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पापा नहीं मानेंगे

Janlok india times news bureau by Janlok india times news bureau
December 10, 2019
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दिलीप कुमार

“खुदा करे इन हसीनों के अब्बा हमें माफ़ कर दें,
हमारे वास्ते या खुदा , मैदान साफ़ कर दें ,”

एक उस्ताद शायर की ये मानीखेज पंक्तियां बरसों बरस तक आशिकों के जुबानों पर दुआ बनकर आती रहीं थीं ,गोया ये बद्दुआ ही थी ।इन मरदूद आशिकों को ये इल्म नहीं था कि खुदा किसी को ख़ाक करने की बद्दुआ कभी कुबूल नहीं करते ,अलबत्ता इश्क़ करने वालों को तो खुदा का ही आसरा रहा है ,अपनी दुआ,बद्ददुआ, इल्तजा सब खुदा के हवाले।मगर ये उस दौर की कहानी थी जब लड़कियों के पिता की सख्त निगरानी में लड़की से संपर्क करना मुश्किल था ।लेकिन अब दौर दूसरा है ,कोई भी किसी से सम्पर्क कर सकता है ,अपनी बात कह सकता है ।ईमेल ,फेसबुक,व्हात्सप्प,मेसेंजर में हाल ए दिल कह सकता है और तुरंत जवाब भी पा सकता है बिना लड़की के पापा के बीच में आये ।एक वक्त था जब लोग इश्क़ का इजहार करते थे और लड़की की उसमें रूचि नहीं रहती थी तो वो डरते डरते कहती थी कि “पापा जान जाएंगे तो ?” यानी उसके बाद ठुंकायी, कुटाई,और ना जाने क्या क्या ?लेकिन अब दौर बदल गया है अब इश्क़ में भी ऑप्शन का जमाना है ,गये वो जमाने जब इश्क के लिये एक अदद प्यारे दिल की ही जरूरत हुआ करती थी । जिंदगी दो जून की रोटी ,सर छुपाने की छत और तन ढकने के दो कपड़ों पर इश्क परवान चढ़ा करता था ,तब पापा जान जाएंगे से पहले लोग फरार हो जाते थे और उत्साह से कहते थे कि नदिया किनारे रहेंगे और रूखी सूखी खाकर दुनिया की नजरों से दूर रहेंगे ,ताकि पापा जान ना जाएँ हम कहाँ हैं ?
फाकामस्ती में मंजनू गाया करते थे
‘ये गिजा मिलती है लैला तेरे दीवाने को
खूने दिल।पीने को और लख्ते जिगर खाने को “

