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हैप्पी हिन्दी डे

suraj singh by suraj singh
September 19, 2019
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दिलीप कुमार

हे कूल डूड ऑफ़ हिंदी ,टुडे इज द बर्थडे ऑफ़ हिंदी ,ईट्स आवर मदर टँग एन प्राइड आलसो ,सो लेटस सेलेब्रेट ।यू आर कॉर्डियाली इनवाटेड।लेट्स मीट एट 8 पीएम ,इंडीड देअर विल भी 8 पीएम,वेन्यू,,ब्लैक डॉग हैंग आउट कैफे, ब्लैक डॉग ,,,योर फेवरेट ब्रो “
मोबाईल पर ये खबर मिली जो कि मुझे निमंत्रण था हिंदी के जन्मदिन में शामिल होने का।मैं थोड़ा विचार करने लगा कि हिंदी दिवस पर हिंदी के लेखक को बुलाने के लिए क्या हिंदी के शब्दों का अकाल पड़ गया।वैसे भी हिंदी का लेखक होना किसी गन्धर्व के श्राप को झेलने का वरदान है।हिंदी का लेखन वो दरिद्र व्यापार है जो युगों युगों से माइनस में रहा है और समझदार लोग बताते हैं कि आने वाले अनंतकाल तक माईनस ही रहेगा।मुद्रास्फीति बढ़ती गयी ,लेखकों की इज्जत और मानदेय घटते गये ।हिंदी के लेखक के लिये रॉयल्टी की उम्मीद वैसे ही है जैसे गांधी जी अंतिम आदमी तक सुराज की पहुंच ।जैसे गांधी जी के अंतिम आदमी के लिए सुराज है तो बस मिल नहीं पाता है ,वैसे ही हिंदी के लेखक के लिये रॉयल्टी है तो ,बस मिल नहीं पाती –
“खुदा ना सही,खुदा का ख्वाब ही सही
कोई हसीन नजारा तो है इस नजर के लिए “
खैर,जिस तरह से सामान्य विवाहित पुरुष पूरे साल लतियाये जाने की धमकी पत्नी से सुनता रहता है और करवा चौथ के दिन उसके पाँव धोये जाते हैं उसी तरह हिंदी का साहित्यकार की पूरे साल खिल्ली उड़ायी जाती है उसे हिंदी का लेखक होने के नाते हतोसाहित किया जाता है मगर हिंदी दिवस के अवसर पर उसे झाड़ पोंछ कर सामने लाया जाता है उस पर गर्व किया जाता है उसे पुरस्कार,मान और सम्मान दिया जाता है ।परिवार वाले भी सोचते हैं कि पूरे साल तो ये लेखन में समय ,ऊर्जा और धन गंवाता रहता है आज शायद ये कुछ हथिया लाये। सो उस दिन वो लोग भी रात को पहन कर सोने वाले कुर्ते -पायजामे पर नील लगाकर इस्त्री कर देते हैं कि आज तो कुछ ना कुछ बात बनेगी ।पूरे दिन मुझे खांटी हिंदी बोलने वाले और अंग्रेजी की चार लाइनें ना समझ पाने लोग हिंदी के जन्म दिन की बधाई देते रहे जिसमें सबसे ज्यादा बार मुझसे कहा गया और मुझे इसरार करके बताया गया कि हिंदी माथे की बिंदी है ।मैंने लोगों से विनम्रता पूर्वक कहा “मुझे जो ये आप बिंदी की दुहाई दे रहे हैं इस बाबत आपका अनुमान गलत है ।हिंदी मेरी पूजा है,आराधना है ,लेकिन हिंदी से मेरा दोस्ताना नहीं है ।हिंदी मेरी कर्तव्य परायणता है ,कोई शौक या लत नहीं ,लेकिन लोग बारंबार मुझे बताते रहे कि हिंदी माथे की बिंदी है ।सोशल मीडिया के अपने अकाउंट चेक किये तो हर इंसान मुझे हिंदी को लेकर नैतिक ज्ञान और जिम्मेदारी की हूल देता हुआ मिला ,ऐसा लग रहा था मानो मेरे लेखन शुरू करने से पहले हिंदी का स्वर्णकाल था ,सर्वत्र देश में सुदूर दक्षिण तक धारा प्रवाह हिंदी ही बोली जा रही थी ,जबसे मेरे मनहूस कदम हिंदी में पड़े बस तभी से अंग्रेजी का बोलबाला हो गया ,क्षेत्रीय भाषाओं की हिंदी से गलबहियां थी जो मेरे आते ही एक दूसरे से तने हुए हैं।