नई उड़ानों के लिये
पिजड़े का मुंह खुला था
पर वो बाहर नही निकला
उसकी नजर सिर्फ
उस कटोरी पर थी
जिसे मालिक तैयार कर रहा था
उसके जीने की लिये
शायद वर्षों से
पिजरे की दिवारों में रहकर
उसे सांस, पानी और कटोरी भर
अनाज चाहिए था बस !
जिंदा रहने के लिए
वो भूल चुका था
ऊँची उड़ाने भरना
उन्मुक्त रहना
ठंढी हवांओं में बहना
नये नये फलों की मिठास
जेठ की दोपहरी की प्यास
और अपना वो झुंड
जो उसे अक्सर
नई मंजिलें दिखाता था
थक जाने पर भी
हौसलें देकर
मीलों उड़ाता था..
जिससे कि वो तैयार हो सके
नये नये मौसमों के लिए
आने वालें परिवर्तनों के लिए
सम्भवतः कई बार हम भी,
बन्द से, हो जाते हैं ख़ुद में
सिमट जाते हैं अपने पूर्वाग्रहों में
ठहर जाते हैं बस कंही एक जगह
और तब नही दीखते
खुले रास्ते या
औरों के दिए सुझाव
नही देख पाते भविष्य के बदलाव
नही कर पाते खुद को तैयार
ताजे विचारों के लिये
नई उड़ानो के लिये
नई उम्मीदों के लिये
बिल्कुल पिजड़े में बन्द
उस तोते की तरह
अनिल द्विवेदी