लेकिन जिस तरह से आर्थिक उदारीकरण ने आर्थिक मंदी का दंश दिया वैसे ही बदलते दौर में पापा फिर नये तरीके से आये।पापा जान जाएंगे से पापा नहीं मानेंगे का रास्ता यूँ ही नहीं तय हुआ ।पापा यूँ ही नहीं हैं ऐसे ,पापा ने वक्त की चक्की में,जरूरत के पाटों में हर वादे को पिसते देखा है ,और जमाने से जूझते पापा अपनी औलाद के बेहतर भविष्य के लिये ,,बकौल पापा-
“मेरे सर पे है जब तक जिम्मेदारियों का पहाड़
मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते “
यकीनन ये दौर ही ऐसा है जब पापा, बेटी-बेटा दोनों से उसकी ज़िन्दगी को सेटल करने में राय मश्विरा करते हैं।लेकिन ये समस्या सिर्फ औलाद की हो, कि पापा उसकी बात नहीं मानेंगे ,बल्कि पापा भी कभी कभी सर्वथा औलाद को अपनी विरासत देने में एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं।पापा नहीं माने तभी तो गावस्कर ने अपने बेटे को बैटिंग,बच्चन ने अपने बेटे को एक्टिंग करायी भले ही उसका नतीजा कुछ भी हो ।पापा के ना मानने की जिद थी कि यश चोपड़ा के बेटे उदय चोपड़ा और अभिनेत्री तनूजा की बेटी ,,,,तनिष्का मुखर्जी ने कुछ साल पहले एक फिल्म बनायी थी
“नील एन निक्की “यशराज बैनर की इस कालजयी फिल्म को देखने के बाद फिल्म क्रिटिक्स ने लिखा था कि तीन घण्टे की इस पूरी फिल्म देखने को लिये विशेष प्रोत्साहन राशि की घोषणा करनी चाहिए थी और इसके अलावा फिल्म को बगैर सोये सफलता पूर्वक देखने के लिये ऐसे उत्साही सिने प्रेमियों के लिये दादा साहब फाल्के सम्मान के समान किसी पुरस्कार की घोषणा करनी चाहिये ।जब पापा नहीं मानते और मेहनत से हासिल की गयी अपनी राजनीतिक विरासत अपनी सन्तान को ही सौंपते हैं भले ही उसमें नेतृत्व के गुण हों या ना हो।लेकिन राजा की अंतिम इच्छा यही होती है कि राजा अपने बेटे को ही राजा बनाये।हमारा इतिहास इन पापाओं के बात ना मानने से रक्तरंजित होता रहा है ,लेकिन इतिहास से किसने सबक लिया था।पिता दशरथ के दो वर ,अपनी जुबान की लाज रखने के लिए उनके जी का जंजाल बन गए और अंततः उनके प्राण लेकर ही माने। मेघनाथ ने रावण को लाख समझाया कि सीता जी को राम को वापस करके उनसे संधि कर लें ,लेकिन पापा रावण कहाँ माने ,अपनी जिद से अपना और अपने कुल का नाश कराया। पापा नहीं माने तभी तो महाभारत के बीज पड़े ,पहले देवव्रत ने अपने पिता की इच्छा पूरा करने के लिये भीष्म प्रतिज्ञा की ,और फिर उनकी यही भीष्म प्रतिज्ञा तमाम अधर्म के कृत्यों का आवरण बनी। कहीं पापा नहीं माने कहीं बेटा नहीं माने। जब जब राष्ट्र पर पापा की बुद्धि पर पुत्र मोह हावी हुआ तब तब कहीं ना कहीं महाभारत हुई। वरना हमारी दुनिया इस रक्तपात से रक्तरंजित ना हुई होती।जॉर्ज बुश सीनियर के बेटे जॉर्ज बुश जूनियर ने इस दुनिया को अपने ऐड्वेंचर के लिये इन जंगों में ना झोंका होता। जूनियर बुश के पापा सीनियर बुश नहीं माने पहले अरब में आग लगायी और फिर वॉर ऑन टेरर के नाम पर पूरे मध्य एशिया और दक्षिण एशिया को कुरुक्षेत्र बना रखा है । पापा नहीं माने तभी तो पूर्वी भारत के एक बहुत बड़े नेता वर्षों से जेल में हैं मगर खुद को अपनी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित करवा लिए।वैसे इनके मेधावी पुत्र अपने अंग्रेजी ज्ञान और इतिहास के ज्ञान से देश के लोगों का खासा मनोरंजन करते रहते हैं। ये पापा की बेटे को राजा बनाने वाली पूरे देश के हर प्रान्त में है और पापा हैं कि मानते ही नहीं।यहां हम माँ के लॉडलों का जिक्र इसलिये नहीं करेंगे क्योंकि माँ के लॉडलों को “ममा,ज बॉय “कहकर माफ़ कर दिया जाता है ,वरना इतिहास में इस अनुभवहीनता बात का जिक्र बड़ी दबी जुबान में होता है जब अपने ही देश से गये लोगों को रेस्क्यू करने के बजाय उनको मारने के लिये सेना भेज दी गयी हो ,

लम्हों ने खता की थी ,सदियों ने सजा पायी ।
पापा लोगों की भी समस्या है आजकल कोई समय से रिटायर ही नहीं होता ,मरते दम तक राज भोगना चाहता है ।कुछ समय पहले तक छत्तीस राजनैतिक पद वाले एक परिवार में भी ये समस्या आन खड़ी हुई थी , नये को राज लेना था पुराना छोड़ने को तैयार नहीं था ।रुस्तम और सोहराब आमने सामने,,,
ना कम रघुवर, ना कम कन्हैया (नॉट कुमार )। बड़ा धर्मसंकट था,,
“कैद ये है कि बज़्म में हो होंठ सिले
हुक्म ये है कि हर बात जुबानी कहिये”

