आधुनिक युग में भारतीय संस्कृति के प्रखरतम गद्य-गायकों में निश्चित रूप से डॉ लक्ष्मीनारायण लाल अग्रगण्य हैं। उनकी सांस-सांस भारतीय संस्कृति उसकी परंपरा पर न्योछावर थी, शायद यही कारण रहा कि साम्यवादी विचारधारा के पोषक तथाकथित प्रगतिवादियों ने उनके विरुद्ध षड्यंत्र कर उन्हें साहित्य के उस मुकाम पर नहीं पहुँचने दिया जिसके वे हकदार थे।
भारतीय धर्म परंपरा और संस्कृति के ध्वजवाहक बनने का यह खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा।
डॉ लाल ने मेरे पिता स्वर्गीय निशेन्दु ओझा को, इलाहाबाद में चौधरी महादेव प्रसाद (CMP) डिग्री कॉलेज में वर्ष 1960 के दौरान पढ़ाया था।
वर्ष 1973-74 की बात है, मैं 12-13 वर्ष का था। एक प्रातः पिताजी ने मुझे विद्यालय से छुट्टी कराई। मुझे खूब रगड़ कर नहलाया, मेरे बालों में कंघी की। खुली हुई ढीली-ढाली हाफ पैंट पहन कर मैं तैयार होगया।
पिताजी जी ने साइकिल झाड़ी-पोंछी।
रामकृष्णपुरम से उद्योग भवन। मैं साइकिल के पीछे बैठा था। पिताजी से कुछ कह नहीं सकता था पर रास्ते में तैनात सुरक्षाकर्मियों को देख जितना अधिक भयभीत होता साइकिल के कैरियर को उतना ही कस कर पकड़ लेता।
यहाँ से होते हुए पिताजी मुझे हौजखास में नेशनल बुक ट्रस्ट के दफ्तर ले आए। उन दिनों फोन बहुतायत में नहीं थे। बल्कि नगण्य थे। पिताजी ने शायद बीते दिन ही अपने शिक्षक महोदय से बात कर ली थी। दफ्तर में साइकिल से उतरते ही हम एक बड़े से कमरे की तरफ बढ़ चले।
‘ये आपके फ़रज़ंद हैं।‘ मुझे ध्यान है, पिताजी ने डॉ लक्ष्मीनारायण लाल जी से यही कहा था। मैंने दोनों हाथों से डॉ लक्ष्मीनारायण लाल जी के चरण छुए।
पिताजी का मनोरथ सिद्ध हो गया। गुरु का आशीष उन्हें मिल गया।
डॉ लक्ष्मीनारायण लाल तब बतौर संपादक, नेशनल बुक ट्रस्ट में आगए थे।
मुझे यह भान नहीं था कि आनेवाले समय में डॉ लाल से मुझे असीमित स्नेह और आशीष प्राप्त होगा।
पत्रकारिता में मैंने पहली परिचर्चा लिखी थी, ‘मूल्यों (नैतिक) की ह्रासमान स्थिति) उसमें महाकवि, गांधीवादी विचारक भवानी प्रसाद मिश्र, उपन्यासकार जैनेन्द्र जैन, विष्णु प्रभाकर, यशपाल जैन (सस्ता साहित्य मण्डल) के साथ डॉ लाल भी शामिल थे।
यह वर्ष 1982 के इर्द-गिर्द की बात है।
उनसे मिलने मैं ईस्ट पटेल नगर के उनके किराए के आवास पर जाया करता था। बाद में वे पश्चिम विहार में डीडीए के एमआईजी फ्लैट में चले गए थे। वहाँ भी मेरा कई, कई बार जाना होता था।
संभवतः 1983-84 के दौरान वे पश्चिम विहार के डीडीए फ्लैट में आ गए थे। दिल्ली के पश्चिमी छोर पर बसी इस बस्ती में पहुंचना बहुत कष्टकर था उन दिनों। बसों का अभाव था, अन्य कोई विकल्प अपने को सुलभ नहीं था।
आनंदवर्धन जी ने बात में खुलासा किया कि बाबू जी के पास पैसे नहीं थे, उन्होंने डीडीए में फ्लैट केलिए आवेदन कर दिया किन्तु उनका भाग्य नहीं था। ड्रा में उनका नाम नहीं आया। बड़ी भाग दौड़ कर के लेखक बतलाया गया तब कहीं जाकर यह आबंटन हुआ।
54-ए, एमआईजी, ए/2 यह पता था उनका, यहीं से वे बिड़ला जी की आत्मकथा लिख रहे थे।
बिड़ला जी ने, घर के सामने एक फ्लैट ले दिया था जिसमें छोटा सा कार्यालय खोला गया। लेखकीय साजो-सामान यहाँ रखा गया। टाइपराइटर, स्टेनो/टाइपिस्ट के बैठने की जगह इत्यादि।
मैं उन दिनों स्वतंत्ररूप से दिनमान, रविवार और नेशनल हेराल्ड जैसे पत्रों केलिए लिख रहा था।