बोलियों का पहले बहनापा था मेरे ही आते सौतन की तरह ऐंठी रहती हैं एक दूसरे से ।पहले हिंदी सिनेमा के सितारे शुद्ध हिंदी में इण्टरव्यू देते थे और अभी हाल ही में उन लोगों ने हिंदी में इंटर व्यू देना शुरू किया।कुछ मेसेज तो मुझे ऐसे मुंह चिढ़ा रहे थे मानो मेरे और मेरे समकालीनों के लेखन की ये जिम्मेदारी है कि देश के कुछ प्रान्तों में हिंदी बोलने वालों पर हमले हम लोग रुकवाएं वरना पहले तो लोग जहां जहां विवाद है ,वहां के लोग एक दूसरे को गले लगाये हुए रहते थे ।अब मानो ये सब अभी शुरू हुआ है वरना इससे पहले तो लोग हिंदी भाषा बोलने पर और देसी वेश भूषा पर किसी पब या सार्वजनिक स्थान पर जाने से रोके नहीं गए थे ,अब हमारे समकालीन लेखकों की ये जिम्मेदारी है कि वो इस असहिष्णुता को रोकें।
हिंदी किस हाल में है ,इस देश में ये किससे कहा जाये ,लेकिन इसकी समृद्धि ,फिजी ,गुयाना और मारीशस में होने सम्मेलनों में दिखायी पड़ती है ।सुन्दर ,सजे ,रंग बिरंगे होटलों में जब हवाई जहाज से लद लद कर साहित्यकार वहाँ पहुंचते हैं और वहाँ के टूरिस्ट स्पॉट्स की लुभावनी तस्वीरें पोस्ट करते हैं तो भारत में अपनी पांडुलिपि के उधार पैसे ना चुका पाने वाला लेखक ये सोचता है कि कब मैं भारतीय लेखक से इंडियन राइटर बनूँगा ,वो उधार की बीड़ी का सुट्टा लगाते हुए दुष्यंत कुमार से संवाद करता है
“रोज अखबारों में पढ़ कर ये ख्याल आया हमें
इस तरफ आती तो हम भी देखते फसले बहार “
हिंदी ने सिर्फ इस देश में कुछ चुनिंदा लोगों को विदेश यात्रा भी करवा दी ,आउट ऑफ टर्न प्रमोशन भी दिला दिया ,बस यही एक बात खटकती है कि वो हिंदी के लेखक हैं ये बात या तो सिर्फ सरकार जानती है या वो खुद ।इसी उहापोह में डूबा था तब तक मुझे विद्रोही जी मिल गए ।हम दोनों ने एक दूसरे को अपने शापित होने की बधाई दी ,मैंने उन्हें शाम के निमंत्रण के बारे में बताया उन्होंने मुझसे बीड़ी की मांग की ।इस अजीम तरीन दिन के सबब मैंने उनसे नार्वी की नज्म सुनाने की अर्ज की जिसका उन्वान था “बीड़ी जला “।
उन्होंने नज्म खत्म की और बीड़ी का कश लगाना शुरू किया ,फिर मुझसे पूछा
“एक आदमी ना किताब लिखता है
एक आदमी ना किताब पढ़ता है
फिर भी वो हिंदी सम्मेलन में विदेश जाता है
वो आदमी कौन है ,
आज हिंदी वाले इस बात पर क्यों मौन हैं “।
मैं अपने यार की बात समझ गया ,हमेशा की तरह मैंने उसकी बात का जवाब नार्वी की उसी पंक्ति से दिया
“कल भी सिर्फ बीड़ी जली थी,आज भी बीड़ी जला “।
हम दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कराये तब तक कॉन्वेंट में पढ़ कर लौट रहे मेरे बेटे ने हम दोनों को देखकर हाथ हिलाते हुए कहा –
“हैलो पापा,हेलो अंकल ,हैप्पी हिंदी डे टू बोथ ऑफ़ यू “।
अब हमारी शक्लें देखने लायक थीं ।☺️

Tags: व्यंग्य
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