बिजली की हालत नासूर बनी हुई है. लगातार कब्ज की तरह आ जा रही है. इ कहें कि कुल मिलाकर सांस ले रही है. अभी अभी सो कर उठे हैं और इधर घर वाले न जाने क्यों ताने मार रहे हैं, ससुरा मुंह तक नहीं धोया. इधर टंकी में पानी नहीं उधर हैंडपंपवा से मुरचहवा पानी आ रहा है और पसरे हुए ख़्वाब दे रहे हैं. गांव है जवार है घर बार है खेती है और पारिवारिक संबंध भी मगर जो नहीं है उ है बिजली. इक छटपटाहट है अंधेरों के साये में. झींगुर की आवाज में जुगनू की जगमगाहट से सब ठीक है. मगर कशमकश और बेहिसाब शोर में बिजली की चमक नदारद है.
सुबह की हर पहली किरण कुछ नए ख़्वाब सजाती है मगर जैसे कभी-कभी पू रा दिन ही कश्ती पर सवार हो कर निकल जाता है ठीक वैसे ही हर रोज कुछ सपने धूमिल हो जा रहे हैं या मिट्टी में दफ़न हो जा रहे हैं. जो कुछ भी कहें यह हमारी उम्र का हासिल है कि बाहर ओस की बूंदे गीर रही हैं और हम उमस भरी गर्मी में 12/8 के कमरे में गर वाजिब हवा के आगोश में लेटे हैं. चेहरे पर वक्त की सफ़हों की उधड़न साफ़ दिख रही है, रंग फीका पड़ गया है और तमाम लोगों से गुज़रती नज़र बस बिजली के आने की ख़बर ढूँढ रही थी. मन की बदलियाँ साफ़ हो रही थी मगर बिजली आईसीयू में पड़ी जान पड़ रही है.
दो कदम साथ चल कर फ़िर बिछड़ जाना किसी सफ़र का दुःखद अंजाम होने के समान है और ये बार बार होना नियति को अकेला देख मायूस होने की तरह है.
बिजली का आना जाना बजबजाती सड़ी गली लाशों की तरह बदबू करने लगी है. लेकिन मुझे यकीन है कि वो किसी खुबसुरत गुलाब की तरह खिलखिला रही है और मेरा पुछना मुनासिब नहीं लेकिन बताओ अगर बिजली लाश की तरह श्मशान की माशूका हो जाए तो अपना क्या हश्र होगा ?
नींद नहीं आती रात भर जगता हूँ, अच्छा नहीं लगता मगर करता हूँ इंतजार उसका. याद रहे न रहे मगर भूल जाने का दिखावा नहीं करना, कौन सी महफ़िल में सदियों रहना है मगर जितनी देर भी रहना है खुदगर्ज नहीं रहना है बिजली की तरह. खामखा हमें अपना दुश्मन समझ ली है लेकिन उम्मीद न टूटेगी उसके आने की. किसी व्याख्यान का हिस्सा थी पैसा, शोहरत और न जाने क्या क्या? अफ़सोस कि उसने भी समेट कर रखा है कुछ आखिरी पन्नों में खुद को. हम पत्थर वो मोम थी हम लठैत वो बिजली थी. हर नुक्कड गली पर बसती थी. अच्छा छोड़ो जो हुआ सो हुआ तुम आओ और हम मुस्कुरायें फ़िर से. खैर की खैरियत से हमें क्या आदत है दर्द की, बेबसी की अपनी न कराओ छिछलेदरयी.
गुजरे हुए कल के हारे हुए लोगों में अपना नाम क्यों लिखाती हो, अपने यादों को बिस्तर में सोता छोड़ कर क्यों नहीं आ जाती हो. हम कैसे कहें कि तेरे बिना ये जहाँ खुबसुरत है मगर हाँ तुम साथ हो तो फिर जलालत भी तख्त ए दरवेश है. ये जरुरी है कि हम बदनाम होते और वो पाक-एच-रौशन होती.
काश तुम कोई खुबसुरत रात होती
तो चाँदनी भी इसी धरा पर उतर जाती.
होते नहीं अंधेरे में इंतजार किसी का
इस उम्र में सुबह बेहद खास होती.
विकास तिवारी