आज से 30-35 वर्ष पूर्व जीवन सहज था, आज के जैसी मारा-मारी न थी। तिस पर डॉ लाल जैसे सहज व्यक्तित्व वाले व्यक्ति की तो क्या बात की जाए। वे एहसास ही नहीं होने देते थे कि वे कितने बड़े लेखक है।
लल्ला, उनके छोटे पुत्र अजय। उनको बहुत प्रिय थे। बड़े बेटे आनंदवर्धन उत्तर प्रदेश प्रशासनिक सेवा में आ गए थे।
लल्ला, विशिष्ट बालक थे। बहुत भोले, हमेशा उन्हें मैं डॉ लाल के साथ ही देखता था। उनके घर में फर्नीचर का भभ्भड़ नहीं था। मैं उनके शिष्य का पुत्र था। उन्हें पितामह स्वरूप मानता था, पर आज कहते और स्मरण करते हुए आँखें नम हो जाती हैं कि वे मुझे सदैव ब्राह्मण-पुत्र स्वीकारते रहे।
मुझे कुर्सी पर बैठने का आग्रह करते और स्वयं नीचे फर्श पर बैठ जाते थे। उसके बाद, कई बार घंटों से अधिक वे माता जानकी की व्यथा का वर्णन करते रहते, अश्रु-पूरित दृग के साथ।
मुझे उन्होंने बताया था, सीतामढ़ी से उनका विशेष संबंध था।
संजय निरूपम को पांचजन्य केलिए साक्षात्कार देते हुए एक स्थान पर उन्होंने कहा था “तुलसीदास और वाल्मीकि दोनों ही मेरे पूज्य हैं। ये मेरे बाबा-पड़बाबा की तरह हैं। मैं रोज़ इनके चरण छूता हूँ। वाल्मीकि हमारी परंपरा के सूत्र-धार थे। वह आदि कवि थे। वे राम चरित्र के गायक थे। परंतु उसी राम को उन्होंने चारित्रिक पतन के बाद उनके पुत्र लव और कुश के द्वारा चुनौती दिलवाई। अपने नायक की आलोचना करना बहुत दुरूह कार्य है। तुलसी के राम श्रद्धा और विश्वास के प्रतीक हैं।“
मैंने उन्हें बताया कि दिल्ली प्रेस में परेषनाथ मेरी डिग्रियाँ रख कर नौकरी देना चाहते थे। उनकी बड़ी स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी “राम…राम! उस धर्म-विरोधी संस्थान में तुम जाओगे?” फिर कुछ रुक कर वे बोले थे ‘हिंदुस्तान में कह दूँ?’
उन दिनों राकेश तिवारी जीवनी लेखन में उन्हें सहयोग प्रदान कर रहे थे। इस लेख में उनका सहयोग भी वांछित था। राकेश जनसत्ता से सेवा निवृत्त हुए थे। मैंने बालासुंदरम गिरि से उनका नंबर लिया और बात की।
बक़ौल राकेश, वे प्रगतिवादी लेखक रहे हैं। उन्हें डॉ लाल के साथ काम करना नहीं रुच रहा था। इधर मैं माया, दिल्ली से होते हुए ‘शिखरवार्ता’ को संभाल रहा था। डॉ लाल चाहते थे कि मैं उनके साथ सम्बद्ध हो जाऊँ किन्तु ऐसा हो नहीं पाया।
रेडियो स्टेशन में तो उनसे अक्सर मुलाक़ात हो जाती थी, वे ड्रामा प्रोड्यूसर थे। मैं आकाशवाणी से हिन्दी समाचार वाचन और सम्पादन करता था, कॉन्ट्रैक्ट पर।
एक बार सुरक्षा गेट पर पास बनवा रहा था, मैंने सुरक्षाकर्मी को अपना नाम बताया तो किसी ने पीछे से कंधे पर हाथ रख कर कहा “मधुर और पहचानी हुई आवाज़ है।“ मैंने मुड़ कर देखा तो लल्ला के साथ डॉ लक्ष्मीनारायण लाल खड़े थे। बिना संकोच मैं उनके पैर में गिर पड़ा।
एक दिन पता चला कि रात सोते हुए ब्रेन हैमरेज हुआ, आकस्मिक ही उनका निधन हो गया। 60 वर्ष की अल्पायु।
मुझे और पिताजी दोनों को ही इस समाचार ने स्तब्ध कर दिया।
उनके देहावसान की चर्चा करते हुए मैंने स्वर्गीय कमलेश्वर जी से उनकी स्मृति में विशेषांक निकालने का अनुरोध किया था। स्वर्गीय कमलेश्वर जी तब ‘गंगा’ पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे।
उन्होंने अपनी दिल्ली-बंबई यात्राओं की दूभरता का ज़िक्र किया और लगभग टालने की मुद्रा में कहा कुछ करते हैं…..