इसको निपटाने के लिये एक बीच का रास्ता निकाला गया, रुस्तम राष्ट्रीय अध्यक्ष,,,सोहराब ,,कार्यकारी अध्यक्ष,,,, तुम्हारी भी जै जै,हमारी भी जै जै,ना तुम हारे,ना हम हारे ,,तो फिर हारा कौन,,,?इस आधुनिक समर में कोई कुछ नहीं खोता ,कुछ खोती है तो सिर्फ जनता ,अपने सपने,अपनी उम्मीदें ।
वरना जिस विचारधारा को लेकर पश्चिम भारत में लोगों ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया ,जिनसे लड़ने जूझने के लिए ही जो बने थे , वही विचारधारा दूसरी विचारधारा से ऐसे घुल मिल गयी जैसे दूध में शक्कर । दूध में शक्कर मिल जाए तो अगली स्टेज रबड़ी मलाई ही होती है , लेकिन जिन्होंने लाठियाँ खायीं,संन्घर्ष किया उनका क्या ,वो हैरान हैं ,दूसरे हैरान शख्स ने उसे समझाया है कि
“तुझे कसम है ,खुदी को बहुत हलाक ना कर
कि तू इस मशीन का पुर्जा है ,पूरी मशीन नहीं “
लोग कहते हैं कि पुत्रों को पापा,पिता और मम्मी की विचारधारा को मानना चाहिये,,ये बहुत सही बात है ,बड़ों का आदर करना ही चाहिए।पापा मानें या ना मानें ,पापा तो मना ही लिए जाते हैं जैसे बिलावल भुट्टो आसिफ अली जरदारी को इस बात को मनाने के लिये तैयार कर ले गए हैं कि जरदारी जेल में ही रहेंगे मगर स्विस खातों की डिटेल सरकार को नहीं देंगे।
पापा नहीं मानेंगे के अपने अपने मायने हैं सियासत,फिल्म,खेल के अलावा अब ये साहित्य में भी अपना जलवा बिखेर रहा है ।क्रॉनिक बैचलर और किस्सों की सड़क के लेखक अभिषेक सूर्यवंशी भी इस क्रॉनिक डिजीज से त्रस्त हैं ।सूत्र बताते हैं कि बचपन में लड़कियां उनका टिफिन खा लेती थीं ,और अपनी बारी आने पर टिफिन शेयर करने से मना कर देती थीं ये कहकर कि पापा नहीं मांनेंगे।लेखक मिजाज को विज्ञान पढ़वा डाला कि तुम पढ़ लो,तब मैं मिलूंगी ,वरना पापा नहीं मानेंगे।लड़का पढ़ लिख कर नौकरी करने लगा और जब जब उन सबको उनकी अहद याद दिलाता है तो पहले तो शर्माती हैं लेकिन थोड़ी देर बाद “पापा नहीं मांनेंगे “कहकर गुडबॉय कर जाती हैं। सुना है वो किस्सागो पापा नहीं मानेंगे के ताबड़तोड़ हमलों से त्रस्त होकर अगली पुस्तक शायरी की लिखेगा ,जिसमें इस टाइप के शेर होंगे
“भूल शायद बहुत बड़ी कर ली
दिल ने इक बेवफा से दोस्ती कर ली
वो मोहब्बत को खेल समझती रही
हमने बर्बाद जिंदगी कर ली “
खुदा या खैर इस लेखक पर।
अचानक मेरी पत्नी ने मुझसे पूछा “सुनो,तुमने पापा से बात की थी ना ,वो जो मम्मी वाला बड़ा सा हार फ़ालतू में रखा है उसे मैं तुड़वा कर नए डिजाईन के गहने बनवा लूँ ,,मेरे मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा “पापा नहीं मांनेंगे “

दिलीप कुमार

Tags: व्यंग्य
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