’’
एकाएक चौक कर आप्टे अपनी मुंदी आंख खोल देता है। मेज़ पर कोहनियां टिका कर वह मुझे भेद देने वाली दृष्टि से देखकर पूछता है,‘‘पर, तू मेरे को यह बता कि वह लेडी तेरे को रंडा कैंसे कह रही थी? इस शहर में 200 रंडों के नाम तो मेरे को पता हैं, पर तेरा नाम तो उस लिस्ट में नहीं है? मेरे को भी नहीं मालूम। क्या तू भी ठोकू है. स्साला…..ऐं, ऐं……?’’
अचानक मैंने उसके व्यवहार को बदलते देखा। वह दहाड़ा,‘‘वडेकर!’’
एक सिपाही तेज़ी से डेढ़ता सा अंदर आया,‘‘सा’बजी!’’
‘‘सब-इंस्पेक्टर हनुमंत को बोलो! शांतनु जी के कमरे की तलाशी लेनी है। मामला पेचीदा है।’’
खाने-पीने के सामान से आप्टे की मेज़ फिर सज गई थी। पुलिसवालों की सरगर्मी भी चलती रही। तलाशी अभियान पर हनुमंत अपनी टीम लेकर जा चुका था। मेरी धड़कनें तेज़ हो गई थीं। पुलिस अब बाल की खाल निकालेगी। बहुत सी महिलाओं के बारे में पूछ-तांछ करेगी। कही मामला मीडिया के हत्थे न चढ़ जाये। खबर लगते ही मारे शर्म के मां आत्महत्या कर लेगी। नहीं करेगी तो उसका घर से बाहर निकलना दूभर हो जायेगा। सगे-सम्बंधी, यार-दोस्त, जानकार-मिलनसार सब क्या सेचेंगे?
आप्टे ने दाईं आंख मारी। बोला,‘‘आज की रात तो मेरे को भी ठोकने का मन करता है बॉस ! किसी को बुलायेगा, बोले तो…?’’
‘‘मैं ऐसा नहीं हूं सर!’’ थूक गटक कर बड़ी कठिनाई से मैंने कुछ सच और कुछ झूठ बोला,‘‘मैं तो नौकरी ढूंढ रहा था। मीरा मैडम ने मेरा इंटर्व्यु लिया था। आप पूछ सकते हैं। में उसी सिलसिले में,,,,,,।’’
आप्टे एकाएक खड़ा हो कर दहाड़ा,‘‘अबे चुप भोंस,,,,,,!’’ गंदी गाली देकर उसने मेरे माथे के बालों को मुट्ठी में भर कर मुझे मेज़ पर झटके से झुका दिया और दहाड़ा,’’वडेकर! इसके बेम में घुसेड़………। स्साला! ठोकू ,,,,,।‘
इसी समय कास्ंटेबिल पानवलकर ने आकर सचूना दी कि कोई लेडी आई हुई है और उससे मिलना चाहती है। आप्टे ने अचंभित होकर अपनी कलाई की घड़ी देखी,‘‘इस टैम?’’ उसने मुझे और मेरे बुरे हाल को देखा, फिर लहराते हुए मुस्कुराया। बोला,‘‘लगता है, औरतों में तू बहुत पापुलर है। चल पानवलकर! आज की रात ऐसे ही सही।’’

मैं जिस काले रंग की मर्सिडीज़ में बैठा था, वह तेज़ गति से गंतव्य की ओर बढ़ी जा रही थी। मेरे बाईं ओर खिड़की के पास मीराबेन बैठी थीं। हम दोनों के बीच गहरी खामोशी छाई हुई थी। मैं कुछ कहना चाहता था लेकिन उन्होंने हाथ उठाकर मुझे जैसे रोक दिया। उनके चेहरे के भावों को भी मैं नहीं देख पा रहा था। मैं उनके इस अहसान को शायद कभी न भूल पाऊंगा। उन्होंने मेरी अप्रत्याशित मदद कर मुझ पर जो उपकार किया था, वह कोई बिरला ही कर सकता है। पृथ्वी थियेटर के सामने गाड़ी आकर रुक गईं। मीरा बेन ने आदेश सा दिया,‘‘उतरो। यहां से तुम अपने घर जा सकते हो।’’
मेरे उतरने से पहले उन्होंने मेरी ओर एक लिफ़ाफ़ा बढ़ाते हुए कहा,‘‘इसमें तुम्हारा अप्वाइंटमेंट लेटर है। हम लोग कल आफ़िस में मिलेंगे। याद रहे! मैं पंक्चुएलिटी को बहुत लाइक करती हूं, और मुझे लगता है कि तुम पंक्चुएलिटी का मतलब अच्छी तरह से जानते हो।’’
मैं कार से बाहर निकलकर खुद को रौश्नियों के समुद्र में उतरा हुआ पाता हूं।
‘‘एक बात और!’’ कार की खिड़की से मीराबेन का सिर उभरा। उन्होंने अपने चिर-परिचित स्वर में कहा,‘‘मुम्बई इतनी बुरी नहीं है जितना तुमने अब तक इसे जाना है। याद रखो! यहां का सागर पहले उछाल कर फेंकता है, आज़माता है, फिर बुला कर अपना लेता है। गॉड ब्लेस यू!’’
कार आगे निकल जाती है और मैं स्तब्ध सा वहीं अपने स्थान पर खड़ा रह जाता हूं। तभी, लगता है मानो सागर की सतह से किसी डाल्फ़िन ने उछल कर मेरे गाल को चूम लिया है और मैं ढेर सारे पानी से नहा गया हूँ ।
——————

डॉ रंजन ज़ैदी

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