पर कुछ किया नहीं गया।
शायद इतने वर्षों बाद मुझे उऋण होने का अवसर मिला है।
डॉ लक्ष्मीनारायण लाल पर यह मेरी ठहरी हुई श्रद्धांजलि है।
अमृता प्रीतम को दिए गए एक लंबे साक्षात्कार में लक्ष्मीनारायण लाल ने कहा था “उत्तर प्रदेश के ज़िला बस्ती के एक छोटे से गाँव, जलालपुर की एक पतली-सी नदी मनोरमा के तट पर बालक स्वरूप खेलते हुए एक स्वर सुना था, कि यहाँ लोग ‘अपने-आप’ को ढूंढते हैं।
बस्ती में ही प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त कर उस समय की ‘माधुरी’ पत्रिका में यह पढ़कर ‘आत्मानं विद्धि : स्वयं को जानो, प्राप्त करो’ कई रात तक मुझे नींद नहीं आई।
अपने को ढूंढो फिर उसे प्राप्त करो, इसका अर्थ क्या है? और विशेषकर मुझ जैसे साधारण, निर्धन नव-युवक के जीवन में इसका क्या मतलब है?
मेरी ऐसी भी स्थिति नहीं कि मैं ‘इंटर’ के बाद आगे की शिक्षा केलिए कहीं बाहर जा सकूँ।
पर पता नहीं कैसे, किस अज्ञात शक्ति और प्रेररणा से मैं एक दिन अपने घर से बाहर निकल पड़ा।
बस्ती से दूर, अनजाने नगर इलाहाबाद।
पहले से कुछ नहीं पता था। न कोई संगी-साथी, न कोई मददगार, न कोई रास्ता सुझाने-बतानेवाला। अज्ञात शक्ति से मुझे बीए में प्रवेश का आदेश मिला। यह अगस्त 1946 की बात है। इस अंजान शहर में मेरे पास एक रुपया भी नहीं था और एक सप्ताह के भीतर मुझे यूनिवर्सिटी में प्रवेश केलिए दो सौ दस रुपए की आवश्यकता थी।
मेरे पास कोई रास्ता नहीं था। मैं क्या करता? कहाँ से लाता इतना पैसा?
फिर मुझे वही रहस्यमयी स्वर याद आया। सभी को जाना होगा ‘अपने’ को ढूँढने को। मेरे अंतस से फूटी हुई आवाज़ थी यह। मैं अपने आपको पाने केलिए जब अपनी सीमाओं से बाहर निकला हूँ, तो सिर्फ अकेला मैं ही हूँ अपना।
पर क्या करूँ कि इतने कम समय में दाखिले के लायक पैसे इकट्ठे हो जाएँ?
उसी समय ‘पोस्टल स्ट्राइक’ चल रही थी। चिट्ठी-पत्री, तार, फोन, सब ठप्प हो गए थे। स्ट्राइक ने पूरे देश को असहाय बना दिया था।
अपने उस परम अकेलेपन में काँपते हुए हाथ से पहली बार अपनी वह लेखनी पकड़ी थी, जिसने लगातार तीन रातों में किसी बंद दुकान के बरामदे में बैठाकर पहला उपन्यास लिखवाया था : ‘रक्तदान’।
उसी पाण्डुलिपि को दो सौ तीन रुपए में खरीदा था, यूनिवर्सिटी रोड, इलाहाबाद के प्रमोद पुस्तक प्रकाशन ने।“
डॉ लक्ष्मीनारायण लाल जिसे अंतस की आवाज़ कहते हैं, मैं उसे प्रारब्ध कह देता हूँ। किन्तु इस प्रारब्ध में मनुज के भीतर ईश्वरीय अंश होता है उसकी सृजनात्मकता के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति का।
शायद यही बात अमृता प्रीतम ने भी उनसे पूछी थी। डॉ लाल से उन्होंने प्रश्न किया था “एक बहुत ही राज़दार बात बताइए। कभी आपके सपनों ने संकेत देकर आपकी किसी अधूरी रचना को पूरी करने में मदद की है?”
उनका लंबा जवाब था “मेरा विश्वास है, अनुभव भी। कि जो स्वतंत्र है, वे वही एक हो सकते हैं। वही हमें मिलते हैं, यहाँ तक कि स्वप्न में भी।
मेरे जीवन में ऐसा दो बार हुआ है। पहली बात कलकत्ता के मित्र स्वर्गीय कमलाकांत वर्मा से जुड़ी हुई है। पुरानी दिल्ली, नई दिल्ली की पृष्ठभूमि पर उपन्यास लिखने की सामाग्री ढूंढ रहा था। अनुसंधान, शोध-कार्य पूरा हो चुका था। न कोई उचित नाम सूझ रहा था, न वह केंद्र बिन्दु मिल रहा था जहां से उपन्यास की कथा पात्र-रचना को स्वरूप दे सकें। तब कमलाकांत जी, जो अपने समय के प्रसिद्ध कहानीकार थे, जब भी दिल्ली आते, ईस्ट पटेल नगर के मेरे पुराने निवास पर ही ठहरते। उनसे हम रात को तुलसी के भजन सुनते। खास कर ‘श्रीरामचंद्र कृपाल भजुमन हरण भव-भय दारुणम’।
एक रात सपने में वही कमलाकांत जी आए। न जाने किस भाषा में बोले-बताओ लाल किस चीज़ का दान सबसे बड़ा होता है? फिर खुद ही जवाब दिया- सबसे बड़ा दान अहंकार का होता है।
मेरा उपन्यास ‘प्रेम अपवित्र नदी’ इस से ही पूरा हुआ।
ऐसा ही एक अनुभव लोकनायक जयप्रकाश की जीवनी लिखते समय भी हुआ।
सृजनात्मकता की यही दृढ़ इच्छा शक्ति ऐतिहासिक चरित्रों का निर्माण करती है। शंकराचार्य, परमहंस, विवेकानन्द, अरोबिंदो आदि….आदि इसी अंतस की रहस्यमयी आवाज़ से प्रेरित होकर आगे बढ़े।
इलाहाबाद का यह कालजयी सरस्वती पुत्र हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक अमरत्व का वस्तुतः अधिकारी है।
BOX-1
डॉ लक्ष्मीनारायण लाल : संक्षिप्त परिचय
जन्म : 04 मार्च 1927
स्थान : ग्राम-जलालपुर, ज़िला-बस्ती, उत्तर प्रदेश
शिक्षा : एमए (हिन्दी साहित्य) इलाहाबाद विश्वविद्यालय, व 1952 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ‘हिन्दी कहानियों की शिल्प विधा और विकास’ पर डी फिल
पिता :स्वर्गीय शिव सेवक लाल
माता : श्रीमति मूंगा देवी
सेवाएँ : इलाहाबाद तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में 16 वर्ष तक शिक्षण
: आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यूसर (दिल्ली)
: संपादक, नेशनल बुक ट्रस्ट (दिल्ली)
: नवभारत टाइम्स में ड्रामा एवं थिएटर में समालोचना
: नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में सलाहकार
कृतियाँ :
पुरस्कार : राष्ट्रपति द्वारा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार 1978
: अखिल भारतीय कालीदास पुरस्कार ‘रातरानी’ एवं ‘कर्फ़्यू’ पर
: उत्तर प्रदेश द्वारा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार 1976
: साहित्य कला परिषद द्वारा पुरस्कृत 1979
: दिल्ली प्रदेश साहित्य अकादमी पुरस्कार 1987
यात्राएं : 1964 में अंतर्राष्ट्रीय थिएटर सेमिनार, बुखारेस्ट (तत्कालीन रोमानिया)
: एथेंस में भारतीय नाटकों पर वक्तव्य
: 1986 में कैम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ड व पाइरिस में सेमिनार में शामिल
: बेल्जियम की कैथोलिक यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम में हिस्सेदारी
: 1986 में जर्मनी में भारतीय ड्रामा के विशेषज्ञ के रूप में प्रतिभागिता
: यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो (कनाडा) में विजिटिंग प्रोफेसर
: ब्रॉडवे एवं ऑफ ब्रॉडवे न्यूयोर्क में प्रतिभागिता
देहावसान : 20 नवंबर 1987, दिल्ली
BOX-2
अमृता प्रीतम का पत्र डॉ लक्ष्मीनारायण लाल को
“लाल, प्यारे दोस्त,
रात आपका उपन्यास ‘प्रेम अपवित्र नदी’ पढ़कर मुझे ख्याल आया कि आज हमारे देश को सही अर्थों में ऐसे ही उपन्यासों की ज़रूरत है। देश की गुलामी के वक़्त आज़ादी केलिए जी जद्दोजहद होती है, उसे दुनिया का इतिहास जनता है, भोगता है। पर आज आज़ाद देश में हमें आज़ादी के संग्राम की जो ज़रूरत पड़ गई है, इस उपन्यास ने उसी की आवाज़ उठाई है। यह हम कई लोगों का चिंतन है, पर यह पहला उपन्यास है जिसने हमारे भीतर के इस गहरे चिंतन को साहित्य में आवाज़ बनाया है…..
आपकी,
अमृता प्रीतम
05.02.1973”
सुधेन्दु ओझा
9868108713, 7701960982
sudhenduojha@gmail.com